नई दिल्ली [ संजय गुप्त ]। वित्त मंत्री अरुण जेटली की ओर से पेश आम बजट को संसद की मंजूरी मिलने के साथ ही मोदी सरकार अपने कार्यकाल के चार वर्ष पूरे करने के करीब पहुंच जाएगी। चूंकि इसी के साथ वह चुनावी वर्ष में प्रवेश कर लेगी इसलिए बजट के बारे में एक धारणा यह भी बनी है कि इसे आम चुनाव को ध्यान में रखकर तैयार किया गया है, लेकिन यह केवल रेवड़ियां बांटने वाला बजट नहीं हैै। इसी के साथ यह भी सही है कि यह विकास की गति को तेज करने वाला और देश की जनता को जो सपने दिखाए जा रहे थे उन्हें पूरा करने वाला भी बजट नहीं है।

वित्तमंत्री ने बजट में राजकोषीय घाटे के प्रति सतर्कता नहीं बरती

वित्तमंत्री ने बजट में राजकोषीय घाटे के प्रति अतिरिक्त सतर्कता शायद इसलिए बरती, क्योंकि विश्व की तमाम संस्थाएं निवेश के लिहाज से किसी भी देश की रेटिंग तय करते वक्त राजकोषीय घाटे की स्थिति देखती हैैं। चूंकि राजकोषीय घाटे को देखते हुए जोखिम लेने से बचा गया इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि इस बजट के जरिये देश को विकसित राष्ट्र बनाने का सपना पूरा होगा। तेज विकास के मामले में अक्सर भारत की तुलना चीन से की जाती है। आज से चार दशक पहले चीन की आर्थिक स्थिति, सामाजिक संरचना और उसका आधारभूत ढांचा भी भारत सरीखा था, लेकिन भारी भरकम निवेश के जरिये चीन कहीं आगे निकल गया। चीन ने राजकोषीय घाटे की परवाह नहीं की और आधारभूत ढांचे को मजबूत बनाने के लिए जमकर पैसा खर्च किया। भारत ऐसा नहीं कर पा रहा है। यह इस बजट से भी जाहिर होता है।

दुनिया की सबसे बड़ी स्वास्थ्य बीमा योजना

हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दावोस जाने के पहले यह कहा था कि वह चुनाव को ध्यान में रखकर फैसले नहीं करेंगे, लेकिन वह एक हद तक ही ऐसा कर सके। वित्तमंत्री ने पारंपरिक तरीके से राजकोषीय घाटे को नियंत्रित रखने की कोशिश करते हुए जो बजट पेश किया उसमें ग्रामीण भारत का तो विशेष ध्यान रखा गया है, लेकिन तेज विकास के सपने को छोड़ दिया गया और वह भी तब जब एक अर्से से यह कहा जा रहा है कि विकास के जरिये देश को तेजी से आगे ले जाने, गरीबी रेखा से नीचे रह रहे लोगों का जीवन स्तर सुधारने और नौजवानों को पर्याप्त रोजगार देने के जो सपने दिखाए जा रहे वे तभी पूरे हो सकते हैं जब देश 10-12 प्रतिशत की विकास दर हासिल करे। ऐसी विकास गति सरकारी निवेश में भारी वृद्धि करके ही हासिल की जा सकती है। बजट में ग्रामीण विकास के लिए करीब 14 लाख करोड़ रुपये खर्च करने का वादा किया गया है। एक अन्य बड़ी घोषणा दस करोड़ परिवारों के लिए पांच लाख रुपये तक की स्वास्थ्य बीमा योजना के संदर्भ में की गई है। दस करोड़ परिवारों का मतलब है करीब पचास करोड़ लोग। इसी कारण इसे दुनिया की सबसे बड़ी स्वास्थ्य बीमा योजना कहा जा रहा है। अगर यह योजना सही तरह लागू हुई तो बाजी पलटने वाली साबित हो सकती है। ध्यान रहे कि अपने देश में गरीबों की मुसीबत तब और बढ़ जाती है जब उन्हें अपना या अपने किसी परिजन का उपचार कराना पड़ता है। चूंकि उपचार महंगा है इसलिए कई बार गरीबों की सारी जमा-पूंजी खप जाती है। तमाम गरीब तो कर्जदार तक हो जाते हैैं।

