नई दिल्ली, [डॉ. श्रीश पाठक]। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारतीय कूटनीति को लेकर कई बार यथार्थपरक पक्ष दिखलाया है और इससे यह जरूर कहा जा सकता है कि भारत की विदेश नीति में एक मजबूती तो दिखी ही, साथ ही समय-समय पर उसमें जरूरी लोच भी देखने को मिला। कहना होगा कि भारत और अमेरिका के रिश्ते जिस बेहतर तरीके में चल रहे हैं, दुनिया भर के अलग-अलग मंचों पर अमेरिका से इतर राय रख पाना आसान तो नहीं ही है। खासकर अमेरिका जो कि विश्व राजनीति में पहले से ही अपनी तुरंत और तय राय रखने के लिए जाना जाता है और डोनाल्ड ट्रंप का अमेरिका इसमें कुछ और कदम आगे ही चल रहा है।

इसमें यह भी जोड़ने की जरूरत है कि भारत के पड़ोस में एक विश्व शक्ति चीन है, जिससे हालिया डोकलम विवाद के बाद चीजें मुश्किल ही हुई हैं और इसलिए भी हमें अमेरिका का मजबूत साथ चाहिए ही। पर फिर भी विश्व राजनीति में ऐसे मौके तलाशना, जिसमें कोई जमीनी नुकसान भी न हो और जिससे यह भी दिखे कि भारत की विदेश नीति केवल अपने शर्तो से चलती है; तो यकीनन इसे भारत की स्मार्ट कूटनीति कहा जाएगा। क्रिकेट की भाषा में कहें तो एक खराब गेंद को पहले पहचाना जाए और फिर मनमाफिक शॉट उस पर जमाया जाए।

इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस में भारत के उम्मीदवार दलवीर भंडारी के चुनाव में सामने ब्रिटेन के होने पर चुनौती कठिन थी। ब्रिटेन अमेरिका का एक अरसे से सामरिक भागीदार है। किन्तु आम सभा और सुरक्षा सभा में माहौल भांपते हुए धीरे-धीरे भारत के पक्ष में समर्थन जुटाने की भारतीय विदेश अधिकारियों की मेहनत सचमुच तारीफ के काबिल रही। आखिरकार, ब्रिटिश उम्मीदवार ने अपनी दावेदारी ही वापस ले ली। इसके पहले जून में भी संयुक्त राष्ट्र में भारत ने ब्रिटेन के खिलाफ मॉरीशस के उस प्रस्ताव के पक्ष में मत दिया था जिसमें चागोस द्वीपसमूह के डियागो गार्सिआ द्वीप के मालिकाना हक के लिए इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस जाने की बात कही गई थी। डियागो गार्सिआ 1815 से ही फ्रांस के बाद ब्रिटेन के पास रहा, लेकिन पिछले कई दशकों से यह ब्रिटिश-अमेरिकी सामरिक अड्डा बन गया है जिसमें अब भारत की भी भागीदारी है। तथ्य तो यह है कि चीन की पर्ल ऑफ स्टिंग्स नीति से उपजे भय को भारत इसी अमेरिका के साथ मिलकर डियागो गार्सिआ से ही संतुलित करता है।

अब ब्रिटिश मंशा के विरुद्ध वोट करना ऊपरी तौर पर लगता है कि भारत ने अपने हितों के खिलाफ ही वोट कर दिया। पर ऐसा है नहीं। समझना होगा कि ताइवान पर मॉरीशस चीन को इस उम्मीद में समर्थन करता है कि किसी भी महत्वपूर्ण निर्णय में चीन सुरक्षा परिषद् में अपने वीटो से मॉरीशस के हित संभालेगा, ऐसे में मॉरीशस के खिलाफ वोट करना भारत का अपने जिओ-पोलिटिकल (भू-राजनीतिक) हकीकतों से कन्नी काटना होता। फिर, यह प्रस्ताव महज इतना ही कहता था कि यह मामला इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस में ले जाया जाए। वहां इंटरनेशनल लॉ के लिहाज से सुनवाई होगी और हेग के उस कोर्ट के जजों के पैनल में एक जज वहां भारतीय भी होगा। सिर्फ इस स्मार्ट कदम से भारत ने दिखाया कि भारत इंटरनेशनल लॉ की इज्जत करते हुए किसी भी अंतरराष्ट्रीय सहयोग में यकीन रखता है और भारत की विदेश नीति स्वतंत्र है।

