नई दिल्ली [ संजय गुप्त ]। एक फरवरी को आ रहे मोदी सरकार के चौथे बजट पर पूरे देश की निगाहें लगी हुई हैं तो इसके पर्याप्त कारण हैैं। एक तो यही है कि अगले आम चुनाव के पहले यह आखिरी आम बजट है और दूसरे जीएसटी के रूप में सबसे बड़े कर सुधार के बाद देश यह देखना चाहेगा कि सरकार की भावी आर्थिक दिशा क्या होगी? चूंकि 2019 में आम चुनाव होने हैं इसलिए यह बजट एक तरह से अगले चुनाव का आधार भी तय करेगा। वैसे तो सरकारों का कार्यकाल पांच साल का होता है और इस दौरान उनसे यह अपेक्षा होती है कि वे नीतिगत निर्णयों के साथ जनकल्याण के कार्यों पर लगी रहें, लेकिन अक्सर सरकारों की ओर से चुनाव के एक वर्ष पहले लोक-लुभावन फैसले लिए जाने लगते हैं ताकि मतदाताओं का ध्यान अपनी ओर खींचा जा सके। मतदाता भी सरकारों के आखिरी दौर के फैसलों का ज्यादा ध्यान रखते हैं। इसीलिए किसी भी सरकार का तीसरा या चौथा बजट लोक-लुभावन घोषणाओं से भरा होता है।

नोटबंदी और जीएसटी के फैसलों के बाद अर्थव्यवस्था की गति आगे नहीं बढ़ पा रही है

अगर मौजूदा आर्थिक परिदृश्य देखें तो नोटबंदी और जीएसटी के बड़े फैसलों के बाद अर्थव्यवस्था उस गति से आगे नहीं बढ़ पा रही है जितना कि सोचा गया था। अर्थव्यवस्था के आगे न बढ़ने का एक कारण है मांग न पैदा हो पाना और इसकी एक बड़ी वजह है ग्रामीण आबादी की क्रय शक्ति न बढ़ना। यह क्रयशक्ति तब बढ़ेगी जब खेती-किसानी की दशा में कोई ठोस सुधार होगा।

जीएसटी के तहत कर संग्रह अपेक्षा से कम रहने का असर आम बजट पर पड़ सकता है
आम बजट आने के साथ ही जीएसटी को लागू हुए सात माह हो जाएंगे। अभी तक का अनुभव यह बता रहा है कि व्यापारियों का एक वर्ग येन-केन प्रकारेण टैक्स बचाने वाले तौर-तरीकों को अपनाए हुए है। जीएसटी की कंपोजीशन स्कीम के तहत जिन व्यापारियों ने अपना पंजीकरण कराया है उनसे अब तक बमुश्किल तीन सौ करोड़ रुपये का कर एकत्र हो पाया है, जबकि पंजीकरण कराने वाले व्यापारियों की संख्या ग्यारह लाख से अधिक है। स्पष्ट है कि तमाम व्यापारी गलत तरीके से अपना टर्नओवर बीस लाख ही दिखा रहे हैं। जीएसटी काउंसिल की बैठक में वित्तमंत्री अरुण जेटली ने इसका उल्लेख भी किया। राज्यों को इस छल-छद्म के प्रति सचेत हो जाना चाहिए। इसलिए और भी, क्योंकि जीएसटी के तहत कर संग्रह गिर रहा है। जीएसटी के तहत कर संग्रह अपेक्षा से कम रहने का सीधा असर आम बजट पर पड़ सकता है। इससे विकास योजनाएं भी प्रभावित हो सकती हैं। केंद्र सरकार इस साल शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी जरूरतों के साथ सामाजिक योजनाओं पर अधिक धन खर्च करना चाहेगी, लेकिन राजस्व संग्रह में कमी से यह काम मुश्किल हो सकता है।

शिक्षा और स्वास्थ्य पर सरकार का खर्च काफी कम है

अपने देश में शिक्षा और स्वास्थ्य पर सरकार का खर्च वैसे भी अन्य विकासशील देशों की तुलना में काफी कम है। यही कारण है कि तमाम सामाजिक सूचकांकों पर भारत की स्थिति में कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं आ रहा है। इस स्थिति को ठीक किया जाना आवश्यक है, क्योंकि शिक्षा और स्वास्थ्य के ढांचे को सशक्त बनाकर ही दूरगामी लक्ष्यों को हासिल किया जा सकता है।

