नई दिल्ली [ राजीव सचान ]। भाजपा की राजनीतिक बढ़त से पहले से ही परेशान विपक्षी दलों को पूर्वोत्तर के तीन राज्यों और खासकर त्रिपुरा के चुनाव नतीजों के बाद घाम सा लगा है। वे नए सिरे से तीसरा मोर्चा बनाने की पहल करने में जुट गए हैं। मेघालय, नगालैंड और त्रिपुरा के चुनाव परिणाम आने के साथ ही तेलंगाना के मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव ने तीसरा मोर्चा बनाने की जरूरत जताई। उन्होंने केवल जरूरत ही नहीं जताई, बल्कि विपक्षी दलों के कई नेताओं से बात भी कर डाली। जल्द ही यह भी खबर आ गई कि अमुक-अमुक विपक्षी नेताओं ने उनकी पहल का स्वागत किया है।

भाजपा विरोधी दलों को एकजुट करने की पहल इसके पहले भी हो चुकी हैं

चंद्रशेखर राव की पहल का स्वागत करने वाले नेताओं की ओर से अभी तक ऐसा कुछ तो नहीं कहा गया कि सेक्युलर ताकतों को एकजुट होने की जरूरत है, लेकिन जिन नेताओं ने उन्हें आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया है उनमें असदुद्दीन ओवैसी भी हैं, जो घोर सांप्रदायिक राजनीति के लिए जाने जाते हैं। चंद्रशेखर राव की इस पहल का स्वागत ममता बनर्जी ने भी किया, लेकिन उनकी ओर से यह स्पष्ट नहीं किया गया कि वह चंद्रशेखर राव का नेतृत्व स्वीकार करने के लिए तैयार हैं। ध्यान रहे कि अभी तक ममता बनर्जी यही संकेत देती रही हैं कि तीसरे मोर्चे या फिर संघीय मोर्चे का नेतृत्व करने की क्षमता और योग्यता केवल वही रखती हैं। वह संघीय मोर्चे के नाम पर भाजपा विरोधी दलों को एकजुट करने की पहल इसके पहले भी कर चुकी हैं, लेकिन कई विपक्षी नेताओं को यह रास नहीं आया कि संघीय मोर्चे की कमान ममता के हाथों मे हो। इसके बाद वह भाजपा के खिलाफ कांग्रेस का साथ देने के लिए तैयार दिखीं, लेकिन जबसे राहुल गांधी कांग्रेस अध्यक्ष बने हैं वह ऐसा जाहिर कर रही हैं कि तृणमूल कांग्रेस को कांग्रेस के नए अध्यक्ष का नेतृत्व स्वीकार नहीं।

क्या ममता बनर्जी चंद्रशेखर राव का नेतृत्व स्वीकार करेंगी

इसके आसार कम ही हैं कि ममता बनर्जी तेलंगाना राष्ट्र समिति के नेता चंद्रशेखर राव का नेतृत्व स्वीकार करने के लिए तैयार होंगी, क्योंकि एक तो तृणमूल कांग्रेस के लोकसभा सदस्यों की संख्या तेलंगाना राष्ट्र समिति के सांसदों के मुकाबले कहीं अधिक है और दूसरे उनकी पार्टी के प्रवक्ता डेरेक ओ ब्रायन यह साफ-साफ रेखांकित कर चुके हैं कि किसी वैकल्पिक मोर्चे की अगुआई के लिए ममता बनर्जी ही श्रेष्ठ नेता हैं। उन्होंने यह बात तब कही थी जब गुजरात विधानसभा चुनाव के बाद शरद पवार तीसरे मोर्चे की अगुआई के लिए अपनी सक्रियता दिखा रहे थे।

नेतृत्व के सवाल पर अटक सकता है मोर्चे का गठन 

हाल के समय में तीसरे-चौथे मोर्चे के बहाने वैकल्पिक मोर्चा बनाने की एक पहल करीब-करीब शून्य राजनीतिक हैसियत वाले शरद यादव भी कर चुके हैं। इस सिलसिले में वह सोनिया गांधी से लेकर लालू यादव तक से मिल चुके हैं, लेकिन उनके नेतृत्व में किसी तरह का कोई मोर्चा शायद ही बने। कहना कठिन है कि चंद्रशेखर राव और ममता बनर्जी की ओर से की जा रही पहल का क्या हश्र होता है, लेकिन अभी तक का अनुभव देखते हुए इसकी आशंका ही अधिक है कि ऐसे किसी मोर्चे का गठन नेतृत्व के सवाल पर अटक सकता है। जब तक नेतृत्व का मसला नहीं सुलझता तब तक ऐसे किसी मोर्चे के बनने की कहीं कोई उम्मीद नहीं और नेतृत्व का मसला इसलिए आसानी से नहीं सुलझ सकता, क्योंकि सभी बड़े नेता पीएम बनने को लालायित हैं। इसमें हर्ज नहीं कि चंद्रशेखर राव या ममता बनर्जी अथवा शरद पवार या फिर तीसरा-चौथा मोर्चा बनाने की पहल कर रहे अन्य नेता प्रधानमंत्री बनने की इच्छा रखते हैं। राजनीति में सक्रिय लोगों में उच्च पद पर पहुंचने की महत्वाकांक्षा होना बुरी बात नहीं। 1991 में अटल बिहारी वाजपेयी ने सार्वजनिक तौर पर कहा था कि हम एक राजनीतिक दल हैं और सत्ता में आना चाहते हैं। बेहतर हो कि प्रधानमंत्री के भावी दावेदार खुलकर सामने आएं ताकि जनता को यह पता चल सके कि जिस नए मोर्चे को बनाने की बात हो रही है उसकी कमान किसके हाथ होगी?

राजद और जदयू  की राह पर सपा-बसपा

पूर्वोत्तर के तीन राज्यों के चुनाव नतीजों के बाद एक अन्य उल्लेखनीय राजनीतिक घटनाक्रम यह भी हुआ है कि बसपा प्रमुख मायावती ने उत्तर प्रदेश में गोरखपुर एवं फूलपुर में लोकसभा सीटों के लिए हो रहे उपचुनाव में भाजपा को हराने की अपील कर दी। हालांकि उन्होंने यह नहीं कहा कि बसपा समर्थक इन दोनों स्थानों पर समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी को वोट दें, लेकिन माना यही जा रहा है कि अगर गोरखपुर और फूलपुर के चुनाव नतीजे सपा और बसपा के अनुकूल रहे तो ये दोनों दल उसी रास्ते पर जा सकते हैं जिस पर बिहार में राजद और जदयू गए थे। अभी यह साफ नहीं कि सपा-बसपा के मेल-मिलाप में कांग्रेस भी भागीदार बनेगी या नहीं? भले ही उसने गोरखपुर और फूलपुर से अपने प्रत्याशी न हटाने की बात कही हो, लेकिन उसके पास ज्यादा विकल्प नहीं हैं। जैसे-जैसे उसकी हालत पतली होती जा रही है, उसकी पूछ-परख घटती जा रही है। वाम दलों के कुछ नेताओं को छोड़कर अन्य कोई प्रमुख दल कांग्रेस में संभावनाएं नहीं देख रहा है।

प्रत्येक आम चुनाव के पहले तीसरा-चौथा मोर्चा बनाने की कवायद होती है

यह संभव है कि त्रिपुरा के चुनाव नतीजों के बाद वाम दलों और कांग्रेस में करीबी और बढ़े, लेकिन ऐसी स्थिति में भी तीसरा या फिर चौथा मोर्चा बनाने की पहल जारी रहेगी। आम तौर पर प्रत्येक आम चुनाव के पहले तीसरा-चौथा मोर्चा बनाने की कवायद होती है, लेकिन एक लंबे अर्से से इस कवायद से कुछ हासिल नहीं हुआ। नि:संदेह इसके आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि आगे भी ऐसी कवायद का नतीजा शून्य ही रहेगा, लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि विभिन्न राजनीतिक दल एक मंच पर आकर कहेंगे क्या?

 ठोस वैकल्पिक कार्यक्रम, नीति और नजरिया के बिना जनता कैसे विश्वास करेगी

नि:संदेह वे यह तो कहेंगे ही कि भाजपा या फिर उसके साथ-साथ कांग्रेस को भी हराना है, लेकिन क्या इतने मात्र से जनता उन्हें सत्ता में ले आएगी? जब तक तीसरा या फिर चौथा मोर्चा बनाने की कोशिश कर रहे दल देश के सामने कोई ठोस वैकल्पिक कार्यक्रम, नीति और नजरिया पेश नहीं करते तब तक जनता उन पर भरोसा करने वाली नहीं हैं। चूंकि कांग्रेस या फिर भाजपा अथवा इन दोनों का विकल्प देने के नाम पर नेताओं ने एक साथ आकर फोटो खिंचवाने और बयान देने का ही काम किया है इसलिए उन्हें जनता का भरोसा हासिल करने के लिए एक मंच पर आने के अलावा भी कुछ करना होगा। अगर इन दलों का लक्ष्य साझा है और वे वास्तव में जनता के भले के लिए ही एक मंच पर आना चाह रहे हैं तो फिर अच्छा होगा कि वे दलों की भीड़ के बजाय एक राजनीतिक दल के तौर पर सामने आएं। अगर वे ऐसा नहीं करते तो जनता यही समझेगी कि यह भीड़ तो कभी भी तितर-बितर हो सकती है।

(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं)