नई दिल्ली [ संतोष त्रिवेदी ]। नया बजट आ गया है। सरकार ने इस बार बड़ी एहतियात बरती है। इससे आम आदमी की तबियत न बिगड़े, इसलिए उसकी खातिर स्वास्थ्य बीमा लाया गया है। इसका असर अभी से दिखने भी लगा है। आम आदमी का ‘अशुभ-चिंतक’ बाजार इसे देखते ही बीमार हो गया है। बजट के सामने वह पूरी तरह दंडवत हो गया। सरकार के समर्थक समझ रहे हैं कि बाजार सलामी दे रहा है, पर विरोधी कह रहे हैं कि यह सलामी नहीं सुनामी है। सरकार खुद यह कह रही है कि उसने गरीब का खयाल रखा है। इस बात का पहला सबूत तो यही कि उसके मंत्री ने अपना पिटारा खोलते समय कुल सत्ताइस बार ‘गरीब’ का जिक्र किया। उधर सरकार से ज्यादा उसकी फिक्र विपक्ष को है। उसका हर बयान गरीब से ही शुरू होता है। अब यह बजट का ही तो असर है कि इसके आने के बाद से गरीब केंद्र में आ गया है। यहां तक कि इस बार मंत्री जी ने हिंदी में भी समझा दिया है कि 2022 के बाद गरीब केवल शब्दकोश में रहेगा। उसकी ख़ुशहाली के लिए ही उन्होंने इस बार सरकार का ‘कोष’ उसे समर्पित कर दिया है।

फसल बीमा योजना से सरकार और किसान दोनों की ‘फसल’ सुरक्षित रहेगी

बजट में एक बात और अच्छी की गई है। फसल बीमा योजना के जरिये सरकार और किसान दोनों की ‘फसल’ सुरक्षित रहेगी। विपक्ष को भी इस बात की आशंका हो गई है, इसलिए वह इसे महज लोक-लुभावन कहकर खारिज कर रहा है। उसे पता चल गया है कि असल शब्दकोश में लोक-लुभावन का अर्थ ‘खरपतवार’ होता है। यह उसकी ‘फसल’ नष्ट कर देगा। बजट में और भी बहुत सी अच्छी बातें हैं। जैसे काजू सस्ता हो गया है। टीवी, मोबाइल और जूते महंगे हुए हैं, जबकि नमक और ई-टिकट सस्ते। केवल इन्हीं वस्तुओं से अंदाजा लगाया जा सकता है कि सरकार गरीब समर्थक है। वह चाहती है कि दाल-रोटी छोड़िए, काजू उसकी पहुंच में आ जाए। बरसों से गरीब की पहचान दाल-रोटी से ही रही है। मोमबत्ती को सस्ती करने का मतलब भी साफ है। गरीब के हिस्से में अंधेरा ज्यादा है। एक अकेले सरकारी बिजली उसे कितना दूर करेगी, सो उसके लिए ‘अतिरिक्त प्रकाश’ की व्यवस्था की गई है। रही बात टीवी, मोबाइल और जूते महंगे करने की तो यह कदम भी सर्वथा उचित है। न्यूज चैनलों में रोज हो रही मार-पीट को देखकर गरीब अपना माथा क्यों फोड़े? उसकी सेहत सही रहे, इसीलिए सरकार ‘हेल्थ-बीमा’ लाई है। मोबाइल को तो महंगा करना जरूरी हो गया था। जबसे इसमें बातें करना ‘फ्री’ हुआ है, आम आदमी भी सरकार की तरह बातें बनाने लगा था। सरकार का तो ऐसा करने का हक बनता है। उसे देश भी चलाना है। आम आदमी केवल बातें करेगा तो काम कब करेगा? इसलिए यह कदम स्वागतयोग्य है। और जब सरकार देशहित में इतने कदम रखेगी तो जूते भी अपने आप ही महंगे हो जाएंगे।

बजट में सबसे ज्यादा मार मिडिल क्लास पर पड़ी

सरकार ने कई चीजें सस्ती भी की हैं। मोमबत्ती के अलावा नमक और ई-टिकट। वह चाहती है कि आम आदमी जितना ज्यादा उसका नमक खाएगा उतना ही उसका हक अदा करेगा और जनता यह सब तब कर पाएगी जब ये दोनों बने रहेंगे। ई-टिकट गरीब को इसलिए सस्ती दर पर मुहैया कराया जाएगा, क्योंकि लोकसभा, विधानसभा और राज्यसभा के टिकट वह अफोर्ड भी नहीं कर सकता। खुद आम आदमी इसके खिलाफ है। अगर उसे किसी तरह टिकट मिल भी गया तो चुनाव जीतना तो दूर, वह चुनावी ब्योरा तक सही ढंग से पेश नहीं कर सकता। इसलिए सस्ते ई-टिकट से वह सफर करे और शहर के प्रदूषण से बचे। इस लिहाज से यह बजट पर्यावरण अनुकूल भी है। बजट के बारे में हमने पहले उस मिडिल क्लास की राय जाननी चाही जिसके बारे में कहा जा रहा है कि सबसे ज्यादा मार उसी पर पड़ी है। वह हमें ट्रेन के एक डिब्बे में ही मिल गया। हमने जानना चाहा कि बजट पर उसकी प्रतिक्रिया क्या है? वह नाराज हो गया। कहने लगा कि आपका बुनियादी सवाल ही गलत है। जो करता है, बजट ही करता है। इस नाते वह हम पर ‘क्रिया’ करता है, हम प्रतिक्रिया कैसे दे सकते हैं! यह काम अर्थशास्त्रियों का है। फिर भी आपको बजट कैसा लगा? हम अंदर की बात निकालना चाहते थे।

संसद में पेश किए गए बजट की मारक-क्षमता 2022 तक रहेगी

वह बताने लगा-साहब, कुछ लोग यह अफवाह फैला रहे हैं कि हमको बड़ी मार पड़ी है जबकि सही यह है कि हमें अब कोई खास फर्क नहीं पड़ता। हमें तो बरसों से बजट के घूंट पी लेने का तजुर्बा हो चला है। इस चक्कर में उसका स्टेशन भी छूट गया। चलते-चलते हमने उसको महत्वपूर्ण सलाह दी कि आगे उतरकर यू-टर्न ले लेना। उधर से जवाब आया कि फिलहाल यह सुविधा केवल सरकार के पास है। मिडिल-क्लास की इस राहत भरी सांस के बाद हमारी नजर अखबार पर गई। वहां सरकार और विपक्ष दोनों के राहत भरे बयान थे। सरकार इसलिए ख़ुश थी कि यह पहला ऐसा बजट है जिसे पेश किया गया है 2018 में पर इसकी मारक-क्षमता 2022 तक रहेगी। एक साल के साथ उसे चार साल यूं ही मिल गए वहीं विपक्ष को इस बात की राहत थी कि चार साल बीत गए। शुक्र है कि सरकार का बस एक साल ही बचा है!

[ हास्य-व्यंग्य ]