किसानों की आय दोगुनी होती नहीं दिख रही, पीएम मोदी का वादा अधूरा रह सकता है
मोदी सरकार के समक्ष एक अन्य बड़ी परेशानी कृषि क्षेत्र की समस्याओं का समाधान न हो पाना है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वादा किया था कि वह 2022 तक किसानों की आय दोगुनी कर देंगे, लेकिन अभी तक ऐसा कुछ होता नहीं दिख रहा है जिससे यह कहा जा सके कि इस लक्ष्य को हासिल किया जा सकता है। यह सही है कि यूरिया की नीम कोटिंग करने, नई फसल बीमा योजना शुरू करने, खेतों की मिट्टी का परीक्षण कराने जैसी योजनाएं किसानों के लिए मददगार साबित हुई हैैं, लेकिन उनकी आय बढ़ने का नाम नहीं ले रही हैैं। जब जरूरत इसकी है कि किसानों को लागत से कहीं अधिक मूल्य मिले तब उन्हें अपनी उपज का लागत मूल्य हासिल करना भी मुश्किल हो रहा है। सरकार इसकी अनदेखी नहीं कर सकती कि अगर खेती मुनाफे का सौदा नहीं बनती तो किसानों की क्रय शक्ति नहीं बढ़ने वाली और बगैर ऐसा हुए अर्थव्यवस्था को गति भी नहीं मिलने वाली। खेती के समक्ष कुछ दूसरे संकट भी हैैं। चूंकि कई राज्यों में किसानों को सब्सिडी वाली बिजली दी जाती है इसलिए वे सिंचाई के लिए पानी का इस्तेमाल करने में किफायत नहीं बरतते। इसके चलते देश के तमाम हिस्सों में भूजल स्तर नीचे गिरता जा रहा है।

सरकार को कम सिंचाई में ज्यादा पैदावार की योजना लानी ही होगी

सरकार को कम सिंचाई में ज्यादा पैदावार की कोई योजना लानी ही होगी। अगर फल-सब्जियों और अनाज के रखरखाव के साथ उन्हें आसानी के साथ सुरक्षित तरीके से एक स्थान से दूसरे स्थान ले जाया जा सके तो किसानों को लाभ मिल सकता है, लेकिन फूड प्रोसेसिंग और कोल्ड चेन जैसी योजनाओं पर अभी भी सही तरह अमल होता नहीं दिख रहा। चूंकि इस बजट में इस पर खास निगाह रहेगी कि सरकार खेती और किसानों की दशा सुधारने के लिए क्या करती है इसलिए उसे उम्मीदों पर खरा उतरना होगा, लेकिन इसके साथ ही उसे यह देखना होगा कि किसान कर्ज माफी की मांगें फिर से न उभरने पाएं। किसान कर्ज माफी की मांगें न तो किसान के हित में हैैं और न ही अर्थव्यवस्था की सेहत के लिए।

श्रम कानूनों में सुधार के बिना उद्योगों की उत्पादकता नहीं बढ़ने वाली
मोदी सरकार से जो एक अन्य काम अपेक्षित है वह है श्रम कानूनों में सुधार को आगे बढ़ाना। साढ़े तीन साल के कार्यकाल में इस मोर्चे पर कुछ खास नहीं हो सका है और वह भी तब जब इसे बार-बार रेखांकित किया गया है कि श्रम कानून बदले बगैर भारतीय उद्योगों की उत्पादकता नहीं बढ़ने वाली। उत्पादकता के मामले में पिछड़े होने के कारण हमारे उद्योग निर्यात के मोर्चे पर भी कमजोर साबित हो रहे हैैं। कई एशियाई देश भारत से कहीं अधिक आगे हैैं। अगर राजनीतिक कारणों से श्रम सुधार अभी भी प्राथमिकता में नहीं आते तो यह अच्छी बात नहीं होगी। बेहतर होगा सरकार इस मसले पर राजनीतिक सहमति बनाने की कोशिश करे, क्योंकि लंबित श्रम सुधार अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने में सहायक नहीं साबित हो रहे हैैं। अच्छा होगा कि राजनीतिक दल यह समझें कि श्रम सुधार उत्पादकता के स्तर को सुधारने के साथ ही कामगारों के भविष्य को भी बेहतर बनाएंगे। श्रम सुधार उद्योग-व्यापार को गति देने के साथ रोजगार के नए अवसरों को पैदा करने का भी काम करेंगे। बेरोजगारी का मसला और चर्चा में आए, इसके पहले ही सरकार को यह देखना होगा कि रोजगार के ज्यादा मौके कैसे उपलब्ध हों?

आम बजट में प्रधानमंत्री मोदी के इरादों की झलक मिलनी चाहिए
यह सही है कि रोजगार के मौके देने का मतलब सरकारी नौकरियां देना ही नहीं, लेकिन यह भी ठीक नहीं कि केंद्र सरकार के साथ-साथ राज्यों के विभिन्न विभागों में लाखों रिक्त पद खाली ही पड़े रहें। चूंकि अब 19 राज्यों में भाजपा अथवा उसके सहयोगी दल की सरकारें हैैं इसलिए उन्हें भी अर्थव्यवस्था को गति देने, खेती-किसानों का हित करने और रोजगार के मौके उपलब्ध कराने वाले उपायों पर ध्यान देना चाहिए। ऐसा इसलिए भी करना चाहिए, क्योंकि भाजपा शासित मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में इसी साल के अंत में चुनाव होने हैैं। चूंकि प्रधानमंत्री बार-बार यह कहते रहे हैैं कि उनकी सरकार का हर फैसला देशहित में होगा और वह कड़े फैसले लेते समय संकोच नहीं करते इसलिए आम बजट में इसी इरादे की झलक मिले तो बेहतर।

[ लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं ]