संजय गुप्त

अपने डेरे की दो साध्वियों के साथ दुष्कर्म के मामले में सीबीआइ की विशेष अदालत द्वारा डेरा सच्चा सौदा के प्रमुख गुरमीत राम रहीम को दोषी ठहराए जाने के बाद उनके समर्थकों ने हरियाणा के कई जिलों में हिंसा का जैसा तांडव मचाया और जिसके चलते तीस से अधिक लोगों की जान चली गई उसने समाज के समक्ष कई गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैैं। इस मामले ने समाज का यह स्याह पक्ष सामने रखा है कि किस तरह आम लोग तथाकथित धार्मिक गुरुओं के जाल में फंस जाते हैं और फिर बिना कुछ सोचे-समझे उनके लिए कुछ भी करने को तैयार रहते हैैं। आम तौर पर आस्थावान लोग सुखमय जीवन और मानसिक शांति के लिए धर्मगुरुओं की ओर उन्मुख होते हैं। प्राचीन समय से ऐसे संत होते रहे हैैं जो ईश्वर और आम लोगों के बीच सेतु का काम करते हैं। वे ईश्वरीय संदेश के साथ धार्मिक मूल्यों-मर्यादाओं के बारे में लोगों को सरलता से समझाते हैं। इसी कारण उन्हें आदर-सम्मान प्राप्त होता रहा है। समय के साथ सच्चे संतों का अभाव होता गया और उनकी जगह उन लोगों ने लेनी शुरू कर दी जो न केवल लोभ-लालच से भरे हुए थे, बल्कि अपनी पूजा भगवान के रूप में कराने की लालसा से भी ग्रस्त थे। पिछले दो-तीन दशकों में तो ऐसे बाबाओं की बाढ़ सी आ गई है। अक्सर वे विवाद के भी शिकार हुए, लेकिन अपने अनुयायियों के अंधविश्वास का फायदा उठाकर अपना साम्राज्य फैलाने में सफल होते रहे। ऐसे कथित संत और महात्मा इसलिए अपने मंसूबों में कामयाब हो जाते हैं, क्योंकि लोग धर्म और आस्था के नाम पर सही-गलत की पहचान करने की शक्ति खो देते हैं।
एक असली संत तो वह होता है जो मोह-माया का परित्याग कर देता है और खुद को ईश्वर के लिए समर्पित कर देता है। जो संतों का चोला धारण कर धन-संपत्ति अर्जित करने के फेर में हो और कुमार्ग पर चल रहा हो वह संत कहलाने योग्य नहीं। अब यह स्पष्ट है कि डेरा सच्चा सौदा प्रमुख पाखंड के रास्ते पर चलने के साथ कई तरह के अनैतिक कार्य में लिप्त था। उसने अपने आचरण से उन सूफी संतों के मान पर भी धब्बा लगाया जिन्होंने डेरा सच्चा सौदा की स्थापना की और उसे लोकप्रिय बनाया। डेरा सच्चा सौदा के लाखों अनुयायी हैं। कुछ लोग तो यह संख्या करोड़ों में बताते हैं। गुरमीत की ताकत अपने अनुयायियों की संख्या के कारण ही बढ़ती गई। जब उसकी ताकत बढ़ी तो राजनीतिक दलों ने भी वोट के लोभ में उसके प्रति नरमी बरतने में ही अपनी भलाई समझी। इसके दुष्परिणाम सबके सामने हैैं। अपने अनुयायियों की अंध आस्था के बल पर गुरमीत ने न केवल अरबों रुपये की संपत्ति अर्जित की, बल्कि मनमानी भी की। एक साध्वी ने 2002 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को एक गुमनाम पत्र के माध्यम से अपने साथ हुई ज्यादती की सूचना दी। इसके बाद जांच शुरू हुई। इस जांच के दौरान एक अन्य साध्वी ने भी बाबा की कारगुजारी बयान की। पहले तो इन मामलों की जांच में लंबा समय लगा और फिर अदालती कार्यवाही में भी। नतीजा यह हुआ कि गुरमीत के खिलाफ अदालत का फैसला आने में 15 साल का समय लग गया। यह भी कम चौंकाने वाला नहीं कि दोनों मामलों की जांच-पड़ताल के दौरान ही एक साध्वी के भाई और बाबा के गोरखधंधे को उजागर करने वाले एक पत्रकार की हत्या हो गई। इन दोनों हत्याओं के आरोप बाबा पर लगे, लेकिन उसके प्रभाव में कमी नहीं आई तो इसीलिए कि वह राजनीतिक दलों का संरक्षण पाने में कामयाब रहा।
साध्वियों के साथ दुष्कर्म में गुरमीत को दोषी ठहराए जाने के बाद माना जा रहा है कि हत्या के दोनों मामलों के साथ-साथ डेरे के साधुओं को नपुंसक बनाने की भी जांच और सुनवाई की प्रक्रिया तेजी से आगे बढ़ेगी। गुरमीत के रूप में एक अत्याचारी और दुराचारी को अदालत की ओर से सजा सुनाने के बाद समाज की आंखें खुल जानी चाहिए, लेकिन ऐसा होने के बारे में सुनिश्चित नहीं हुआ जा सकता। इसके प्रबल आसार हैैं कि गुरमीत का उत्तराधिकारी उसका बेटा या कोई अन्य संबंधी ही होगा। हैरत नहीं कि उत्तराधिकारी की घोषणा के बाद फिर से डेरा सच्चा सौदा में भीड़ जुटने लगे। यदि ऐसा होता है तो भोले-भाले लोगों को ठगे जाने का सिलसिला फिर से कायम हो सकता है। पता नहीं क्यों हमारा समाज यह नहीं समझ पा रहा है कि किसे संत माना जाना चाहिए? यह स्थिति तब है जब सच्चे और निस्वार्थ सेवा वाले संतों के अनेक उदाहरण उपलब्ध हैैं। कई बार लोग यह जानते भी कथित बाबाओं के जाल में फंस जाते हैं कि संत का आचरण कैसा होना चाहिए?
संत समाज को यह समझना होगा कि धर्म के नाम पर जगह-जगह चल रही दुकानें हिंदू समाज का हित नहीं कर रही हैं। रह-रहकर ऐसे मामले सामने आते हैं जब शासन-प्रशासन को मनमानी करने वाले कथित धार्मिक गुरुओं को नियंत्रित करने के लिए आगे आना पड़ता है। यह सरकार का काम नहीं होना चाहिए। यह काम तो संत समाज का ही है। यह अच्छी बात है कि गुरमीत का मामला सामने आने के बाद अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद ने एक वक्तव्य जारी कर स्वयंभू बाबाओं को संत-महात्मा कहे जाने पर आपत्ति जताई और सभी अखाड़ों को यह निर्देशित किया कि उन्हें अपने-अपने यहां स्थापित समिति के अनुमोदन के बाद ही संतों एवं महामंडलेश्वरों को मान्यता देनी चाहिए, लेकिन इसमें संदेह है कि इससे बात बनेगी। इसी तरह यह कहना कठिन है कि अखाड़ा परिषद की ओर से स्वयंभू बाबाओं की जो सूची तैयार की जा रही है उसे खुद को संत-महात्मा, जगदगुरु, कथावाचक आदि कहलाने वालों के अलावा समाज मान्यता देगा। स्पष्ट है कि अखाड़ा परिषद को ऐसी कोई व्यवस्था विकसित करनी होगी जिससे संत वेषभूषा वाले धर्म के नाम पर लोगों को गुमराह न कर सकें। यह आसान काम नहीं, क्योंकि हर किसी को अपनी-अपनी तरह से धर्म की व्याख्या करने का अधिकार है। इसके बावजूद ऐसी आचार संहिता तो बननी ही चाहिए कि संतों और बाबाओं के लिए क्या वर्जित है और क्या नहीं? यह आचारसंहिता ऐसी हो कि धर्म की मनमानी व्याख्या करने और अंधविश्वास बढ़ाने वाले कथित संतों पर लगाम लग सके।
अखाड़ा परिषद के साथ-साथ खुद समाज को संतों की परख अपने स्तर पर करनी चाहिए। उसे न केवल ऐसे बाबाओं को हतोत्साहित करना चाहिए जो खुद को भगवान बताने लगते हैैं, बल्कि आस्था के नाम पर कुछ भी करने के प्रति सतर्क रहना चाहिए। आस्था और अंधविश्वास में बारीक अंतर है। इस अंतर को बनाए रखना चाहिए। आस्थावान होने का यह मतलब नहीं कि नियम-कानूनों को ताक पर रख दिया जाए। सिरसा और पंचकूला में गुरमीत के समर्थकों ने यही किया। उन्होंने सुरक्षाकर्मियों पर हमला बोला, सरकारी भवनों को आग लगाई और मीडिया के लोगों को निशाना बनाया। ऐसी स्थिति फिर न बने, इसके प्रति संत समाज को भी सतर्क रहना चाहिए और नागरिक समाज को भी। इससे ही समाज आगे बढ़ेगा।

[ लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं ]