भरत झुनझुनवाला। कोविड संकट के दौरान आर्थिक गतिविधियों के प्रभावित होने के बाद अब महंगाई की मार पड़ रही है। यह तब है जब आम आदमी की क्रय शक्ति घटी है और बाजार में मांग कम हुई है। अर्थशास्त्र के शास्त्रीय सिद्धांत के अनुसार मांग घटने से तो महंगाई कम होनी चाहिए थी जैसे कि मंडी में खरीदार कम हों तो आलू के दाम गिरने लगते हैं, लेकिन इसका विपरीत हो रहा है। मांग घटने और महंगाई बढ़ने पर है। इसका एक प्रमुख कारण कोविड के समय सरकार का बढ़ा हुआ खर्च दिखता है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष यानी आइएमएफ की मुख्य अर्थशास्त्री गीता गोपीनाथ ने कहा है कि सरकारों द्वारा ऋण लेने से महंगाई बढ़ती है।

होता यूं है कि सरकार बाजार से ऋण उठाती है जिससे ऋण बाजार में मांग बढ़ती है। इससे ब्याज दर बढ़ती है। ब्याज दर बढ़ने से उद्यम प्रभावित होते हैं, क्योंकि उनके लिए कर्ज अदायगी महंगी हो जाती है। ब्याज दरों को बढ़ने से रोकने के लिए रिजर्व बैंक तरलता बढ़ाता है ताकि बैंकों के पास पर्याप्त नकदी सुनिश्चित हो और ऋण बाजार स्थिर रहे। जैसे यदि पीछे से पानी आ आ रहा हो तो तालाब के पानी को पंप से निकालने के बावजूद उसमें जलस्तर पूर्ववत बना रहता है। इसी प्रकार कोविड के समय सरकार ऋण उठाती गई और रिजर्व बैंक तरलता बढ़ाता रहा। इससे ऋण बाजार तो स्थिर रहा, लेकिन तरलता बढ़ने से बाजार में मुद्रा भी बढ़ गई। बिल्कुल वैसे जैसे तालाब के पानी को पंप से निकालकर बाहर कर दिया जाए तो कुल पानी की मात्र बढ़ जाती है। वहीं जनता को तालाब का जलस्तर पूर्ववत दिखता रहा, लेकिन उसे यह नहीं समझ आया कि पानी की मात्रा बढ़ रही है।

कोविड काल में टैक्स वसूली कम हो रही थी, परंतु सरकार ने अपने खर्चो को बढ़ाने के लिए उत्तरोत्तर अधिक ऋण लिए। उन्हें पोषित करने के लिए रिजर्व बैंक ने मुद्रा की तरलता बढ़ाई, जिससे बाजार में नोटों की मात्र बढ़ी। इसी दौरान कतिपय कारणों से उत्पादन में कमी आती गई। फिर ऐसी स्थिति बनी कि नोट अधिक हो गए और सामान कम तो स्वाभाविक है कि इससे महंगाई बढ़ी। नि:संदेह संकट के समय सरकार द्वारा ऋण लेकर खर्च बढ़ाने को श्रेयस्कर माना जाता है, लेकिन यह भी तय है कि आने वाले वक्त में उसका असर पड़ेगा। जैसे कोई व्यक्ति कर्ज लेकर इलाज से स्वस्थ तो हो जाता है, लेकिन इस कारण उस पर आर्थिक बोझ भी बढ़ता है। कमजोर हुई अर्थव्यवस्था ने भी इसी प्रकार खर्च बढ़ाकर जो आर्थिक बोझ बढ़ाया है, उसने महंगाई को रफ्तार दी है।

महंगाई बढ़ने का दूसरा कारण पर्यावरण या जलवायु परिवर्तन से जुड़ा है। कुछ दिन पहले बेमौसम बरसात के कारण कई उत्पादक क्षेत्रों में फसल प्रभावित हुई। इससे टमाटर की फसल को क्षति पहुंची। आलू उत्पादन को भी नुकसान हुआ। इससे इन उत्पादों की आपूर्ति तंग हुई, जिसने दाम बढ़ा दिए। महंगाई का तीसरा कारण आम आदमी का सशंकित होना लगता है। कोविड के नए प्रतिरूप ओमिक्रोन वैरिएंट और अन्य संकटों से आम आदमी सशंकित है। लोग खर्च नहीं करना चाहते हैं। वे अपनी बचत को सुरक्षित रखना चाहते हैं, ताकि वह संकट के समय काम आए। इससे भी मांग घटी है।

चूंकि कम मात्र में माल उत्पादन में अधिक खर्च आता है तो यह भी दाम बढ़ने का एक कारण है। महंगाई बढ़ने का चौथा कारण कोविड प्रोटोकाल है, जिसके चलते कई उत्पादों एवं सेवाओं की लागत बढ़ गई है। ये चारों कारक केवल भारत पर ही लागू नहीं, बल्कि पूरे विश्व पर हावी हैं, इसीलिए दुनिया भर में इन दिनों महंगाई बढ़ रही है। कई देशों में आयातित माल के दाम में वृद्धि हुई है। कुल मिलाकर कोविड काल में सरकारी अनुत्पादक खर्च, जलवायु परिवर्तन का प्रभाव, लोगों की शंका और कोविड प्रोटोकाल जैसे अल्पकालिक पहलू ही महंगाई बढ़ने के मूल में हैं।

इस स्थिति में रिजर्व बैंक ने न्यून ब्याज दरों की नीति अपनाई है। कथित रूप से यह इसलिए किया गया है कि उपभोक्ता और निवेशक के लिए ऋण लेना आसान हो जाएगा। वे ऋण लेकर खपत और उत्पादन बढ़ाएंगे जिससे आर्थिक विकास का सुचक्र पुन: स्थापित हो जाएगा, लेकिन उपभोक्ता आशंकित हैं और खपत के लिए ऋण लेने में रुचि नहीं ले रहे। इसलिए उद्यमी भी ऋण लेकर उद्यम स्थापित करने को तैयार नहीं हैं। इस प्रकार न्यून ब्याज दर से आर्थिक विकास का सुचक्र स्थापित होने के आसार कम ही दिखते हैं। हां, सरकार के लिए पूर्व की तरह उत्तरोत्तर ऋण लेकर अपने खर्चो को पोषित करने की हानिप्रद नीति काफी समय तक चलती रहेगी जो आगे चलकर और अधिक कष्ट देगी। अत: महंगाई नियंत्रण के लिए रिजर्व बैंक से इतर उपायों पर विचार करना चाहिए।

कोविड प्रोटोकाल के कारण मूल्य वृद्धि को तो हमें सहन करना ही होगा। उपभोक्ता का भय तभी दूर होगा जब जनता देखेगी कि सरकारी खर्चो में कटौती की जा रही है और आने वाले समय में महंगाई घटेगी। इसके उलट आज सरकार अपनी खपत को निरंतर बढ़ा रही है। इसी कारण देशवासियों को महंगाई के नियंत्रण में आने को लेकर भरोसा नहीं है। इस परिस्थति में सरकार को सर्वप्रथम अपनी खपत में कटौती करनी होगी। खर्च में कटौती से नोट के तालाब से पानी निकलना कम हो जाएगा। कुल पानी की मात्र कम हो जाएगी। पानी का स्तर स्वत: टिकने लगेगा। महंगाई कम हो जाएगी। वास्तव में अर्थव्यवस्था की कमजोर स्थिति को छिपाने के बजाय इसे स्वीकार कर जनता का सहयोग लेना होगा।

दूसरे, सरकार को पर्यावरण पर ध्यान देना होगा। हमारे नियंत्रण में कई ऐसे कार्य हैं, जिनसे हम पर्यावरण संरक्षण में सहयोग कर सकते हैं। जैसे शहरों के कचरे का सही निस्तारण करना, निजी कारों के उपयोग को कम करना ताकि ईंधन का उपयोग कम हो। नदियों को अविरल बहने देना, जिससे मछलियां पानी को साफ रख सकें। थर्मल पावर प्लांट से जहरीली हवाओं के निकलने पर नियंत्रण करना आदि-इत्यादि। जब सरकार और सामुदायिक स्तर पर पर्यावरण की सुरक्षा के लिए कदम उठाए जाएंगे तब फसलों पर पड़ने वाली मौसमी मार को कम किया जा सकता है। इससे उनकी बेहतर आपूर्ति संभव होगी, जिससे खाद्य पदार्थो की कीमतें काबू में रखी जा सकती हैं। हमें आयातित माल और पेट्रोल-डीजल पर शोर मचाने के स्थान पर सरकारी खर्च और पर्यावरण पर ध्यान देना होगा तभी महंगाई पर नियंत्रण हो सकेगा।

(लेखक आर्थिक मामलों के जानकार हैं)