ब्रिगेडियर आरपी सिंह। इस सप्ताह चीन आर्थिक उदारीकरण की चालीसवीं वर्षगांठ मनाएगा। इस दौरान चीन ने खुद को अंतमरुखी कृषि समाज से दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बना लिया है। आज वह दुनिया की एक बड़ी शक्ति के रूप में उभरा है जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी ताकत का अहसास कराता रहता है। 1970 के दशक के अंत तक चीन का जीडीपी भारत के जीडीपी की तुलना में चीन चौथाई ही था, लेकिन आज भारत की तुलना में चीन का जीडीपी चार गुना अधिक है। चीन ने अधिनायकवादी शासन और सरकारी नियंत्रण में निजीकरण और वैश्वीकरण के मिश्रण से ऐसा मायाजाल बुना है कि उसने आर्थिक वृद्धि के मामले में नया कीर्तिमान ही बना दिया है।

पूर्ववर्ती सोवियत संघ को मात देने के लिए शीत युद्ध के अंतिम दशक में अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों ने इस उम्मीद के साथ चीन को वैश्विक व्यापार में भागीदारी की अनुमति दी थी कि समय के साथ वह स्वयं को उदार बना लेगा। इस तरह उदारीकरण के बिना ही चीन वैश्विक व्यापार तंत्र में शामिल हो गया। बीजिंग को डब्लूटीओ ने विशेष रियायतें दीं जो वह विकासशील देशों को देता है ताकि वे व्यापार के बावजूद निवेश बाधाओं को बरकरार रख सकें। चीन ने इसका भरपूर लाभ उठाया। आज वैश्विक जीडीपी में चीन की 13 प्रतिशत हिस्सेदारी है और दुनिया की 20 फीसद आबादी के साथ वह सबसे बड़ा उपभोक्ता देश भी है। दुनिया के 60 प्रतिशत कंक्रीट, 48 प्रतिशत तांबा और कोयला, 30 प्रतिशत चावल और 54 प्रतिशत एल्यूमिनियम का उपभोग वही करता है। इनमें से कुछ वस्तुएं घरेलू उपभोग में खप जाती हैं तो अधिकांश से अन्य मूल्य वर्धित उत्पाद तैयार करके उनका निर्यात कर दिया जाता है।

चीन न केवल अपनी अर्थव्यवस्था को तेजी से विकसित कर रहा है, बल्कि कई देशों पर अपना आर्थिक शिकंजा भी कस रहा है। बीते 20 वर्षो में चीन ने एक ऐसे आर्थिक साम्राज्यवाद का जाल बिछाया है जिसमें पेरू से लेकर पापुआ न्यू गिनी जैसे सुदूरवर्ती देश भी फंसते नजर आ रहे हैं। चीन इन देशों की खनिज संपदा से लेकर खेती की जमीन और पानी का मनमाना दोहन कर रहा है। ऐतिहासिक रूप से देखा जाए चीनियों की मानसिकता ही साम्राज्यवादी है। साम्राज्यवाद ऐसी नीति होती है जिसमें कोई देश अपनी सैन्य शक्ति या अन्य माध्यमों से किसी अन्य देश पर अपना प्रभाव डालता है। चीन व्यापार और वाणिज्य में परंपरागत रूप से इसका इस्तेमाल करता आया है। प्राचीन काल में चीनी शासकों ने एक सिल्क रूट बनाया जिसे अब मौजूदा राष्ट्रपति शी चिनफिंग के नेतृत्व में बिल्ट एंड रोड इनिशिएटिव के तौर पर नया रूप दिया जा रहा है। चीन विकासशील देशों को कर्ज के अपने ऐसे जाल में फंसा रहा है जिससे वे कभी बाहर ही न निकल पाएं। वह दक्षिण अमेरिकी, अफ्रीकी देशों के अलावा दक्षिण एवं पूर्वी एशियाई और कुछ यूरोपीय देशों में भी भारी-भरकम निवेश के साथ उन्हें बड़े पैमाने पर कर्ज दे रहा है।

स्वाभाविक है कि यह कोई दान-दक्षिणा नहीं है। चीन की रणनीति यही है कि धीरे-धीरे ही सही वह वैश्विक विदेश नीति पर अमेरिकी पकड़ को कम करके उस पर अपना दबदबा बढ़ाए। चीन की ओर से किया गया निवेश महज परोपकार की कयायद भर नहीं होती। चीन गरीब और लाचार देशों की मजबूरियों का फायदा उठाकर वहां अपना प्रभाव बढ़ा रहा है। गरीब देशों के शासकों को लुभाने के लिए वह सभी हथकंडों का इस्तेमाल करता है। मिसाल के तौर पर जब यूरोपीय साझेदारों ने यूनान पर तमाम बंदिशें लगा दीं और अमेरिका से भी उसे मदद की कोई उम्मीद नहीं दिखी तो चीन उसका मददगार बना।

