कृपाशंकर चौबे। राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 शिक्षा के भारतीयकरण पर बल तो देती है, किंतु इस लक्ष्य की पूर्ति तभी संभव है, जब ज्ञान के सभी अनुशासनों में भारतीय पद्धति से अनुसंधान भी हों। विडंबना यह है कि भारत में विभिन्न विषयों में अनुसंधान के लिए अभी भी विदेशी पद्धतियां अपनाई जा रही हैं। जबकि भारत में अनुसंधान अथवा गवेषणा या मीमांसा या शोध की प्राचीन परंपरा और पद्धति रही है।

गवेषणा शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग ऋग्वेद में मिलता है। इसका अभिप्राय प्रकाश/ज्ञान की खोज है। अनुसंधान के मुख्यतः तीन प्रकार हैं-मौलिक, व्यावहारिक या अनुप्रयुक्त और क्रियात्मक अनुसंधान। इन तीनों प्रकार के अनुसंधान प्राचीन भारत में हो चुके हैं। भारत के तीन अध्येताओं-डॉ कपिल कुमार भट्टाचार्य, प्रो. विप्लव लोहो चौधरी और प्रो. रमेश एन. राव ने अपने शोध ग्रंथ ‘नाट्यशास्त्रः ए स्टडी आन कंटिन्यूटी एंड प्रोग्रेस आफ इंडियन कम्युनिकेशन थ्योराइजिंग एंड प्रैक्टिस’ में वेदों एवं उपनिषदों को मौलिक अनुसंधान की श्रेणी में, धर्मशास्त्र और नाट्यशास्त्र को अनुप्रयुक्त अनुसंधान और चरक संहिता एवं सुश्रुत संहिता को क्रियात्मक अनुसंधान की श्रेणी में रखा है।

ईसा से लगभग 600 वर्ष पूर्व कपिल मुनि द्वारा प्रवर्तित सांख्य दर्शन ने तर्कपूर्ण युक्तियुक्त चिंतन पर बल दिया। वाचस्पति मिश्र ने सांख्यतत्त्वकौमुदी’ में लिखा कि इस दुनिया में सभी अनुसंधानों का उद्देश्य मानव जाति की किसी भी अनसुलझी समस्या का समाधान करना है। उनके अनुसार किसी भी अनुसंधान को तभी सार्थक माना जाना चाहिए जब वह इन पांच शर्तों को संतोषजनक ढंग से पूरा करता हो। जैसे-कोई स्पष्ट समस्या होनी चाहिए, जिसके लिए वैज्ञानिक जांच की आवश्यकता हो।

वैज्ञानिक जांच के माध्यम से उस समस्या का समाधान वांछनीय होना चाहिए। वैज्ञानिक जांच के माध्यम से संभावित समाधान प्राप्य प्रतीत होना चाहिए। समाधान के लिए वैज्ञानिक जांच को आगे बढ़ाने के साधन उपलब्ध होने चाहिए। वाचस्पति मिश्र के अनुसार त्रिविध दुख (आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधि-दैविक) को दूर करने के उपाय के लिए ही अनुसंधान होता है यानी दुख दूर करने या किसी समस्या का समाधान वैज्ञानिक विधि से खोजना शोधकर्ता का उद्देश्य होना चाहिए। इसी तरह अभिनवगुप्त (दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी) ने भी भारत की अनुसंधान पद्धति पर प्रकाश डाला।

उन्होंने शोध की विधियों का वर्णन इस प्रकार किया है-प्रासंगिक सामग्री पर ध्यान केंद्रित करना। अनिवार्य सामग्री को चिह्नित करना। आवश्यक स्पष्टीकरण के साथ सामग्री को सार्थकता प्रदान करना। प्रासंगिक सामग्री के भीतर विरोधाभासों को संबोधित करना। मूल कार्य की भावना को अक्षुण्ण रखना। वर्तमान कार्य के उद्देश्य के अनुरूप होना। बहुअर्थी शब्दों, वाक्यों पर विचार-विमर्श, दोहराव के संबंध की व्याख्या करना। वैध समाधान अथवा निष्कर्ष पर पहुंचना और कार्य को अत्यंत संक्षिप्तता से पूरा करना।

भारत की प्राचीन अनुसंधान पद्धति शोधकर्ता में शोध-वृत्ति जागृत कर उसे शोध की महत्ता का बोध कराती है। शोधार्थी को सांगोपांग विश्लेषण-विवेचन के माध्यम से सम्यक अनुशीलन में सक्षम बनाती है। वेदों, उपनिषदों, धर्मसूत्रों, रामायण, महाभारत और अन्य प्राचीन भारतीय ग्रंथों में पाई जाने वाली अनुसंधान पद्धति के अनुसरण में अनुसंधान को बढ़ावा दिए जाने पर ही ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में भारतीय विद्या की मौलिकता सिद्ध होती रहेगी।

भारतीय विद्या की मौलिकता का एक कारण यह है कि पाश्चात्य चिंतन गणितमूलक है, जबकि भारतीय चिंतन की भाषा व्याकरणमूलक है। यह देखना आवश्यक है कि अनुसंधान के उपरांत सृजित ज्ञान कितना समाजोपयोगी है। भारत के तमाम विश्वविद्यालयों तथा विद्या केंद्रों में निरंतर शोध हो रहे हैं, लेकिन क्या वे सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनीतिक एवं शैक्षणिक उत्थान में योगदान कर रहे हैं? उनसे क्या उन समस्याओं को दूर करने में मदद मिल रही है, जिनसे देश जूझ रहा है जैसे-गरीबी, बेरोजगारी, ऋण समस्या से जूझते किसानों की आत्महत्या आदि?

भारत में अनुसंधान के क्षेत्र में एक और विडंबना है और वह यह कि भारत के तमाम विद्या केंद्रों में अनुसंधान में संदर्भ की भी विदेशी शैलियां अपनाई जा रही हैं, जो संख्या में मुख्यतः पांच हैं-एमएलए (माडर्न लैंग्वेज एसोसिएशन आफ अमेरिका), एपीए (अमेरिकन साइकोलोजिकल एसोसिएशन), शिकागो, बैंकूवर और हार्वर्ड। भारत में अनुसंधान में साधारणतया दो प्रकार की संदर्भ व्यवस्थाएं अपनाई जाती रही हैं। एक-नोट व्यवस्था तथा दूसरी-कोष्ठकबद्ध व्यवस्था। नोट व्यवस्था में टिप्पणी क्रमानुसार दी जाती है। फुट नोट्स किसी विचार-अभिमत की पुष्टि अथवा खंडन में, यहां तक कि स्पष्टीकरण में सहायक होते हैं।

नोट व्यवस्था में शिकागो एवं एमएलए शैलियां प्रयोग में लाई जाती हैं। कोष्ठकबद्ध व्यवस्था में आंशिक संदर्भ रहता है, जो पाठ के अंतर्गत कोष्ठक में दिया जाता है। पूरा संदर्भ अंत में दिया जाता है। इस व्यवस्था को हार्वर्ड व्यवस्था अथवा लेखक-दिनांक व्यवस्था भी कहा जाता है। कोष्ठकबद्ध व्यवस्था में एपीए, हार्वर्ड और बैंकूवर संदर्भ शैलियां प्रयोग में लाई जाती हैं। कहने की जरूरत नहीं कि भारत की अपनी अनुसंधान संदर्भ शैली विकसित करने की भी बहुत जरूरत है। यदि ऐसा नहीं किया जाता तो भारत को ज्ञान से संपन्न करना और ज्ञान आधारित राष्ट्र बनाना कठिन होगा। भारत में भारत की ज्ञान परंपरा स्थापित होनी ही चाहिए।

(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में प्रोफेसर हैं)