ए. सूर्यप्रकाश। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विरोधी अक्सर यह आरोप लगाते हैं कि जबसे उन्होंने सत्ता संभाली है, तबसे देश में एक तरह का अघोषित आपातकाल लागू है। जो लोग इंदिरा गांधी द्वारा 25 जून, 1975 से देश पर थोपे गए 21 महीनों के आपातकाल की मौजूदा दौर से तुलना कर रहे हैं, वे असल में उस आपातकाल के शिकार हुए लोगों का अपमान करते हैं। यह उन तमाम लोगों के बलिदान का भी अनादर है, जिन्होंने संवैधानिक मूल्यों एवं लोकतांत्रिक व्यवस्था की पुनस्र्थापना के लिए उसका कड़ा विरोध किया।

कई लोगों ने तो उसे स्वतंत्रता के दूसरे संग्राम की संज्ञा तक दी, क्योंकि अगर इंदिरा की मनमर्जी चलती तो भारत में लोकतांत्रिक व्यवस्था हमेशा के लिए ध्वस्त हो गई होती। वैसे तो उस समय इंदिरा की तानाशाही से जुड़ी तमाम मिसालें हैं, लेकिन सुप्रीम कोर्ट का एक वाकया यह बताने के लिए पर्याप्त है कि उस दौर में भारत न केवल अधिनायकवादी सरकार, बल्कि एक फासीवादी शासन के साये में था। यह वाकया सुप्रीम कोर्ट के समक्ष 1976 में तब आया, जब आपातकाल अपने पूरे चरम पर था। एडीएम जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ला वाले इस मामले पर सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय पीठ ने सुनवाई की। पीठ में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एएन रे के अलावा जस्टिस एचआर खन्ना, एमएम बेग, वाईबी चंद्रचूड़ और पीएन भगवती शामिल थे।

आपातकाल की मंजूरी के बाद राष्ट्रपति ने 27 जून को कुछ मौलिक अधिकारों को भी निलंबित करने का निर्देश जारी किया था। इसमें अनुच्छेद 14 के अंतर्गत प्राप्त विधि के समक्ष समता और अनुच्छेद 21 के अंतर्गत प्राप्त प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण जैसे अधिकार शामिल थे। जिन लोगों को मेंटेनेंस ऑफ इंटरनल सिक्योरिटी एक्ट (मीसा) के तहत गिरफ्तार किया गया था, उन्होंने 27 जून के उक्त आदेश को संविधान पर प्रहार बताते हुए कहा था कि उसे वापस लिया जाए और अदालत को बंदी प्रत्यक्षीकरण से जुड़ी उनकी रिट याचिका पर सुनवाई करनी चाहिए। सुनवाई के दौरान तत्कालीन अटॉर्नी जनरल नीरेन डे दलील दी थी कि जब तक आपातकाल लागू है, तब तक कोई भी नागरिक प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता के अधिकार को लेकर अदालती दरवाजा नहीं खटखटा सकता। लोकतंत्र में आस्था रखने वाले किसी भी व्यक्ति को यह जानकर झटका लगेगा कि जस्टिस खन्ना को छोड़कर अन्य न्यायाधीशों का रवैया सही नहीं रहा।

जस्टिस खन्ना ने अपनी आत्मकथा ‘नाइदर रोजेज नॉर थॉर्न्‍स’ में अदालती माहौल को इन शब्दों में याद किया कि उन्हें महसूस हुआ कि उनके कुछ सहकर्मी, जो मानवाधिकारों और निजी स्वतंत्रता को लेकर खासे मुखर थे, एकदम शांत बैठे रहे और उनकी खामोशी भी कुछ अनिष्टकारी लग रही थी। उनकी खामोशी संकेत कर रही थी कि इस मामले में पीठ का बहुमत किस दिशा में जाने वाला था। हालांकि खन्ना ने सरकारी प्रविधानों का प्रतिरोध किया। खन्ना ने नीरेन डे से सवाल किया कि अगर कोई पुलिस अधिकारी निजी दुश्मनी के कारण किसी की हत्या कर दे तो क्या होगा? इस पर डे अपनी दलील पर टिके रहे और कहा कि जब तक आपातकाल लागू है, तब तक ऐसे मामलों में कोई न्यायिक उपचार उपलब्ध नहीं होगा। डे ने आगे कहा, ‘इससे भले ही आपकी अंतरात्मा को चोट पहुंचे या मेरी, लेकिन मैं अपनी दलील पर कायम हूं कि इस आधार पर अदालत में कोई कार्रवाई आगे नहीं बढ़ाई जा सकती।’ इसने भले ही अटॉर्नी जनरल की अंतरात्मा पर चोट की हो, लेकिन पीठ के अधिकांश न्यायाधीशों की अंतरात्मा जरा भी विचलित नहीं हुई। मुख्य न्यायाधीश रे, जस्टिस बेग, चंद्रचूड़ और भगवती ने प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता के अधिकार को निलंबित करने के सरकारी फैसले पर मुहर लगा दी। मानों इतना ही काफी नहीं था। जस्टिस बेग ने तो यह कहकर तमाम बंदियों के जख्मों पर नमक छिड़क दिया कि सरकार उनके साथ मातृवत व्यवहार करते हुए उनका पूरा ख्याल रख रही है।