किसानों की आय तभी बढ़ेगी जब ज्यादा से ज्यादा फसलें एमएसपी के दायरे में आएंगी

हालांकि कृषि विकास दर 2-3 प्रतिशत के इर्द-गिर्द ही है, फिर भी ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि आधारित रोजगार ही अधिक हैं। वैसे तो मोदी सरकार ने वर्ष 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने का लक्ष्य तय कर रखा है, लेकिन इसके लिए अब तक जो उपाय किए गए उनसे यह लक्ष्य पूरा होता नहीं दिख रहा था और उधर किसानों की बेचैनी बढ़ती जा रही थी। न तो उनकी आय बढ़ रही थी और न ही क्रयशक्ति। इसके अभाव में अर्थव्यवस्था में भी तेजी नहीं आ पा रही थी। बजट में किसानों को उनकी लागत का डेढ़ गुना दाम देने की घोषणा की गई है। इस घोषणा से किसानों में एक आस जगी है और यह उम्मीद बंधी है कि उनका कुछ तो भला होगा, लेकिन यह तभी होगा जब ज्यादा से ज्यादा फसलें एमएसपी के दायरे में आएंगी और उनका लागत मूल्य सही तरह निकाला जाएगा। लागत का आकलन एक पेचीदा सवाल बना हुआ है। इस पेचीदगी को इस तरह हल करना होगा जिससे किसानों को संतुष्टि हो।

कारपोरेट कर 25 प्रतिशत करने से सरकार को 7000 करोड़ रुपये के राजस्व की हानि होगी

वित्त मंत्री ने कारपोरेट दरें 30 से 25 प्रतिशत करने के उस आश्वासन को पूरा किया जो उन्होंने अपने पहले बजट में दिया था। इस बार उन्होंने ढाई सौ करोड़ रुपये टर्न ओवर वाले उद्योगों का कारपोरेट कर 25 प्रतिशत करने की घोषणा की। इसमें करीब 99 फीसद उद्योग आ जाते हैैं। इससे सरकार को करीब 7000 करोड़ रुपये के राजस्व की हानि होगी। अगर शेष एक प्रतिशत उद्योगों का भी कारपोरेट कर कम किया जाता तो सरकार को इससे आठ-नौ गुना राजस्व हानि उठानी पड़ती। ये एक प्रतिशत वे उद्योग हैैं जो कारपोरेट जगत के सिरमौर हैैं। कारपोरेट कर में राहत पाने के बाद वे बड़े निवेश के लिए आगे आ सकते थे और इससे रोजगार के तमाम और अवसर पैदा होने की संभावना बढ़ जाती, लेकिन मौजूदा हालत में सरकार इन बड़े उद्योगों को रियायत देने से शायद इसलिए ठिठकी, क्योंकि एक तो उस पर बड़े पूंजीपतियों के प्रति नरम होने का आरोप लगता और दूसरे राजस्व में और कमी आती।

बढ़ते राजकोषीय घाटे ने सरकार के हाथ बांध रखे हैैं

जीएसटी पर अमल के बाद से पर्याप्त राजस्व संग्रह में पहले से ही मुश्किल पेश आ रही है। एक ओर जीएसटी नेटवर्क सही तरह काम नहीं कर रहा और दूसरी ओर अभी ईवे बिल सिस्टम भी ढंग से लागू होना शेष है। एक समस्या यह भी है कि व्यापारियों का एक वर्ग उन तौर-तरीकों का इस्तेमाल कर रहा है जिससे उसे मामूली या फिर कम से कम से टैक्स देना पड़े। यथोचित टैक्स देने से बचते हुए यह शिकायत करने का कोई मतलब नहीं कि सरकार भारी-भरकम निवेश नहीं कर रही है। अगर राजस्व नहीं बढ़ेगा तो सरकार सभी क्षेत्रों में ज्यादा से ज्यादा खर्च कहां से करेगी? ध्यान रहे कि बढ़ते राजकोषीय घाटे ने उसके हाथ पहले से ही बांध रखे हैैं। वह राजकोषीय घाटे की अनदेखी करने का जोखिम उठा सकती थी, लेकिन वह ऐसा नहीं कर सकी।

बजट में की गईं घोषणाओं का लाभ लोगों को तभी मिलेगा जब याेजनाएं सही तरह से जमीन पर उतरें

अर्थव्यवस्था और चुनावी वर्ष की चुनौतियों के बीच सरकार को यह देखना होगा कि उसने बजट में जो घोषणाएं की हैं वे जमीन पर सही तरह से उतरें और लोगों को उनका लाभ भी मिले। यह तभी हो सकेगा जब नौकरशाही सुस्ती का परित्याग करेगी। इस मामले में राज्यों की नौकरशाही को खास तौर पर चेतने-चेताने की जरूरत है। आज अगर देश के कई राज्य और खासकर उत्तर भारत के बड़ी आबादी वाले राज्य पिछड़ते दिख रहे हैैं तो सरकारी योजनाओं और कार्यक्रमों का सही तरह क्रियान्वयन न हो पाने के कारण ही। नौकरशाही के रंग-ढंग में सुधार इसलिए आवश्यक है, क्योंकि स्वास्थ्य और ग्रामीण विकास संबंधी योजनाएं राज्यों के सहयोग से ही सही ढंग से आगे बढ़ सकेंगी। स्पष्ट है कि आम चुनाव तक ग्रामीण भारत की तस्वीर बदलने के लिए मोदी सरकार को कमर कसनी होगी।

[ लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं ]