बीते दिनों जब छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में 2595 फीट की ऊंचाई पर स्थापित साढ़े तीन फीट ऊंची दुर्लभ गणेश प्रतिमा के विध्वंस का समाचार मिला तो स्थानीय लोगों के साथ ही देशभर के पुरातत्व प्रेमी सकते में आ गए। यह प्रतिमा सैकड़ों साल पुरानी ही नहीं, बल्कि भारत की उन सांस्कृतिक धरोहरों में से एक है जिसका मूल्य नहीं आंका जा सकता। लगभग एक हजार साल पहले छिंदक नागवंशी राजाओं ने इस क्षेत्र में अनेक मंदिरों का निर्माण कराया था। ढोलकल की ऊंची पहाड़ी पर गणेश प्रतिमा की स्थापना भी इन्हीं राजाओं ने कराई थी। दंतेवाड़ा के पुरसपाल क्षेत्र की इस ऊंची पहाड़ी का नाम ढोलकल इसलिए पड़ा, क्योंकि वह ढोलनुमा आकार की है। समय बीतने के साथ गणेश प्रतिमा वाली यह पहाड़ी धीरे-धीरे एक तीर्थस्थल में परिवर्तित हो गई। तरह-तरह की अफवाहों के बीच प्रतिमा की खोज शुरू हुई तो वह अपने प्राकृतिक सिंहासन से सैकड़ों फीट नीचे खंडित स्वरूप में 67 टुकड़ों में मिली। जिला प्रशासन की ओर से प्रतिमा के टुकड़ों को सहेजकर बड़े जतन से जोड़ा गया। घटना के चार दिन बाद हर्षोल्लास के साथ प्रतिमा को फिर से स्थापित तो कर दिया गया, लेकिन यह प्रश्न अनुत्तरित है कि यह अनर्थ किया किसने और देश ने इस घटना का सही तरह संज्ञान क्यों नहीं लिया? संदेह की सुई नक्सलियों से लेकर देश भर में फैले मूर्ति चोरों की ओर घूम रही है।
ढोलकल की घटना ने पुरातत्व प्रेमियों को बेचैन किया है। इसलिए और भी, क्योंकि अगस्त 2016 में संसद में दी गई जानकारी के अनुसार भारतीय पुरातत्व विभाग यानी एएसआई के संरक्षण वाली 24 इमारतें गायब पाई गईं। इनमें से आधी उत्तर प्रदेश में थीं। उत्तराखंड में 1960 से अब तक सातवीं और नौवीं शताब्दी के दो मंदिर विलुप्त हो चुके हैं। ऐतिहासिक महत्व के मंदिर-मठ और अन्य भवन कैसे विलुप्त होते हैं, इसका पता गुलबर्गा से लगभग 40 किमी दूर मिनी हम्पी के नाम से मशहूर कलगी में चालुक्य कालीन मंदिरों के जीर्णशीर्ण अवशेष बताते हैं। यहां जुआरियों के अड्डे और मूर्ति चोरों के गैंग बसते हैं। हमारे इतिहास के सबसे गूढ़ पन्ने जिनमें सिंधु-सरस्वती सभ्यता का वर्णन है राखीगढ़ी जैसे अमूल्य पुरातात्विक स्थलों पर प्रशासन की उदासीनता और ग्रामीणों के अज्ञान के चलते धूल-धूसरित हो रहे हैं। हाल में मध्य प्रदेश में एक लंबी प्राचीन दीवार के अवशेष और मंदिरों के भग्नावशेष मिले। एएसआई ने वहां खुदाई करने से मना कर दिया। हैरत नहीं कि हमारी यह धरोहर अंतरराष्ट्रीय बाजारों में बिकने को मजबूर हो। इसी क्रम में यह भी स्मरण रखें कि हिंदू और जैन मंदिरों के भग्नावशेषों पर गई क़ुतुब मीनार परिसर को वल्र्ड हेरिटेज का दर्जा हासिल हो चुका है।
पुरातात्विक महत्व की सांस्कृतिक विरासत की उपेक्षा पर केवल सरकार को ही नहीं कोसा जा सकता। आखिर वे हमारे अपने ही लोग हैं जो प्राचीन मूर्तियां चुराकर औने-पौने दामों में बेचते हैं। इससे भी सब अवगत होंगे कि हमारे तमाम प्राचीन विश्वविद्यालय और उनके पुस्तकालय विदेशी आक्रमणकारियों की जलती मशालों की भेंट चढ़ चुके हैं। यह भी याद रखें कि यदि जेम्स प्रिंसेप न होते तो ब्राह्मी और खरोष्ठी भाषाएं अनुवाद के अभाव में विलुप्त हो चुकी होतीं। एलेक्जेंडर कन्निघम न होते तो भारत में आर्कियोलॉजिकल सोसाइटी की स्थापना भी न हो पाती, लेकिन कन्निंघम अपने साथ हमारा तमाम इतिहास सिक्कों, मूर्तियों और पांडुलिपियों के रूप में इंग्लैंड ले गए और अब वह ब्रिटिश म्यूजियम की शोभा बढ़ा रहा।
हमारा इतिहास एक ऐसा जला हुआ पन्ना है जिसे हर कोई अपने रंग में रंग कर और नया करके प्रस्तुत करना चाहता है। नया चलन यह है कि घोर आपदा के समय भारतीय इतिहास को संजोये रखने में जिन लोक कथाओं ने बड़ा काम किया अब उन्हीं को तोड़मरोड़ कर फिल्में बनाई जा रही हैं, लेकिन अगर आप यह सब पढ़कर निराश हों तो स्पेस पुरातत्वविद सारा पारसेक ने ग्लोबल एक्सप्लोरर नाम का एक प्लेटफार्म बनाया है, जहां गूगल मैप्स की मदद से घर बैठे कंप्यूटर पर किसी भी पुरातत्व स्थल का कोना-कोना छान सकते हैं। ऐसा ही कुछ दिमित्री डे ने किया जब वह 2007 में कजाकिस्तान में अपने घर के कंप्यूटर पर पिरामिड खोजते-खोजते प्रागैतिहासिक स्वास्तिक-नुमा कृति खोज बैठे। विदेशों में ऐसे कई पुरातत्व प्रेमी हैं जिन्होंने बड़ी-बड़ी खोजें कर अपने देश को समर्पित कर दीं। ब्रिटेन में सॉमरसेट में फ्रॉम नामक जगह पर निकले सिक्कों के घड़े ने पुरातत्व शास्त्रियों को ब्रिटेन के अब तक के गुप्त इतिहास के बारे में बताया है। हमारी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत हमारी आंखों के सामने ही विलुप्त न हो जाए इसके लिए हमें प्रण लेना होगा कि अमूल्य धरोहरों की रक्षा करेंगे। जब ऐसा करेंगे तभी ढोलकल में गणेश प्रतिमा की पुर्नस्थापना का वास्तविक उद्देश्य पूरा होगा।
( लेखिका लावण्या शिवशंकर, प्रौद्योगिकी विशेषज्ञ एवं पुरातत्व संरक्षण एक्टिविस्ट हैं )