विवेक काटजू। प्रधानमंत्री के रूप में नरेन्द्र मोदी का तीसरा कार्यकाल आरंभ हो गया है। अपने सुदीर्घ राजनीतिक जीवन में मोदी पहली बार गठबंधन सरकार का नेतृत्व कर रहे हैं। हालांकि सरकार पर सहयोगी दलों के दबाव की अटकलों के बीच मंत्रिपरिषद गठन और विभागों के आवंटन के माध्यम से उन्होंने यही संदेश दिया कि उनकी शैली नहीं बदली है और कमान पूरी तरह उनके हाथ में रहेगी।

उन्होंने सुरक्षा मामलों की कैबिनेट समिति से संबंधित महत्वपूर्ण मंत्रालयों में कोई फेरबदल नहीं किया। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और प्रधानमंत्री कार्यालय में प्रमुख सचिव जैसी अहम नियुक्तियों में भी पुराने लोगों को ही मौका दिया। इस बीच उन्होंने गठबंधन का भी बार-बार उल्लेख किया। यह संदेश उन्हें समय-समय पर दोहराते रहना होगा।

शपथ ग्रहण के कुछ दिन बाद ही पीएम मोदी जी-7 से जुड़े आयोजन में शामिल होने के लिए इटली गए। तीसरे कार्यकाल में यह उनका पहला विदेशी दौरा रहा। उनके इस दौरे की उपयोगिता को लेकर कुछ लोगों के मन में कोई संदेह रहा हो तो वह अनावश्यक कहा जाएगा। अतीत में तो बेहद कमजोर गठबंधन की सरकारों के मुखिया भी वैश्विक मंचों पर देश का प्रतिनिधित्व करते रहे हैं।

वास्तव में 1989 से 2014 तक 25 वर्षों के दौरान देश में गठबंधन सरकारों का ही दौर रहा और यही वह अवधि थी जब भारतीय अर्थव्यवस्था का कायाकल्प आरंभ हुआ। उस प्रक्रिया ने भी भारत के वैश्विक कद को प्रभावित करने में अहम भूमिका निभाई। इस लिहाज से जी-7 सम्मेलन में मोदी की उपस्थिति एक सराहनीय कदम रहा। चूंकि इसमें विश्व के सबसे शक्तिशाली देशों की सहभागिता होती है और इस बार आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, ऊर्जा, अफ्रीका और भूमध्यसागरीय क्षेत्र जैसे मुद्दे भी भारतीय हितों की दृष्टि से महत्वपूर्ण थे, इसलिए सम्मेलन में भारत की भागीदारी पूरी तरह समझ आती है।

एक राजनयिक के रूप मेरा अनुभव यही कहता है कि अंतरराष्ट्रीय बिरादरी को इससे फर्क नहीं पड़ता कि कोई सरकार किसी एक दल के बहुमत से चल रही है अथवा गठबंधन सहयोगियों के भरोसे। असल में सरकार का राजनीतिक स्थायित्व और उसका नेतृत्व करने वाले नेता का महत्व उससे कहीं ज्यादा होता है। अगर उन्हें इन पहलुओं को लेकर संशय रहता है तो वे सरकार के साथ सक्रियता में संकोच करते हैं। इटली में मोदी ने जिन नेताओं से मुलाकात की, वे इससे अवगत होंगे कि पूर्व की तरह इस बार मोदी की पार्टी को पूर्ण बहुमत नहीं मिला और विपक्षी दलों ने अपेक्षा से बेहतर प्रदर्शन किया।

हालांकि मोदी के साथ संवाद में उनकी भाव-भंगिमा ने यही दर्शाया कि उन्हें मोदी के नेतृत्व और उनकी सरकार की स्थिरता को लेकर संदेह नहीं। इन नेताओं और दूसरे अन्य देशों की नजर इस पर जरूर होगी कि चूंकि मोदी पहली बार किसी गठबंधन सरकार का नेतृत्व कर रहे हैं तो क्या वे अपनी आर्थिक एवं विदेश नीति के मोर्चे पर किसी प्रकार के संशोधन-समायोजन करेंगे। वैश्विक नेताओं ने इटली में मोदी के साथ अपनी बैठकों में शायद परोक्ष रूप से इस सवाल के जवाब की टोह लेने का प्रयास भी किया होगा। वे मोदी सरकार के अगले बजट को भी गहनता से परखेंगे कि उनकी सरकार अब कौनसी राह पकड़ने वाली है। ऐसा इसलिए, क्योंकि भारत की नीतियां और बाजार इन देशों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।

समकालीन विश्व में भारत की स्थिति को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर न भी पेश किया जाए, तो भी यह निश्चित है कि अतीत की तुलना में वैश्विक मोर्चे पर भारत कहीं अधिक मजबूत है। बीते दो दशकों में देश ने तेज प्रगति की है और उसकी रफ्तार मोदी सरकार के दौरान भी बरकरार रही। संभव है कि विकास का पूरा प्रभाव कतार में खड़े अंतिम लोगों तक अभी अपेक्षित रूप से न पहुंच पाया हो, लेकिन इससे कोई इन्कार नहीं कर सकता कि भारतीय अर्थव्यवस्था का विस्तार हुआ है।

भारत को विकास के नए क्षितिज तक पहुंचाने के लिए अभी भी विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी, स्वास्थ्य और शिक्षा पर ध्यान देना अत्यंत आवश्यक है। यदि इन क्षेत्रों को लेकर राजनीतिक सहमति का भाव निर्मित होता है तो देश की राह आसान होगी, लेकिन ऐसा होना कुछ मुश्किल लग रहा है। आवश्यक यही है कि हमारा राजनीतिक वर्ग ऐसी किसी सहमति पर पहुंचे कि देश के समक्ष कायम प्रमुख रणनीतिक चुनौतियों से कैसे निपटा जाए। भारत का इतिहास साक्षी है कि जब भी राजनीतिक वर्ग विभाजित हुआ, तब देश सामरिक चुनौतियों से निपटने में अक्षम रहा। इसका खामियाजा देश को ही भुगतना पड़ा। औपनिवेशिक शासन के चंगुल में फंसना इसकी ही एक परिणति थी।

आज देश के समक्ष सबसे प्रमुख रणनीतिक चुनौती चीन से जुड़ी है। उसने अप्रैल-मई, 2020 से ही लद्दाख क्षेत्र में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर आक्रामक रुख-रवैया अपनाया हुआ है। बीते चार वर्षों से सैन्य, राजनयिक और राजनीतिक स्तर पर कई दौर की वार्ताओं के बावजूद मुद्दों का प्रभावी समाधान नहीं निकल पाया है। तिब्बत में भी चीन अपनी सैन्य ताकत और बुनियादी ढांचा बढ़ा रहा है। भारत के पड़ोस में भी चीन आक्रामकता दिखाने पर तुला है।

विगत चार वर्षों के दौरान मोदी सरकार ने चीनी दुस्साहस का हरसंभव तरीके से जवाब देने का प्रयास किया है। चूंकि नई संसद में विपक्ष की तादाद बढ़ी है तो संभव है कि सुरक्षा एवं वैदेशिक मामलों पर अब पहले की तुलना में सरकार से अधिक जवाब-तलब होता दिखे। जम्मू-कश्मीर में नए सिरे से सिर उठाते पाकिस्तानी आतंकवाद से निपटने का मुद्दा भी इसमें शामिल होगा। अगर चीन, पाकिस्तान और पूरी दुनिया को हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर सार्वजिनक विमर्श से लेकर संसद में असहमति और कटुता देखने को मिली तो यह देश के लिए बहुत घातक होगा।

राष्ट्रीय हितों का यही तकाजा है कि न केवल राजग सहयोगियों, बल्कि विपक्षी दलों से भी निरंतर संवाद जारी रहे। इसका उद्देश्य मुख्य मुद्दों पर सहमति बनाने का होना चाहिए। अगर इन मुद्दों पर एका होती है तो देश के दुश्मनों से निपटने में सरकार की शक्ति में वृद्धि होगी। आवश्यक नहीं कि ऐसे सभी संवादों को सार्वजनिक ही किया जाए। इसे नेताओं के भरोसेमंद विशेषज्ञों के जरिये पर्दे के पीछे से भी शुरू किया जा सकता है। इसके लिए सरकार को पहल करनी चाहिए और विपक्ष उस पर जिम्मेदारी के साथ प्रतिक्रिया के साथ आगे बढ़े।

(लेखक विदेश मंत्रालय में सचिव रहे हैं)