भारत की स्मार्ट कूटनीति की झलक अभी एक और मामले में सामने आई। एक चुनावी वादे को पूरा करते हुए ट्रंप ने यरुशलम को इजरायल की राजधानी घोषित कर अमेरिकी दूतावास को वहीं ले जाने की बात की। ट्रंप के इस बेवक्त के कदम के खिलाफ मध्य एशियाई देशों की अगुवाई में संयुक्त राष्ट्र की महासभा में एक प्रस्ताव पेश किया गया, जिसमें द्विपक्षीय विवाद को किसी तीसरे के हस्तक्षेप के बिना सुलझाने की वकालत की गई। यह भी एक इंटरनेशनल लॉ के हिसाब से लिया गया पक्ष है। भारत ने इस प्रस्ताव के पक्ष में वोट करते हुए इस मामले में अपनी फलस्तीन मुद्दे पर चले आ रहे पुराने रुख का हवाला दिया। भारत का यह वोट अमेरिका और इजरायल के खिलाफ माना गया। प्रधानमंत्री मोदी कुछ ही दिन पहले इजरायल की यात्र करके आए हैं, ऐसे में भारत का यह कदम चौंकाऊ लगता है।

खासकर तब, जब मोदी हार्डलाइनर माने जाते हैं और कोई भी विश्लेषक भारतीय राष्ट्रीय हितों के हिसाब से अमेरिका-इजरायल को फलस्तीन के सापेक्ष नहीं रखेगा। पर, भारत का यह एक स्मार्ट कदम था। यह प्रस्ताव एक प्रचलित अंतरराष्ट्रीय विधि की वकालत तो करता ही था, इस संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव से जमीन पर कोई तब्दीली नहीं होनी थी। फिर, संयुक्त राष्ट्र में बहुमत देशों का जो रुख था उसे महसूस करते हुए वोट करना ही जरूरी था। अब, जबकि अमेरिका इतने सारे राष्ट्रों के खिलाफ अपना गुस्सा दिखा तो सकता है, पर जतला नहीं सकता; तो इस कदम का फिलहाल कोई कूटनीतिक नुकसान भी नहीं होने जा रहा।

अभी इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतान्याहू अपनी छ: दिवसीय भारत की यात्र पर रहे जिनका मोदी ने खुले बांहों से स्वागत किया। नेतान्याहू ने भी मोदी के ‘आइ फॉर आइ (इंडिया फॉर इजरायल एंड इजरायल फॉर इंडिया) ’ का जवाब ‘आइ टी स्क्वायर्ड (इंडिया इजरायल टाइज फॉर टुमॉरो)’ से दिया है। अब जबकि इजरायल ने भारत से मुक्त व्यापार समझौते की उम्मीद करके 102 इजरायली कंपनियों के 130 प्रतिनिधियों के साथ अपने प्रधानमंत्री नेतान्याहू को भारतीय सरजमीं पर भेजा है, समझा जाना चाहिए कि इससे अमेरिकी राजनीति में प्रभावी इवेंजिकल्स और यहूदी आबादी भी खुश होगी।

कुल मिलाकर कहा जाए तो चीन का उभार अमेरिका को भारत के साथ सामरिक संबंध बनाए रखने को विवश करता है और यह भारत के लिए भी उतना ही सही है। चूंकि, विश्व-राजनीति में सभी के हित अधिक या कम सभी से जुड़े हैं, सो यह उचित ही है कि भारत एक स्मार्ट कूटनीति से ही अपना राष्ट्रहित संजोते हुए आगे बढ़े।

(लेखक गलगोटियाज यूनिवर्सिटी में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं)

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