ताजमहल का मामला शांत होने के बाद टीपू सुल्तान को लेकर बहस छिड़ जाना यह अजब है कि किस तरह कुछ लोग वर्तमान और भविष्य को छोड़कर अतीत की कथित गलतियों को ठीक करने में ज्यादा दिलचस्पी रखते हैं। टीपू सुल्तान को लेकर नए सिरे से बहस तब तेज हुई जब पिछले दिनों राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने टीपू सुल्तान को अंग्रेजों के खिलाफ लड़ते हुए जान देने वाला योद्धा बताया। यह बात उन्होंने कर्नाटक विधानसभा के 60 साल पूरे होने के उपलक्ष्य में राज्य विधायिका के दोनों सदनों के संयुक्त सत्र को संबोधित करते हुए कही। चूंकि भारतीय संविधान में राष्ट्रपति के भाषण की विषय वस्तु केंद्र सरकार की मानी जाती है लिहाजा मोदी सरकार को भी धन्यवाद का पात्र माना जाना चाहिए। यह अलग बात है कि कर्नाटक भाजपा के कुछ नेता इस भाषण को लेकर खफा हैं, क्योंकि वे टीपू सुल्तान को एक खराब शासक मानते हैं। हाल में केंद्र सरकार के इस राज्य से आने वाले एक मंत्री ने टीपू सुल्तान को आतताई और दुष्कर्मी तक कहा और कर्नाटक सरकार को आगामी 10 नवंबर को सुल्तान का जन्म-दिवस न मनाने की ताकीद भी की। राष्ट्रपति के उक्त भाषण से यह स्पष्ट है कि एक समुदाय से आने वाले प्रतिमानों को अतार्किक और बेजा दुराग्रह से नीचा दिखाने के प्रयासों से वह सहमत नहीं। यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि जैसे ताजमहल के मामले में ठोस तथ्यों के बिना ही बात की गई वैसे ही टीपू सुल्तान के मामले में भी की जा रही है।

टीपू सुल्तान के बारे में उत्तर भारत के स्कूलों में कुछ दशक पहले यह एक पाठ पढ़ाया जा था कि मैसूर में उसके जबरिया धर्म-परिवर्तन अभियान के डर से तीन हजार ब्राम्हणों ने आत्महत्या कर ली थी। इस पाठ के लेखक हरिप्रसाद शास्त्री थे जो उस समय कलकत्ता विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग के विभागाध्यक्ष थे। इतिहासकार बीडी पांडेय ने जब यह तथ्य देखा तो उन्होंने प्रोफेसर शास्त्री को पत्र लिखकर जानना चाहा कि यह तथ्य उन्हें कहां से मिला? प्रोफेसर शास्त्री का जवाब आया कि उन्होंने यह जानकारी मैसूर गजेटियर से हासिल की है। इस पर प्रोफेसर पांडेय ने मैसूर विश्वविद्यालय के इतिहास के विभागाध्यक्ष प्रोफेसर श्रीकांतिया से इस तथ्य के बारे में जानना चाहा। उनका जवाब आया कि ऐसा कोई तथ्य मैसूर गजेटियर में नहीं है। उल्टे उन्होंने यह जानकारी दी कि टीपू सुल्तान का प्रधानमंत्री पुन्नैया एक ब्राम्हण था। इसी तरह सेनापति जनरल कृष्णाराव भी एक ब्राम्हण था। प्रोफेसर श्रीकांतिया ने 156 ऐसे मंदिरों की लिस्ट भेजी जिनके रखरखाव के लिए टीपू शाही खजाने से हर माह पैसा मुहैया करवा था। श्रृंगेरीमठ के तत्कालीन शंकराचार्य से उसके करीबी रिश्ते थे। ध्यान रहे कि यह गजेटियर अंग्रेजों का बनाया हुआ है, न कि मुसलमान शासकों का। टीपू सुल्तान के बारे में प्रोफेसर शास्त्री का उक्त पाठ हाईस्कूल के पाठ्यक्रम का हिस्सा था।

उड़ीसा के राज्यपाल और राज्यसभा के सदस्य रहे प्रोफेसर पांडेय ने कलकत्ता विश्वविद्यालय के वाइस-चांसलर प्रोफेसर आशुतोष मुखर्जी को पत्र लिख कर इन तथ्यों और संबंधित दस्वेजों से अवगत कराया। तब जाकर उक्त पाठ तमाम राज्यों की पाठ्यपुस्तक से बाहर किया गया। इस घटनाक्रम का जिक्र प्रोफेसर पांडेय ने राज्यसभा में किया जो आज भी संसद के रिकॉर्ड में दर्ज है। राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने टीपू सुल्तान की शहादत और उसके युद्ध कौशल का जिक्र करके एक तरह से देश को इतिहास की निरपेक्ष समझ विकसित करने का आह्वान किया है। दरअसल हमने कभी भी यह जानने की कोशिश नहीं की कि अंग्रेजों ने किस तरह हिंदू और मुसलमानों के बीच वैमनस्य फैलाने का काम किया। उनकी मंशा की कुछ बानगी देखें: ‘14 जनवरी 1887 को लॉर्ड क्रॉस ने लॉर्ड डफरिन को पत्र लिखा, धर्म के आधार पर जो बंटवारा हमने किया है उससे हमें खासा फायदा पहुंचा है और हमें उस दिन का इंतजार है जब भारत में शिक्षा एवं पाठ्यक्रम संबंधी इंक्वायरी कमेटी के कुछ अच्छे परिणाम मिलेंगे।’ ब्रिटिश विदेश मंत्री ने 1862-63 के तत्कालीन गवर्नर जनरल एल्गिन को एक चिट्ठी लिखी थी कि हमने अपनी सत्ता भारत में इसलिए बरकरार रखी, क्योंकि हमने मुसलमानों को सफलतापूर्वक हिंदुओं से लड़वाया। हमें यह सिलसिला कायम रखना होगा। सुनिश्चित करें कि दोनों समुदायों के बीच में मैत्री न बढ़े। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री रह चुके रैम्से मैकडोनल्ड ने भी अपनी एक पुस्तक में इसका जिक्र किया है कि हिंदुस्तान में मुसलमानों को विशेष रियायत देने का मकसद दोनों समुदायों में फूट डालना था।

उपरोक्त तथ्य इसकी तस्दीक करते हैं कि 1857 की बगावत के बाद अंग्रेज शासकों ने एक सोची-समझी रणनीति के तहत हिंदू और मुसलमानों को अलग करने की सफल कोशिश की और अगले 80 साल देश पर शासन करते रहे, लेकिन इस पूरी रणनीति के जो अन्य दो दुखद पहलू रहे वे यह कि भारत का बंटवारा हुआ और उससे भी बड़ा जख्म यह लगा कि भारत में हिंदू और मुसलमानों के बीच न पटने वाली खाई बन गई। अंग्रेजों ने इतिहास बदल दिया और तत्कालीन भारतीय इतिहासकारों का एक वर्ग उनके जाल में इस कदर फंसा कि आज तक उसका प्रभाव देखने को मिल रहा है। नि:संदेह ऐसा नहीं है कि मुगल शासकों का एक वर्ग अतिवादी नहीं था या सोमनाथ मंदिर गजनवी ने नहीं तोड़ा या फिर मीर बकी ने अयोध्या में मंदिर नहीं तोड़ा था, लेकिन अगर इन्हीं तथ्यों को पाठ्यक्रम का हिस्सा बना दिया जाए और अन्य सकारात्मक तथ्यों को दबा दिया जाए तो फिर दो समुदायों के बीच जो दरार पड़ेगी वह शताब्दियों तक मिटनी मुश्किल होगी। अंग्रेजों ने यही किया। आज जब हम पाकिस्तान बनने के 70 साल बाद तथ्यों का विश्लेषण करते हैं तब कई बार हमारे दिलो-दिमाग में तमाम गलत व्याख्याएं अटक जाती हैं। नतीजा यह हो है कि हिंदू और मुसलमानों के बीच हमारे बनाम उनके का भाव बना रह है। इस भाव को मिटाने की जरूरत हैं, क्योंकि दोनों समुदाय के पूर्वज और उनकी विरासत तथा संस्कृति एक ही है।

तैमूर-बाबर बाहर से आए थे, लेकिन आज के आम मुसलमान नहीं। क्या आज हमें यह तथ्य नहीं बताना चाहिए कि बाबा अलाउद्दीन खां मुसलमान होने के बावजूद सतना के निकट मैहर में नियमित रूप से मां शारदा के मंदिर में जाने के बाद ही अपना रोजमर्रा का काम शुरू किया करते थे? जब मुस्लिम लीग के सम्मेलन में मुहम्मद इकबाल ने अलग मुस्लिम राज्य की बात कही तो दारूल-उलूम से जुड़े मौलाना हुसैन अहमद मदनी इसका विरोध करने वाले शुरुआती व्यक्तियों में से एक थे। प्रोफेसर राचंद्र ने लिखा है कि देवबंद के दारूल-उलूम ने हर उस आंदोलन का समर्थन किया जो भारत से अंग्रेजों को खदेड़ने के लिए चलाया गया। दारूल उलूम के प्रमुख की जिम्मेदारी मौलाना महमूद-उल-हसन को मिली तो उनकी जिंदगी का मकसद भी देश की आजादी बना। आज जरूरत इसकी है कि दुराग्रह विहीन बुद्धिजीवी वर्ग आजादी के मकसद को कामयाब करने के लिए दोनों समुदायों के बीच नैसर्गिक एक बहाल करने को उद्यत हो।

[लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ पत्रकार हैं]