चीन अमेरिका विरोधी मित्रों को प्रोत्साहन दे रहा है ताकि अपना भू-राजनीतिक गठजोड़ मजबूत बना सके और खुद निगरानी के केंद्र की भूमिका में रहे। वेनेजुएला की ही मिसाल लें। विदेशी निवेश के लिहाज से यह समाजवादी देश किसी भी सूरत में आकर्षक गंतव्य नहीं, फिर भी चीन उसे लगातार अरबों डॉलर की मदद देने को तैयार है। अधिकांश एशियाई, अफ्रीकी और दक्षिण अमेरिकी देशों में चीन ने निवेश की आड़ में ऐसे अनुबंध किए हैं जिसमें वह उन देशों के प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन कर सके। चीनी नागरिक इन देशों के शहरों और ग्रामीण इलाकों में बस गए हैं जहां उन्होंने कंस्ट्रक्शन कंपनियों से लेकर खदानें विकसित कर ली हैं और होटल से लेकर रेस्टोरेंट तक संचालित कर रहे हैं। उन्होंने स्कूल और अस्पताल भी खोले हैं। यह बात और है कि भ्रष्टाचार, मजदूरों के उत्पीड़न और आपराधिक लीपापोती के अक्सर सामने आते मामलों को देखते हुए चीनियों और अफ्रीकियों के बीच रिश्तों में तल्खी पैदा हो रही है।

चीन के साथ ऐसे असंतुलित रिश्तों को लेकर कुछ अफ्रीकी बेहद कुपित भी हो गए हैं जिन्हें लगता है कि चीन अपने लोगों और उपकरणों के जरिये उनके संसाधनों को लूट रहा है और उन्हें न तकनीकी कौशल सिखा रहा है और न ही तकनीकी हस्तांतरण कर रहा है। अफ्रीका में चीनी साम्राज्यवाद का कुछ ऐसा आतंक मंडरा रहा है कि वहां संसाधन राष्ट्रवाद के पक्ष में आवाज बुलंद हो रही है। अफ्रीका में चीन की बढ़ती पैठ से अमेरिका चिढ़ा हुआ है और चिंतित भी है। यूरोपीय देश व्यापार में आई गिरावट से चिंतित हैं। एक दशक पहले तक अफ्रीका के कुल आयात में चीनी सामान का हिस्सा एक प्रतिशत था जो अब बढ़कर 15 प्रतिशत हो गया है जबकि इसी अवधि में यूरोपीय संघ का हिस्सा 36 फीसद से घटकर 23 फीसद रह गया है। अब चीन अफ्रीका का सबसे बड़ा व्यापार साझेदार है। इसी तरह भारत के पड़ोस में भी नेपाल, म्यांमार, बांग्लादेश और श्रीलंका जैसे देशों पर भी वह अपना शिकंजा कस रहा है। शुक्र है कि मालदीव चीनी कर्ज के मकड़जाल से किसी तरह खुद को मुक्त कराने में सफल रहा। चीन पाकिस्तान का भी पूरी तरह फायदा उठा रहा है।

आतंक के मसले पर वैश्विक रूप से अलग-थलग पड़ने के मुहाने पर पहुंचे पाक के लिए चीन ही अक्सर तारणहार बनकर उभरता है। हमेशा चीनी सरपरस्ती में रहने से पाकिस्तान उसका ऐसा उपनिवेश बनकर रह जाएगा जिसे अपने अस्तित्व के लिए चीन की हमेशा दरकार रहेगी। इसी कड़ी में चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा यानी सीपैक पाकिस्तान के लिए किसी भी लिहाज से फायदे की सौगात नहीं है। कर्ज को लेकर अफ्रीकी देशों में चीन के अनुभव से पाक को चेत जाना चाहिए। पाकिस्तान ने फायदे की सोच से ही सीपैक पर हस्ताक्षर किए होंगे, लेकिन आम पाकिस्तानियों के लिए यह बहुत भारी पड़ेगा। भारत के लिए यह चेतावनी है, क्योंकि उसके पड़ोसियों में औपनिवेशिक पैठ भूसामरिक, भूआर्थिक और भूराजनीतिक खतरे की घंटी है।

प्रधानमंत्री मोदी को अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ अपने दोस्ताना रिश्तों का इस्तेमाल कर चीन के सामने कुछ कड़ी चुनौती पेश करने वाले मंच बनाने चाहिए। भारतीय श्रमशक्ति और इन देशों की वित्तीय एवं तकनीकी शक्ति चीन की साम्राज्यवादी चुनौती का कारगर तोड़ बन सकती है।

(लेखक सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारी हैं)