संजय गुप्त
 नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने गंगा में गंदगी को लेकर जिस तरह केंद्र और संबंधित राज्य सरकारों को फटकार लगाई उससे यह फिर साफ हो गया कि गंगा समेत अन्य नदियों के प्रदूषण की रोकथाम के लिए केंद्र और राज्य सरकारें ढुलमुल रवैया अपनाए हुए हैं। यह कोई पहली बार नहीं जब एनजीटी अथवा सुप्रीम कोर्ट या फिर किसी उच्च न्यायालय की ओर से नदियों के प्रदूषण पर सरकार या उसकी एजेंसियों को फटकार लगाई गई हो, लेकिन वे कारण आज भी नजर आते हैं जो नदियों के प्रदूषण को बढ़ाने का काम कर रहे हैं। न तो नदियों में गिर रहे सीवेज को रोका जा पा रहा है और न ही उनके किनारे स्थापित उद्योगों पर अंकुश लगाया जा सका है। नतीजा यह है कि गंगा-यमुना समेत देश की हर छोटी-बड़ी नदी प्रदूषित है। उनकी बायो डायवर्सिटी समाप्त हो चुकी है या फिर समाप्त होने की कगार पर है। बायो डायवर्सिटी खत्म होने का मतलब है कि नदियों का पानी जीव-जंतुओं के लिए भी खतरनाक बन गया है। प्रदूषित नदियों की मछलियां खाने का अर्थ है बीमारियों को दावत देना। कई नदियां तो ऐसी हैं कि उनका पानी सिंचाई योग्य भी नहीं रह गया है। हम भारतीय नदियों को पूजनीय मानते हैं और उन्हें सभ्यता-संस्कृति के वाहक के तौर पर देखते हैं, लेकिन उनमें बढ़ रहे प्रदूषण की रोकथाम के लिए चिंतित नहीं। इस मामले में समाज और सरकारों का रवैया एक जैसा है। यह खेदजनक है कि गंगा देश की संस्कृति का अंग है और फिर भी दुर्दशा से ग्रस्त है।
पिछले दिनों एनजीटी ने गंगा को प्रदूषण से बचाने के लिए हरिद्वार से उन्नाव तक इस नदी के किनारे सौ मीटर के दायरे तक निर्माण पर रोक लगाने के साथ ही पांच सौ मीटर के दायरे में कचरा डालने पर 50 हजार रुपये का जुर्माना लगाने का आदेश दिया। उसने यह भी कहा कि उसके आदेश का पालन न होने पर संबंधित अधिकारियों को जेल भेजा जाएगा। ऐसे सख्त आदेश के बावजूद यह नहीं कहा जा सकता कि सरकारी अमला चेतेगा। गंगा सरीखी नदियों को साफ रखना अकेले केंद्र सरकार की ही जिम्मेदारी नहीं है। आज यदि गंगा समेत अन्य अनेक नदियों का पानी विषाक्त हो चुका है तो यह दशकों की लापरवाही का परिणाम है। नदियों किनारे बसे शहरों में जैसा ढांचा विकसित हुआ है वह उन्हें और दूषित कर रहा है। अंधाधुंध शहरीकरण की होड़ में यह सोचा ही नहीं गया कि शहरों में उपयुक्त सीवेज प्रणाली है या नहीं और आबादी के बढ़ते बोझ से जो गंदगी निकलेगी वह नदियों का क्या हाल करेगी? हाल में यह सामने आया कि बारिश के दिनों में जब अधिकांश शहरों में सीवेज शोधन संयंत्र खराब हो जाते हैं तो उन्हें ठीक करने के बजाय सीवरों की गंदगी सीधे नदियों में बहा दी जाती है। स्पष्ट है कि इसके कारण जल जनित बीमारियों का प्रकोप बढ़ जाता है। आजादी के बाद से शहरों में आबादी तो तेजी से बढ़ती गई, लेकिन वहां सीवर लाइन बनाने और सीवेज शोधन के उपयुक्त इंतजाम नहीं किए गए। अधिकांश शहरों में सीवेज शोधन संयंत्र एक तो पर्याप्त संख्या में हैं नहीं और जो हैं भी वे पूरी क्षमता से काम नहीं करते। यह दलील बहानेबाजी के अलावा और कुछ नहीं कि एक गरीब देश होने के नाते हम उच्च तकनीक वाले कारगर शोधन संयंत्र नहीं लगा सकते। सच्चाई यह है कि राज्य सरकारें और शहरी निकाय सीवर के दूषित जल को शोधित करने के प्रति गंभीर नहीं हैं। इस मामले में हमारे राजनेता और नौकरशाह, दोनों ही अपनी जिम्मेदारी से मुंह मोड़ रहे हैं। शायद ही किसी राजनीतिक दल के घोषणापत्र में यह वादा किया जाता हो कि नदियों को सीवर के गंदे पानी से बचाया जाएगा और सीवेज शोधन संयंत्रों को सही तरह चलाया जाएगा।
