राजीव सचान

मोदी सरकार तीन साल का अपना कार्यकाल पूरा ही करने वाली है। सरकार के स्तर पर तीन साल की अपनी उपलब्धियों का प्रचार करने की तैयारी भी शुरू हो गई लगती है। यह स्वाभाविक ही है कि सरकार के साथ विपक्षी दल भी यह तैयारी कर रहे होंगे कि कैसे मोदी सरकार के तीन साल के कामकाज को खारिज करते हुए जनता को बताया जाए कि यह सरकार सभी मोर्चों पर विफल रही। मौजूदा माहौल में इसमें संदेह है कि विपक्ष आम जनता को अपनी दलीलों से आश्वस्त कर सकेगा। वैसे भी इन दिनों वह पस्त नजर आ रहा है। एक के बाद एक चुनावों में पराजय के सिलसिले ने विपक्ष को किंकर्तव्यविमूढ़ सा कर दिया है। विपक्षी दलों को समझ नहीं आ रहा है कि मोदी के विजय रथ को कैसे रोका जाए? वे यह भी समझ चुके हैं कि अब इस तरह के बचकाना सवालों से बात नहीं बनने वाली कि ‘आखिर अभी तक हमारे खाते में 15 लाख रुपये क्यों नहीं आए?’ विपक्षी दलों की एकता की कोशिश कामयाब नहीं हो रही है। हाल में तमाम विपक्षी दलों ने प्रखर समाजवादी नेता मधु लिमये के जन्मदिन के बहाने एका की नाव पर बैठने की कोशिश की, लेकिन बात बनती दिखी नहीं। समाजवाद के प्रति मधु लिमये की प्रतिबद्धता का कोई सानी नहीं, लेकिन सबको पता होना चाहिए कि जनता पार्टी में बिखराव के जनक वही थे। जनता पार्टी का जन्म कांग्रेस विरोध से हुआ था। भाजपा तब जनसंघ के रूप में जनता पार्टी का हिस्सा थी। सब कुछ ठीक चल रहा था कि मधु लिमये और उनके साथियों ने दोहरी सदस्यता का सवाल उठा दिया। इस सवाल ने तूल पकड़ा और जनता पार्टी छिन्न-भिन्न हो गई। इसके बाद 1989 में कांग्रेस के खिलाफ विपक्ष की फिर से गोलबंदी वीपी सिंह के नेतृत्व में हुई, लेकिन वह एक साल भी नहीं टिक सकी। अब राजनीतिक दल भाजपा के खिलाफ एकजुट होना चाह रहे हैं। गैर कांग्र्रेसवाद की राजनीति का गैर भाजपावाद में तब्दील होना भाजपा की ताकत के साथ भारतीय राजनीति में आए व्यापक बदलाव को भी बयान करता है।
विपक्षी दलों को उम्मीद है कि बिहार जैसा महागठबंधन राष्ट्रीय स्तर पर भी बन सकता है और उसके जरिये पहले राष्ट्रपति चुनाव और फिर अगले लोकसभा चुनाव में भाजपा को रोका जा सकता है। यह उम्मीद ऐसे समय की जा रही है जब बिहार में महागठबंधन के सिर पर काले बादल मंडरा रहे हैं। लालू यादव महागठबंधन के लिए मुसीबत बन रहे हैं। आतंक के पर्याय माफिया डॉन शहाबुद्दीन से लालू यादव की दोस्ती के खुलासे पर लोगों को नीतीश कुमार का मौन रहना तो समझ आ रहा है, लेकिन यह नहीं कि बाकी दलों के नेता क्यों मौन हैं? विपक्षी दलों की मोदी को चुनौती देने की कोशिश में कुछ भी अस्वाभाविक नहीं, लेकिन लालू यादव के समर्थन के मोहताज नीतीश कुमार के नेतृत्व में यह काम शायद ही हो सके और इस पर तो पहले ही मुहर सी लग गई है कि राहुल गांधी अन्यत्र कहीं सफल हो सकते हैं, पर राजनीति में नहीं। नीतीश और राहुल के अतिरिक्त ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल भी मोदी के समक्ष चुनौती पेश करने लायक दो और चेहरे माने जाते रहे हैं, लेकिन फिलहाल ममता बंगाल को बचाने की चिंता में दुबली होती दिख रही हैं और केजरीवाल को अपनी बची-खुची साख बचाने के लाले पड़े हैं।
