[ डॉ. भरत झुनझुनवाला ]: चीन ने बुलेट ट्रेन का सबसे बड़ा जाल बिछाया है। वह दूसरे देशों से राफेल जैसे लड़ाकू विमान नहीं खरीदता, बल्कि उन्हें खुद ही बनाता है। सूर्य के ताप से भी उच्च ताप उसने विकसित कर लिया है। पूरे अफ्रीका, एशिया और यूरोप को जोड़ने के लिए बेल्ट रोड बना रहा है। चीन ने ऐसी फैक्ट्रियों की संकल्पना भी साकार की है जहां पूरा काम रोबोट द्वारा किया जाता है। वह हर मोर्चे पर भारत से आगे निकल गया है। जबकि अतीत के पन्ने पलटें तो अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष यानी आइएमएफ के अनुसार 1980 में भारत की प्रति व्यक्ति आय 265 डॉलर थी जो 2018 में बढ़कर 2269 डॉलर प्रति व्यक्ति हो गई। इसके उलट 1980 में चीन की प्रति व्यक्ति आय 313 डॉलर प्रति व्यक्ति थी जो 2018 में बढ़कर 9935 डॉलर प्रति व्यक्ति हो गई। यानी 1980 में चीन की प्रति व्यक्ति आय हमसे मात्र 1.2 गुना थी जो 2018 में बढ़कर 4.4 गुना हो गई। हम उससे बहुत पीछे रह गए हैं।

भारत और चीन के आर्थिक विकास की रणनीति में मौलिक अंतर रहा है। चीन ने 1980 के बाद भारी मात्रा में विदेशी निवेश आकर्षित किया। देश में आधुनिक तकनीक की फैक्ट्रियां स्थापित कीं और भारी मात्रा में माल का उत्पादन करके निर्यात किया। इस प्रक्रिया में चीन में भारी संख्या में रोजगार के अवसर सृजित हुए और चीनियों की आमदनी भी बढ़ी। इसकी तुलना में भारत में 1992 के बाद ही विदेशी निवेश के लिए दरवाजे खुले। तब भी आधे-अधूरे मन से ही उसे स्वीकार किया गया। ध्यान रहे कि उस समय भारतीय उद्यमियों ने ‘बॉम्बे क्लब’ नाम का गुट बनाया था जिसने विदेशी निवेश का विरोध किया था। हमारी रणनीति यह रही कि हम अपनी सरहदों पर दीवार बनाएं और घरेलू उत्पादों को बढ़ावा दें जिसे ‘आयात प्रतिस्थापन’ कहा जाता है। मेरे जैसे अर्थशास्त्री इस विचार के हिमायती रहे।

विदेशी निवेश

अक्सर यह कहा जाता है कि विदेशी निवेश को समय से स्वीकार न करने के कारण हम पीछे रह गए। मैं इस दलील से सहमत नहीं हूं। यह सही है कि हमने खुले व्यापार को देर से अपनाया, लेकिन गड़बड़ी यह हुई कि हमने विदेशी निवेश को नकारने के साथ-साथ घरेलू प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा नहीं दिया। यदि हम विदेशी निवेश की मदद से मारुति कार का उत्पादन नहीं करते तो हम फिएट और अंबेसडर कार को सुधार सकते थे। जरूरत थी कि घरेलू कार उत्पादकों के बीच प्रतिस्पर्धा को प्रोत्साहन दिया जाता, लेकिन भारतीय तंत्र लाइसेंस-परमिट राज से त्रस्त था।

घरेलू प्रतिस्पर्धा

यदि हम घरेलू प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देते तो यह दुष्परिणाम सामने नहीं आता और हम बहुत आगे निकल जाते। जिस प्रकार आधी दवा खाने से रोग बढ़ जाता है, उसी प्रकार आधे स्वदेशी से हम पिछड़ गए। एक अंतर यह भी है कि चीन ने वस्तुओं के उत्पादन यानी विनिर्माण के आधार पर आर्थिक विकास हासिल किया है जबकि भारत ने सेवा क्षेत्र जैसे कंप्यूटर सॉफ्टवेयर और कॉल सेंटर जैसे सेवा क्षेत्र के दम पर। सेवा क्षेत्र में हमारी जो महारत है आने वाले समय में उसके अच्छे परिणाम आएंगे। विनिर्माण में हमारी असफलता ने ही हमें जबरन सेवा क्षेत्र में धकेल कर सही दिशा दी है।