माना कि गांवों में सीवर प्रणाली की जरूरत नहीं महसूस की गई, लेकिन इसका कोई मतलब नहीं कि बिना सीवर लाइन बनाए शहरीकरण की योजनाएं आगे बढ़ाई जाएं। शहरीकरण सुनियोजित विकास की मांग करता है। शहरों में सीवर की निकासी और उसके शोधन के उपाय पहली जरूरत हैं, लेकिन यह देखकर हैरानी होती है कि हमारे अधिकांश शहर अनियोजित विकास का नमूना बन गए हैं। शहरों में न तो सीवर निकासी के समुचित उपाय हैं और न ही उनके गंदे जल को शोधित करने के। अब यह देश के सामने आना ही चाहिए कि आखिर कौन से इंजीनियरों ने शहरों के बेतरतीब विकास की योजना बनाई? इसी तरह वे कौन नेता थे जिन्होंने शहरों और नदियों को दूषित करने वाली योजनाओं को मंजूरी दी? समझना कठिन है कि जब ऐसी योजनाओं को मंजूरी दी जा रही थी तब विपक्ष क्या कर रहा था? एक सवाल यह भी है कि आखिर आम जनता की ओर से ऐसी कोई आवाज जोर से क्यों नहीं उठाई गई कि शहरों को बर्बाद करने और नदियों को नष्ट करने का काम क्यों किया जा रहा है? अच्छा होगा कि शहरों में सीवर व्यवस्था के अभाव, सीवेज शोधन संयंत्रों के सही तरह काम न करने और बेतरतीब योजनाओं को लागू करने पर कोई श्वेतपत्र लाया जाए। इससे ही यह उजागर होगा कि पक्ष-विपक्ष के नेताओं और नौकरशाहों ने अपने बुनियादी दायित्वों का निर्वहन करने के बजाय किस तरह आंखें फेरे रखना उचित समझा।
मोदी सरकार के कार्यकाल के तीन वर्ष पूरे हो चुके हैं, लेकिन गंगा कोे बचाने का उसका लक्ष्य अधूरा है। यह तब है जब गंगा को बचाने का संकल्प बार-बार व्यक्त किया गया। मोदी सरकार ने गंगा को प्रदूषण मुक्त करने के लिए राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन के तहत नमामि गंगे के नाम से एक परियोजना भी शुरू की, लेकिन कोई ठोस प्रगति नहीं दिखती। इसका एक प्रमुख कारण राज्यों की सीवेज व्यवस्था में सीधे दखल देने के प्रति केंद्र सरकार की हिचक है। सीवर व्यवस्था स्थानीय निकायों के तहत आती है। केंद्र सरकार इस मामले में राज्यों की मदद कर सकती है, लेकिन अंतत: सुधार का काम तो राज्य सरकारों और शहरी निकायों को ही करना है। एनजीटी के अनुसार अब तक 7000 करोड़ रुपये गंगा की सफाई में खर्च हो चुके हैं, लेकिन हालात में सुधार नहीं। मोदी सरकार के लिए स्वच्छता एक अहम मुद्दा है। वह खुले में शौच और सार्वजनिक स्थलों में सफाई के लिए प्रतिबद्ध है। इसके लिए लाखों शौचालय बनवाए जा रहे हैं, लेकिन उन्हें सीवर प्रणाली से जोड़ने पर किसी का ध्यान ही नहीं।
किसी को सोचना चाहिए कि जब खुले में मलमूत्र से हवा तक दूषित हो जाती है तो फिर भूजल क्यों नहीं दूषित होगा? तमाम जगह शौचालयों की गंदगी सीधे नदियों में छोड़ी जा रही है। खुले में शौच के कारण लोगों के स्वास्थ्य पर गंभीर असर पड़ता है। डायरिया जैसी गंभीर बीमारियां जल जनित प्रदूषण से ही पनपती हैं। यदि यही हालात रहे तो एक बड़ी आबादी बीमारी से ग्रस्त बनी रहेगी और हमारे शहर एवं नदियां प्रदूषित होती रहेंगी। अगर मोदी सरकार ने यह ठाना है कि पूरे देश में स्वच्छता आनी चाहिए तो उसे राजनीतिक हित भूलकर राज्यों और उनके स्थानीय निकायों पर इसके लिए दबाव बनाना चाहिए कि वे अपना काम सही तरह करें।
[ लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं ]