बद्री नारायण : ज्ञान एवं संस्कृतियां संवाद का सबसे बेहतर माध्यम होती हैं। वे हमारे भीतर की संवेदना, मानवीय भाव एवं रचनात्मक संवाद शक्ति को विकसित करती हैं। साथ ही वे 'आपस में जोड़ने एवं जुड़ने' के स्रोत भी देती हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी संस्कृति की इस शक्ति को अन्य राजनीतिक दलों से बेहतर समझते हैं। अगर व्यापक अर्थ में देखें तो राजनीति है क्या? राजनीति वस्तुतः जोड़ने एवं जुड़ने का एक माध्यम है। वही राजनीतिक दल एवं शक्ति लगातार फैलती जाती है, जो समाज में रचनात्मक ढंग से संवादों के प्रकार खोजती रहती है और मानस में उनका सार्थक उपयोग करती है।

यही पद्धति न केवल राजनीति, वरन समाज निर्माण में भी मदद करती है। समाज वस्तुतः विविधता में एकता के दर्शन पर खड़ा होता है, जिसमें एकात्मकता का भाव अनेक विविधाताओं को जोड़ता रहता है। इसी से ज्ञान एवं संस्कृतियों में हमारी टकराहटें, हमारे तनाव, हमारी प्रतिद्वंद्विता एवं संघर्ष का भी भाव तिरोहित होता है। ज्ञान एवं संस्कृति समाज के दो परिक्षेत्र हैं, जिनमें संगम एवं सम्मिलन का भाव जागृत होता है। इसीलिए प्रशासन एवं राजनीति को संस्कृति एवं ज्ञान की जरूरत होती है, जिनके माध्यम से सामान्य जीवन में एकात्मकता का भाव जगाया जा सके।

बनारस में चल रहा 'काशी-तमिल संगमम' एक ऐसा ही प्रयास है। 'काशी-तमिल संगमम' एक महीने तक चलने वाला कार्यक्रम है, जिसमें काशी एवं तमिल संस्कृति के बीच समाहित अनेक तरह की समानताओं और संवादों को जागृत कर तथा उन्हें पुनर्नवा करने की प्रक्रिया चल रही है। साहित्य, संस्कृति, भाषा, धर्म, ज्ञान, कला, विज्ञान, तकनीक, देशज उद्यमों से जुड़े हिंदी पट्टी एवं तमिल क्षेत्रों के विशेषज्ञ एवं कलावंत इस कार्यक्रम में शामिल होकर संवाद कर रहे हैं। दोनों ही संस्कृतियों के संत, लोकप्रिय पंथों के महंत, कलाकार, छात्र, युवा, देशज लोककलाओं के कलाकार प्रायः साथ-साथ एक मंच एवं एक स्थान पर अपने ज्ञान एवं कला का प्रदर्शन कर रहे हैं। रामायण एवं अन्य पौराणिक पाठों पर तमिल व्याख्याकारों की चर्चा इस कार्यक्रम की एक अन्य विशिष्ट प्रवृत्ति के रूप में दिखाई पड़ रही है।

'काशी-तमिल संगमम' एक प्रकार से हिंदी पट्टी एवं तमिल भूमि, उत्तर भारत एवं द्रविड़ क्षेत्र, संस्कृत एवं तमिल जैसे अनेक द्वंद्वों को तिरोहित कर उन्हें एक में समाहित करने की दीर्घकालिक योजना है। इसके लिए काशी को एक प्रतीक के रूप में प्रस्तावित किया गया है। एक प्रकार से 'काशी' भगवान शिव की नगरी होने के कारण हिंदी पट्टी को तमिल क्षेत्र से जोड़ने एवं तमिल भाव भूमि से जुड़ने का एक माकुल प्रतीक है। तमिलनाडु में काशी को पारिकल्पित कर काशी नाम के अनेक स्थान बनाए एवं बसाए गए हैं।

