ए. रहमान

हाल में मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने अपने लखनऊ सम्मेलन में तीन तलाक को लेकर कुछ फैसले किए। चूंकि यह बोर्ड न तो जनता द्वारा चुनी हुई संस्था है और न ही किसी कानूनी प्रक्रिया के तहत इसका गठन किया गया है इसलिए सुप्रीम कोर्ट तीन तलाक पर उससे उसके विरोध के अधिकार पर सवाल जरूर करेगा। बोर्ड ने लखनऊ में जिन फैसलों की घोषणा की उनमें कोड ऑफ कंडक्ट यानी आचार-व्यवहार नियमावली और तीन तलाक देने वाले के सामाजिक बहिष्कार का प्रस्ताव प्रमुख है। बोर्ड द्वारा आनन-फानन में उठाए गए इस कदम ने उसके समक्ष जो समस्याएं खड़ी कर दी हैं उनसे बोर्ड के विचारक बिल्कुल बेखबर नजर आ रहे हैं। अव्वल तो कम पढ़े-लिखे मुस्लिमों को कोड ऑफ कंडक्ट का अर्थ ही समझ में नहीं आएगा। दूसरे जब विश्व के करीब सभी विद्वान इस पर सहमत हैं कि कुरान से बेहतर और सार्वभौमिक रूप से स्वीकार्य आचार व्यवहार का नियम कोई और नहीं है तो फिर इस कोड ऑफ कंडक्ट का औचित्य समझ से परे है। कुरान के होते हुए नए सिरे से कोड ऑफ कंडक्ट लागू करना और वह भी केवल तीन तलाक के संबंध में, बोर्ड के सदस्यों की मानसिक हार और अराजकता को ही दर्शाता है। आज यह सवाल प्रासंगिक है कि अपने गठन के चार दशक बाद भी इस बोर्ड की उपलब्धि क्या है? उसे यह बताना चाहिए कि दूसरे विवादस्पद मामलों जैसे एक से अधिक पत्नी रखने के सिलसिले में कोई नियम क्यों नहीं लागू किया गया, जबकि खुद कुरान में इसके लिए सख्त शर्तें दर्ज हैं। इसी तरह हलाला निकाह जो बिल्कुल भी कुरान सम्मत नहीं है, अब तक जारी क्यों है?
तीन तलाक देने वालों के सोशल बॉयकाट का मूर्खतापूर्ण प्रस्ताव जिस बुद्धिजीवी के दिमाग की उपज है उसे शायद न तो बॉयकाट शब्द का अर्थ मालूम है न उसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और न ही उसके संवैधानिक और कानूनी निहितार्थ। बॉयकाट एक आइरिश उपनाम है। 19वीं शताब्दी में चार्ल्स कन्निघम बॉयकाट एक आइरिश जागीरदार लॉर्ड अर्न का मैनेजर था और किसानों से कृषि लगान वसूलता था। उसके उत्पीड़न के चलते लोगों ने उससे दूर रहने का जो तरीका अपनाया उसे संबंध विच्छेद का कहा गया। नवंबर 1880 में द टाइम्स ने इस शब्द को सामूहिक संबंध विच्छेद के तौर पर इस्तेमाल किया। जल्द ही वह अंग्रेजी शब्दकोश का हिस्सा बन गया। प्राचीन भारत में भी सोशल बॉयकाट (जिसे बिरादरी बाहर या हुक्का-पानी बंद करना कहा जाता था) सजा के तौर पर प्रचलित था। इस्लाम के आने के बाद पूरे विश्व में भारी सामाजिक बदलाव आए, क्योंकि इस्लामी प्रणाली मानवता, आपसी मेलजोल और सामूहिकता के उसूलों पर कायम है। इसीलिए मुगल और अन्य मुस्लिम बादशाहों के दौर में सोशल बॉयकाट नगण्य रहा। अंग्रेजों ने भी पंचायत सिस्टम को प्रेरित तो किया, लेकिन वे सोशल बॉयकाट जैसी चीजों से दूर ही रहे।
स्वतंत्रता के बाद संविधान सभा में डॉ. अंबेडकर ने छुआछूत के विरोध में भाषण दिया और उसके विरुद्ध संविधान में अनुच्छेद-17 बनाया गया। इसी के तहत बंबई रियासत ने सोशल बॉयकाट के खिलाफ ‘बिरादरी बाहर रोकथाम’ कानून बनाया, परंतु उसे दाऊदी बोहरा संप्रदाय के धार्मिक गुरु सैयदना सैफुद्दीन ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे दी। इस संप्रदाय में सोशल बॉयकाट को जायज माना जाता था। इसका आदेश सैयदना जारी करते हैं जिसे उनके अनुयायी खुदा के आदेश के बराबर समझते हैं। आखिरकार 1962 में पांच जजों की संवैधानिक बेंच के तीन जजों ने उस कानून को रद कर दिया। संविधान विशेषज्ञों ने इस निर्णय को नुकसान पहुंचाने वाला बताया। इस निर्णय की समीक्षा के लिए एक याचिका सुप्रीम कोर्ट में दशकों से विचाराधीन है। इसी बीच महाराष्ट्र ने सोशल बॉयकाट के खिलाफ ‘सामाजिक बहिष्कार से लोगों की सुरक्षा’ नाम से कानून बना दिया है। यदि इस कानून को चुनौती दी जाती है तो उम्मीद है कि मौजूदा माहौल में सैफुद्दीन केस में दिया गया निर्णय उलट दिया जाएगा और सोशल बॉयकाट के खिलाफ कानून कायम रहेगा।
सोशल बॉयकाट के प्रस्ताव से मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने एक नई मुसीबत मोल ले ली है, क्योंकि कुरान में तीन तलाक पर सोशल बॉयकाट जैसी किसी सजा की बात तो दूर रही, उसका जिक्र तक नहीं किया गया है। हां, धर्म परिवर्तन के बाद की सूरत में ऐसी सजाओं का उल्लेख है, परंतु वह भी कुछ शर्तों के साथ। यह गौरतलब है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की ओर से किसी ने भी सोशल बॉयकाट को परिभाषित नहीं किया है। बोर्ड के पास न तो इस सजा को लागू करने का अधिकार है और न ही तंत्र। यह भी साफ नहीं कि इस सजा की घोषणा कौन करेगा? इस सूरत में संभव है कि सुप्रीम कोर्ट बोर्ड से सोशल बॉयकाट के औचित्य और उसके क्रियान्वयन के बारे में सवाल करे। मेरे ख्याल से सबसे अहम सवाल जो बोर्ड से सुप्रीम कोर्ट द्वारा पूछे जाएंगे वे तीन तलाक के शरई कानून के बारे में होंगे। बोर्ड की चंद अहम पुस्तिकाओं में से एक किताब ‘निकाह और तलाक’ शीर्षक से है। इसके लेखक मौलाना मिन्नतुल्लाह रहमानी हैं जो इस बोर्ड के संस्थापक कहे जाते हैं। बोर्ड की वेबसाइट पर भी मौजूद इस किताब की पृष्ठ संख्या सात पर वह लिखते हैं, ‘तीन तलाक एक साथ देना शैतानी काम है। फुकहा यानी धर्मशास्त्रियों ने इसे पाप और सजा के लायक अपराध लिखा है। इससे बचना हर मुसलमान के लिए जरूरी है।’ किताब के आखिरी पैराग्राफ में वह साफ तौर पर समझाते हैं, ‘मुसलमानों को चाहिए कि एक ही समय और एक ही बार में तीन तलाक देने से परहेज करें, क्योंकि यह गुनाह की बात है। हजरत मोहम्मद के साथियों यानी सहाबा को यही तरीका पसंद था। इस तरीके को छोड़कर दूसरा तरीका अपनाना शरीयत के खिलाफ होगा। इससे खुदा और उसका रसूल नाराज होगा और उसकी नाराजगी दुनिया और आखिरत, दोनों में बदनामी का सबब बनेगी।’
सुप्रीम कोर्ट द्वारा बोर्ड से ये सवाल भी पूछे जा सकते हैं कि अगर एक ही समय में तीन तलाक देना इतना बुरा काम है और शरीयत के खिलाफ भी तो उसे लेकर आपकी हिमायत का क्या औचित्य? इसे कानून बनाकर सदा के लिए समाप्त कर देने में आपको क्या ऐतराज है? जाहिर है कि इन सवालों का जवाब न तो कोई दीन का आलिम दे सकेगा और न ही कोई वकील।
[ लेखक सुप्रीम कोर्ट में वकील एवं इस्लामी मामलों के जानकार हैं ]