ए. सूर्यप्रकाश। कुछ दिन पहले पैगंबर मोहम्मद साहब पर भाजपा प्रवक्ता की टिप्पणियों को लेकर देश-विदेश में काफी हंगामा हुआ। हालांकि, भारत सरकार ने स्वयं को इन टिप्पणियों से अलग कर लिया। इतना ही नहीं भाजपा ने भी इस मामले में उक्त टिप्पणी से जुड़े विवादित नेताओं को पार्टी से बाहर कर दिया। इसके बावजूद कुछ देश भारत को नसीहत देने में लगे थे। इनमें कतर बड़ा आक्रामक था। ऐसे में विरोध करने वाले इस्लामिक देशों और विशेषकर कतर के चरित्र की पड़ताल करना बहुत आवश्यक है। इसमें पहली बात तो यही है कि जब तक समझ और परस्पर सम्मान नहीं होगा तब तक अंतर-धार्मिक संघर्ष से जुड़े मुद्दों का समाधान संभव नहीं। इस्लामिक देश यही मानते हैं कि वे जो मानक दूसरों के मामले में लागू करते हैं, वे उन पर लागू नहीं होंगे, क्योंकि वे इस्लामिक है। ऐसे में वे परस्सर सम्मान और समरसता की उम्मीद नहीं कर सकते। उनका यह एकतरफा रवैया लंबे समय तक कायम रहा, लेकिन अब ईसाई और हिंदू जैसे समुदाय उनका यह खेल समझकर उनसे दोहरा रवैया खत्म करने की मांग कर रहे हैं।

कतर अरब का एक बेहद छोटा सा देश है। उसकी आबादी करीब 29 लाख है, जो जयपुर से भी कम है। उनमें से भी केवल तीन लाख ही कतर के नागरिक हैं। शेष प्रवासी हैं। कतर के संविधान का अनुच्छेद-एक यह कहता है कि वह एक अरब देश है और इस्लाम उसका धर्म, जहां इस्लामिक कानून ही उसके राष्ट्रीय कानूनों का प्रमुख स्रोत हैं। उसका अनुच्छेद-सात विदेश नीति से संबंधित है, जिसके अनुसार उसकी यह नीति अंतराष्ट्रीय शांति एवं सुरक्षा के सिद्धांत पर आधारित है, जो राज्य के आंतरिक मामले में अहस्तक्षेपकारी और शांतिप्रिय राष्ट्रों के साथ सहयोग की भावना के अनुरूप है। यह उल्लेख हमें कतर द्वारा पेंटर मकबूल फिदा हुसैन को नागरिकता प्रदान करने और उनकी मेहमाननवाजी के मामले की ओर ले जाता है। हुसैन हिंदू देवी-देवताओं का अश्लील चित्रण कर भारत से भाग निकले थे, जिन्हें कतर ने शरण दी। एक देश के कानून में भगोड़ा घोषित व्यक्ति को पनाह देने के मामले में आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करने वाली कतर की विदेश नीति का क्या हुआ?

संस्कार भारती से जुड़े रहे डीपी सिन्हा ने वर्षों पहले हुसैन की कुछ सबसे आपत्तिजनक पेंटिंग्स का एक काला चिट्ठा तैयार किया था। 2003 में प्रकाशित ‘एंटी हिंदूज’ पुस्तक के लेखकों प्रफुल्ल गोरडिया और केआर फांडा ने सिन्हा की उस मुहिम को नए सिरे से जीवंत किया। इनमें से तमाम पेंटिंग्स ऐसी हैं, जिनकी अश्लील लज्जाजनक सामग्री के कारण यहां विस्तार से वर्णन करना भी संभव नहीं। फिर भी यह बताना आवश्यक है कि हुसैन की कूची ने मां दुर्गा, सरस्वती, सीता के अलावा भगवान विष्णु, श्री गणोश, हनुमान और श्रीकृष्ण सहित तमाम हिंदू देवी-देवताओं का इतना आपत्तिजनक चित्रण किया, जो एक आम हिंदू की भावनाओं पर आघात करता है।

एक पेंटिंग में उन्होंने महाभारत में गीता के प्रसंग का इस प्रकार चित्रण किया है, जिसमें रथ पर श्रीकृष्ण के स्थान पर जार्ज वाशिंगटन को दिखाकर भगवान विष्णु के अवतार को एक सामान्य पुरुष के रूप में दर्शाया। अपनी कथित कला की आड़ में हुसैन ने हिंदुओं की भावनाओं को जमकर आहत किया और उनके धैर्य की परीक्षा लेते रहे। क्या हुसैन की इस रचनात्मकता में एकरूपता का भाव था? कतई नहीं। गैर-हिंदू विषयों के मामले में हुसैन बड़े सम्मान से पेश आते थे। मोहम्मद साहब की बेटी फातिमा को उन्होंने शांति एवं गरिमा की प्रतिमूर्ति के रूप में प्रस्तुत किया। अपनी मां और बेटी की पेंटिंग बनाते समय भी उन्होंने कोई ‘कलात्मक आजादी’ नहीं ली। मदर टेरेसा की उनकी जिस पेंटिंग को ‘कला का उत्कृष्ट नमूना’ करार दिया गया, उसमें भी उन्होंने मदर टेरेसा की करुणा को ही उकेरा।

वापस कतर के मुद्दे पर लौटते हैं। भारतीयों के पास उससे यह प्रश्न पूछने का पूरा अधिकार है कि, ‘आप किसी ऐसे व्यक्ति की पूरे गर्मजोशी से कैसे मेजबानी कर सकते हैं, जिसने एक अरब हिंदुओं की भावनाओं को चोट पहुंचाई हो? हुसैन ने जिस धार्मिक समूह को आहत किया, जरा उसके आकार पर भी विचार कर लीजिए। यह कतर की आबादी से तीन सौ गुना बड़ा है। भारतीयों की बहुसंख्यक आबादी के मामले में ऐसा दुर्भाग्यपूर्ण और बिना किसी संदेह के विद्वेषपूर्ण निर्णय लेने के बाद क्या आप अधिकार रखते हैं कि कुछ दिनों पहले भारतीय टेलीविजन पर घटे एक वाकये को लेकर इस प्रकार हंगामा करें?’

कतर की ओर कूच करने वाले हुसैन ने आरोप लगाया था कि हिंदू उनके ‘खून के प्यासे’ हो गए हैं। यह बिल्कुल बेतुका आरोप था, क्योंकि लोकतांत्रिक हिंदुओं ने उनसे अदालती लड़ाई के लिए ही अपना पक्ष तैयार किया था। यदि उन्होंने फातिमा या किसी अन्य इस्लामिक प्रतीक का हिंदू देवी-देवताओं की भांति चित्रण किया होता तो दुनिया भर में तमाम मुस्लिम उनका सिर कलम करने की मुहिम छेड़ देते। इसके अतिरिक्त हमें कतर जैसे इस्लामिक देश और भारत सरीखे लोकतांत्रिक राष्ट्र के बीच अंतर को भी समझना चाहिए। भारतीय संविधान जहां प्रत्येक धार्मिक अल्पसंख्यक के अधिकारों की रक्षा के लिए कड़े प्रविधान करता है, वहीं कतर स्वघोषित इस्लामी मुल्क है। न तो वह ऐसा करता है और न ही अन्य इस्लामी देश। एक ओर कतर एमएफ हुसैन जैसे ईशनिंदक को नागरिकता प्रदान करता है, जबकि दूसरी ओर भारत में ऐसे लोगों के साथ कड़ाई से निपटा जाता है।

जैसे कि पैगंबर साहब को लेकर टिप्पणी करने वालों पर मुकदमा दर्ज कर आगे की कार्रवाई जारी है। इसलिए कतर के लोगों से यही कहा जा सकता है कि सही कदम उठाने में भी कभी देर नहीं होती। इंटरनेट मीडिया पर एक नजर डालने से आपको पता चल जाएगा कि हुसैन को लेकर भारतीय कितने कुपित थे। ऐसे में कतर को एमएफ हुसैन के मामले में माफी मांगनी चाहिए और भारत-कतर संबंधों को अतीत के दौर की उसी दशा में वापस लाना चाहिए, जहां प्रत्येक नागरिक में परस्पर सम्मान भाव, आपसी समझ और सहयोग की भावना थी। कतर से यह कहा जाना चाहिए कि वह भारत विरोधी तत्वों के बहकावे और दुष्प्रचार में न पड़े। उसे एक अरब से अधिक हिंदुओं में पुनर्जागरण के भाव को महसूस करने और द्विपक्षीय संबंधों को बेहतर बनाने की दिशा में पहल करने की आवश्यकता है। वास्तव में जो कुछ कतर से अपेक्षित है, वही अन्य इस्लामी देशों से भी।

(लेखक प्रसार भारती के पूर्व अध्यक्ष एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)