विपक्ष की पतली हालत के बावजूद मोदी निश्चिंत नहीं हो सकते। इसलिए और भी नहीं कि तीन साल में जो कुछ नहीं हो सका उसे शेष दो साल में पूरा करने की कठिन चुनौती है। यह सही है कि मोेदी सरकार की उज्ज्वला, मुद्रा जन-धन जैसी कई योजनाओं ने असर दिखाया है, लेकिन रोजगार के नए अवसरों का सवाल तीन साल बाद और बड़ा सवाल बन गया है। इसी तरह कोई इस सवाल का जवाब देने वाला नहीं दिखता कि तीन साल में गंगा कितनी साफ हुई? ऐसे सवालों के साथ केंद्रीय सत्ता के समक्ष कई नई-पुरानी चुनौतियां मुंह बाएं खड़ी हैं। मोदी सरकार और भाजपा के नीति-नियंताओं को इन चुनौतियों का भान होना चाहिए। इस खुशफहमी में रहना ठीक नहीं कि दिशाहीन और लस्त-पस्त विपक्ष भाजपा का मुकाबला करने की स्थिति में नहीं। इससे इन्कार नहीं कि उत्तर प्रदेश में प्रचंड जीत हासिल करने के बाद जब दिल्ली नगर निगम चुनावों में भाजपा ने आम आदमी पार्टी और कांग्रेस को उनकी राजनीतिक हैसियत दिखाई तो मोदी का कद और बड़ा दिखने लगा और वह अपराजेय से नजर आने लगे, लेकिन 24 अप्रैल को सुकमा में सीआरपीएफ के 25 जवानों की शहादत और एक मई को कश्मीर में नियंत्रण रेखा पर दो जवानों की नृशंस हत्या के बाद परिदृश्य जिस तरह यकायक बदला उससे यही रेखांकित हुआ कि किस तरह देखते ही देखते अनुकूल हालात प्रतिकूल रूप ले लेत हैं। इस एक सप्ताह ने यही बताया कि राजनीति में एक हफ्ता बहुत होता है। आज यदि नक्सलियों की चुनौती और कश्मीर में बिगड़ती स्थितियों को लेकर खुद भाजपा समर्थक मोदी सरकार को कठघरे में खड़ा कर रहे हैं तो इसके लिए उन्हें दोष नहीं दिया जा सकता।
आंतरिक सुरक्षा के मौजूदा माहौल के साथ-साथ इस पर भी सवाल उठ रहे हैं कि आखिर मोदी सरकार की कश्मीर नीति क्या है? ऐसे ही सवाल पाकिस्तान नीति को लेकर भी उठ रहे हैं। ये सवाल सरकार की साख पर असर डालने और हतबल विपक्ष को बल देने वाले हैं। मोदी सरकार को यह याद होना चाहिए कि बिहार विधानसभा चुनावों के दौरान दादरी कांड के साथ-साथ अवार्ड वापसी अभियान किस तरह उस पर भारी पड़ा था। यह महज दुर्योग नहीं हो सकता कि इन दिनों भी देश के विभिन्न हिस्सों से बेलगाम गौ रक्षकों के उत्पात की खबरों का सिलसिला कायम है। कानून हाथ में लेने वाले अराजक गौ रक्षकों के साथ हिंदू वाहिनियां भी बेलगाम दिख रही हैं। आखिर भाजपा शासित राज्यों में इन पर लगाम लगाना किसकी जिम्मेदारी है? भाजपा को यह पता होना चाहिए कि गौ रक्षकों की बेजा हरकतें अंतरराष्ट्रीय समाचार माध्यमों में किस तरह उसकी बदनामी का कारण बन रही हैं। कई बार अप्रिय घटनाओं का सिलसिला इतनी तेज गति पकड़ता है कि उन्हें थामने में जब तक सफलता मिलती है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। बिहार में ऐसा ही हुआ था।
[ लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं ]