मुकुल कानिटकर। New National Education Policy 2020 नई शिक्षा नीति में कई बुनियादी परिवर्तनों का समावेश किया गया है। केंद्र सरकार ने शोध पर विशेष जोर दिया है। एक राष्ट्रीय शोध संस्थान की स्थापना की बात कही गई है। लगभग 20,000 करोड़ राशि देश की मौलिक समस्याओं पर शोध के लिए निश्चित की गई है। भारत का अकादमिक देशज शोध तंत्र अत्यंत कमजोर है। हर भारतीय समस्या का हल विदेशी मॉडल पर तय किया जाता रहा है, जो अब नहीं होगा।

यह शिक्षा नीति लोकतांत्रिक और मौलिक है। इसके पहले इतने प्रयास नहीं हुए थे। लगभग ढाई लाख गांवों में 33 करोड़ लोगों के साथ चर्चा की गई। सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं की अलग-अलग समितियों ने अपनी बात रखी। मीडिया में खूब चर्चा हुई। समाज के हर वर्ग के विचारों को शामिल किया गया। यदि यह कहा जाए कि यह देश का परिदृश्य बदलने वाली नीति है तो इसमें अतिशयोक्ति नहीं होगी। दरअसल अंग्रेजी शासन तंत्र ने भारत से भारतीय सोच की शिक्षा व्यवस्था को समाप्त कर दिया। उसके स्थान पर केंद्रीकृत और अभिजात वर्ग की शिक्षा प्रणाली को लागू कर दिया। उसकी सोच भारत में एक ऐसे वर्ग को तैयार करना था, जिससे ब्रिटेन का उपनिवेशवाद निरंतर उनकी सहायता से चलता रहे। साथ ही भारतीय ज्ञान और विज्ञान पर सदा के लिए ताला जड़ दिया जाए।

दुर्भाग्य से हुआ भी ऐसा ही। जब देश स्वतंत्र हुआ, लोगों में एक आशा जगी कि संभवत: भारतीय ज्ञान परंपरा से संबंधित शिक्षा नीति का निर्माण हो। किंतु आजाद देश में अंग्रेजी व्यवस्था मजबूती के साथ चलती रही। शिक्षा का व्यवसायीकरण होता रहा, शिक्षा ने देश को भारत केंद्रित और पश्चिम भक्त, ऐसे दो अलग-अलग खंडों में बांट दिया। परीक्षा केंद्रित व्यवस्था पर खूब बल दिया गया। इतने वर्षो में लोगों का मोहभंग हो चुका था। उन्हें क्रांतिकारी परिवर्तन की आस थी, जिसे सरकार ने नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के रूप में पूरा किया है।

वर्ष 1966 में डीएस कोठारी की अध्यक्षता में एक शिक्षा समिति की स्थापना हुई। प्रो. कोठारी एक लब्ध प्रतिष्ठित वैज्ञानिक थे। जब उन्होंने शिक्षा नीति का प्रारूप तैयार किया, तब उसकी प्रस्तावना में यह उल्लेख किया, स्वतंत्रता के उपरांत भी भारत की शिक्षा व्यवस्था का गुरुत्व मध्य यूरोप और अमेरिका ही है, जरूरत है उसे भारत खींचकर लाने की। किंतु देश का दुर्भाग्य था कि उस समय की सरकार ने इन दलीलों को अपनी नीति में कोई महत्व नहीं दिया और न ही कोठारी समिति की संस्तुतियों को लागू करने के प्रयास किए गए। इसके बाद 1986 में प्रो. यशपाल की अध्यक्षता में दूसरी समिति बनाई गई। लेकिन इस समिति के पीछे सैम पित्रोदा नामक एक व्यक्ति की कारगुजारियां ज्यादा महत्व रखती थी। इस शिक्षा नीति ने पूरी तरह से व्यवस्था को रोजगार के साधन तक सीमित कर दिया।

अंग्रेजी व्यवस्था से लेकर कोठारी समिति तक शिक्षा को महज रोजगार के लिए सीमित नहीं रखा गया, पर 1986 की शिक्षा नीति में इसे रोजगार तक सीमित कर दिया। प्रश्न उठता है कि क्या राष्ट्रीय शिक्षा नीति में वह सबकुछ है, जिससे मूलभूत संरचना में क्रांतिकारी फेरबदल हो सके। हां, ऐसा हो सकता है, यदि राजनीतिक और प्रशासनिक तंत्र इसे ठीक से लागू करे। 1986 की नीति ने शिक्षा को व्यावसायिक बना दिया। उनके अनुसार शिक्षा तंत्र चलने लगा। लेकिन अब ऐसा नहीं होगा। इस व्यवस्था में संस्कृति और सामाजिक व्यवस्था को केंद्र में रखा गया है। शिक्षा व्यवस्था में भाषा का महत्व बहुत अधिक है। अभी तक भारतीय भाषा को किनारे रखा गया था। इसलिए देशज ज्ञान की परंपरा कभी पनप नहीं पाई। किंतु इस शिक्षा व्यवस्था में भारतीय भाषा को वरीयता दी गई है। यह नीति सभी लोगों को जोड़कर राष्ट्र को समर्थ बनाने का एक सार्थक प्रयास है।

[अखिल भारतीय संगठन मंत्री, भारतीय शिक्षण मंडल]