काशी एवं तमिल संबंधों को मजबूत करने के लिए भगवान शिव से जुड़ी पूजा एवं आध्यात्मिकता दूसरा केंद्रीय प्रतीक है, जिसे 'काशी-तमिल संगमम' में उद्बोधित किया जा रहा है। संबंधों के इस सेतु को मजबूत करने के लिए 'स्मृतियों' का सहारा भी लिया जा रहा है। गत दिनों प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इस कार्यक्रम के उद्घाटन के अवसर पर तमिलनाडु से आकर काशीवास करने वाले संतों एवं ज्ञानियों को याद किया। उनके बनाए हुए भवन, धर्मशाला एवं स्मृति चिह्नों की उन्होंने विशद चर्चा की। इस अवसर पर उन्होंने आजादी की लड़ाई में तमिल कवियों, साहित्यकारों एवं स्वतंत्रता सेनानियों के योगदान की याद भी दिलाई। 'सुब्रमण्यम भारती' जैसे तमिल साहित्यकार एवं स्वतंत्रता के भाव के वाहक व्यक्तित्व काशी में ही पढ़े-लिखे एवं तमिल संस्कृति के शक्तिवान प्रतीक बनकर उभरे। केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने इस प्रतीक से जुड़ी स्मृतियों को और ज्यादा प्रभावी बनाने के लिए काशी में उनकी 'यादों का घर' यानी संग्रहालय बनाने की घोषणा की है।

इसके अलावा प्रधानमंत्री मोदी ने उत्तर भारतीय भाषा एवं तमिल संस्कृति के द्वंद्व को खत्म करने के लिए भाषा भेद को समाप्त कर भावनात्मक एकता मजबूत करने का भी आग्रह किया, जो भारतीयता का मूल है। देखा जाए तो प्रधानमंत्री ने ऐसा आग्रह कर ठीक ही किया, क्योंकि भारतीय विविधता का संतुलन हमारे विविध क्षेत्रों एवं संस्कृतियों में भावनात्मक एकता तलाश करके ही की जा सकती है।

शंकराचार्य, महात्मा गांधी एवं रवींद्रनाथ टैगोर जैसे भारतीयता के वस्तुकारों के चिंतन में भी ऐसे विचार बीज देखने को मिल सकते हैं। वहीं 'प्रचीनता' को जागृत कर आधुनिकता के द्वंद्वों एवं उनसे उत्पन्न होने वाले टकरावों का शमन करने की योजना भी 'काशी-तमिल संगमम' कार्यक्रम की अवधारणा में साफ झलकती है। साथ ही दोनों क्षेत्रों के आधुनिक ज्ञान, दक्षता एवं पेशों के बीच कैसे लाभकारी संबंध बन सके, ऐसी कोशिश भी इस कार्यक्रम से उभरती दिखाई दे रही है। बनारस के देशज उद्यम एवं तमिलनाडु के देशज उद्यम में संवाद बनाने की दीर्घकालिक योजना पर काम करने की मंशा भी इस कार्यक्रम से उभरती दिख रही है।

इधर कई राजनीतिक विश्लेषक 'काशी-तमिल संगमम' से भाजपा की तमिलनाडु की राजनीति में बढ़ती स्वीकार्यता के एक संकेत के रूप में भी देख रहे हैं। यह होगा भी, क्योंकि प्रत्येक योजना एवं कार्य का एक सहउत्पाद होता है। संभव है इस कार्यक्रम के सहउत्पाद के रूप में भाजपा को इसका राजनीतिक लाभ हो जाए। इस वक्त तमिल राजनीति में जयललिता एवं एम करुणानिधि की अनुपस्थिति से अन्य दलों के प्रसार के लिए भी माहौल मौजूद है। इस आयोजन से एक ऐसी कार्ययोजना उभरती दिखाई दे रही है, जो सीमांत क्षेत्रों जैसे कि उत्तर-पूर्व, जम्मू-कश्मीर एवं अन्य क्षेत्रों के साथ संवाद को गहन किया जा सकता है। धर्म, संस्कृति, आध्यात्मिकता, साहित्य, कला के क्षेत्र हमें भावनात्मक एकता को मजबूत कर अनेक भेदों एवं टकराहटों को मिटाने में मदद कर सकते हैं, लेकिन यह तभी संभव है जब 'काशी-तमिल संगमम' कार्यक्रम एक 'अवधारणा' एवं माडल के रूप में उभर सके, जिसे अन्य क्षेत्रों में भी कार्यान्वित किया जा सके।

(लेखक जीबी पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान, प्रयागराज के निदेशक हैं)