स्वास्थ्य एवं शिक्षा

दोनों देशों में दूसरा अंतर स्वास्थ्य एवं शिक्षा से जुड़ा है। संयुक्त राष्ट्र मानव विकास सूचकांक में भारत जहां 131वें स्थान पर है वहीं चीन इसमें 89वें पायदान पर है। इसी प्रकार इनोवेशन यानी नवाचारों से संबंधित सूचकांक में भारत की रैंक 66 है जबकि चीन इसमें 25वें स्थान पर है। ये अंतर वास्तव में गंभीर हैं। इन अंतर के पीछे भी मूल समस्या हमारी नौकरशाही है। हमने शिक्षा और स्वास्थ्य में सरकारी विश्वविद्यालयों, विद्यालयों और अस्पतालों को बढ़ावा दिया। इनके अध्यापकों और डॉक्टरों की कार्यक्षमताओं पर अक्सर सवाल उठते रहते हैं। सरकारी नौकरी इनके लिए अपने जाल में मछली पकड़ने मात्र का साधन रह गई है। यही कारण है कि पर्याप्त धन खर्च करने के बावजूद जनता के स्वास्थ्य और शिक्षा की हालत कमजोर है। अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन के अनुसार भारत के पिछड़े रहने का एक प्रमुख कारण यह भी है।

वेतन में भारी वृद्धि

1990 के दशक में पांचवें वेतन आयोग ने सरकारी कर्मियों के वेतन में भारी वृद्धि की। इसके बाद सरकार के राजस्व से निवेश नहीं हो सका। इसीलिए अपने देश में बुलेट ट्रेन पहले नहीं आई। चीन में भी नौकरशाह भ्रष्ट हैं, परंतु वे उद्योग लगाने में घूस खाते हैं जबकि हमारे नौकरशाह उद्योग न लगने देने में घूस खाते हैं जैसे किसी कंपनी विशेष को किसी खास उत्पाद बनाने का लाइसेंस न देकर।

चुनाव में प्रलोभन

तीसरा बिंदु शासन का है। चीन की शासन प्रणाली कम्युनिस्ट पार्टी में केंद्रित है जबकि भारत में लोकतांत्रिक व्यवस्था कायम है। लोकतंत्र के कारण भारत सरकार के लिए यह जरूरी हो जाता है कि वह जनता को प्रत्येक पांच वर्ष पर पर्याप्त प्रलोभन दे जिससे वह सत्तारूढ़ रह सके। मेरा मानना है कि यह मामूली बात है। जैसे 2009 में कांग्र्रेस सरकार ने मनरेगा और किसानों की कर्ज माफी को लागू कर पुन: सत्ता हासिल की, लेकिन सरकार के कुल खर्चों में इन कार्यों का हिस्सा मात्र एक प्रतिशत के लगभग है। लोकतंत्र को हम दोषी इसलिए भी नही कह सकते हैं, क्योंकि अमेरिका, सिंगापुर और यूरोप के कई देशों में लोकतंत्र के बावजूद बहुत ही शानदार आर्थिक परिणाम सामने आए हैं।

मंडल और कमंडल

हमने गलती यह की है कि लोकतंत्र को मंडल और कमंडल जैसे मुद्दों में घुमा दिया है। राजनीतिक दल जनता की कमजोरियों की आग में घी डालकर उनके वोटों का दोहन कर रहे हैं। राजा की जिम्मेदारी बनती है कि जनता को दिशा दे। कहावत है ‘यथा राजा तथा प्रजा’, कहावत यह नहीं है कि यथा प्रजा तथा राजा। लोकतंत्र की हमारी व्यवस्था मूल रूप से ठीक है। बस हमने इसे गलत दिशा दे दी है जैसे चाकू का उपयोग मरीज का ऑपरेशन करने के लिए किया जा सकता है और किसी को अपंग बनाने के लिए भी। हमने लोकतंत्र का उपयोग देश को अपंग बनाने के लिए किया है।

नौकरशाही

चीन की तुलना में हमारे पिछड़े रहने का मूल कारण यह है कि हमने शोषण करने वाली नौकरशाही को पोषित किया है। देश की आय का भक्षण अकुशल सरकारी कर्मचारियों को पोषित करने में हुआ न कि बुलेट ट्रेन बनाने में। अपने हितों की पूर्ति के लिए नौकरशाहों ने घरेलू स्तर पर प्रतिस्पर्धा नहीं होने दी और हमारे उद्योग आगे नहीं बढ़ सके। इन्हीं के द्वारा शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था पर कब्जा होने से देश मानव विकास सूचकांक में पिछड़ा रह गया।

राजनीतिक पार्टियों ने अयोध्या और मंडल कमीशन जैसे मुद्दों को उठा कर देश की ऊर्जा को आपसी कलह में लगा दिया। आने वाले चुनाव के बाद हमारे सामने चुनौती है कि हम सेवा क्षेत्र की अपनी सही रणनीति को बनाए रखें और विनिर्माण के आकर्षण के फेर में न पड़ें। शिक्षा और स्वास्थ्य पर नौकरशाही के कब्जे से देश को मुक्त कराएं। नौकरशाही के वेतन को वर्तमान स्तर पर अगले 20 वर्षों के लिए फ्रीज कर दें। भ्रष्टाचार को जमीनी स्तर पर रोकने के कदम उठाएं तभी हम तेजी से आगे बढ़ सकते हैं।

( लेखक वरिष्ठ अर्थशास्त्री एवं आइआइएम बेंगलूर के पूर्व प्रोफेसर हैं )