तो कुछ इस तरह होता है असल आपातकाल। नागरिकों ने प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता का अपना मौलिक अधिकार गंवा दिया और दुर्भाग्यपूर्ण तरीके से शीर्ष अदालत ने उस फैसले पर अपनी मुहर लगाई। इससे स्पष्ट है कि आपातकाल में एक फासीवादी शासन के सभी दुगरुण मौजूद थे। ऐसे में इन दिनों जो लोग प्रधानमंत्री से लेकर उनके कैबिनेट सहयोगियों, वरिष्ठ नेताओं और यहां तक कि सुप्रीम और हाईकोर्ट के न्यायाधीशों के खिलाफ अनर्गल प्रलाप करते रहते हैं, उनका मौजूदा दौर को अघोषित आपातकाल कहना हास्यास्पद ही अधिक लगता है। इंटरनेट मीडिया पर तो ऐसे प्रलाप की बाढ़ सी आई हुई है, जहां शिष्टता और मर्यादा का घोर अभाव है।

वापस बंदी प्रत्यक्षीकरण मामले की बात करें तो उस मामले में लोकतंत्र की खातिर जस्टिस खन्ना ने जो बलिदान दिया, वह कभी नहीं भुलाया जा सकेगा। इसका खामियाजा उन्हें इस रूप में भुगतना पड़ा कि वरिष्ठ होने के बावजूद उन्हें मुख्य न्यायाधीश नहीं बनाया गया। उनके स्थान पर जस्टिस बेग की ताजपोशी हुई। इतना ही नहीं, पीठ के दो अन्य जजों जस्टिस चंद्रचूड़ और भगवती को भी बाद में शीर्ष न्यायिक पद से उपकृत किया गया।

जस्टिस खन्ना के अनुसार अपने ‘साहसिक’ फैसले के लिए उन्हें ढेर सारे बधाई संदेश मिले। विडंबना यही थी कि उनमें से एक बधाई स्वयं नीरेन डे की ओर से मिली थी। भारतीय संविधान के विद्वान और देश के संवैधानिक इतिहास पर प्रख्यात पुस्तक लिखने वाले ग्रेनविल ऑस्टिन ने नीरेन डे की बेईमानी को समझाया। उन्होंने बताया कि अटॉर्नी जनरल को डर सता रहा था कि अगर आपातकाल और संवैधानिक संशोधनों को लेकर उनके मन में संदेह की भनक इंदिरा गांधी या उनके दरबारियों को लग जाती तो उन्हें और उनकी विदेशी मूल की पत्नी को प्रताड़ित किया जाता। डे के मित्रों के अनुसार उस दौरान वह बहुत तनाव में रहते थे और खूब धूम्रपान किया करते थे। इस लंबी कहानी का लब्बोलुआब यही है कि वही असल आपातकाल था, जिसे देश के लोगों ने ङोला और उसके खिलाफ संघर्ष किया। अन्य अधिकारों की तो छोड़ ही दीजिए, उसमें जीवन का अधिकार तक कुतर दिया गया था। इसीलिए अगर हम अपनी संवैधानिक एवं लोकतांत्रिक बेहतरी की फिक्र करते हैं तो उस आपातकाल के प्रभाव एवं परिणामों का असर कम करने के किसी भी प्रयास का विरोध करें।

(लेखक लोकतांत्रिक विषयों के विशेषज्ञ एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)