[ डॉ. अनिल जोशी ]: एक बार फिर यह साफ हो गया कि विकसित और धनी देश बिगड़ते पर्यावरण के संकट से उबारने के लिए ज्यादा जोखिम नहीं उठाने वाले। हाल में पोलैंड में जलवायु परिवर्तन पर आयोजित सम्मेलन में बड़े देशों का रुख-रवैयाइसी ओर इशारा करता है। इस सम्मेलन में 2015 के पेरिस जलवायु समझौते को 2020 से कैसे लागू किया जाए, इस पर चर्चा हुई। ध्यान रहे कि पेरिस समझौते में अमीर देशों के लिए नियम पर कोई सहमति नहीं बन पाई थी। इसके साथ ही गरीब देशों और अमीर देशों के कार्बन उत्सर्जन की सीमा को लेकर भी विवाद था। चूंकि पोलैंड में पेरिस समझौते के पालन के लिए जो नियमावली बनी उसे ज्यादातर पर्यावरण विशेषज्ञ अपर्याप्त मान रहे हैैं। इसलिए कई लोग यह मान रहे हैैं कि पर्यावरण संरक्षण का मकसद किसी अंतरराष्ट्रीय मंच से नहीं पूरा होने वाला। हालांकि कुछ अभी भी यह कह रहे हैैं कि वक्त की मांग यही है कि सभी देश मिल बैठकर बिगड़ते पर्यावरण पर बिना किसी देरी के सामूहिक चिंतन करें ताकि एक बड़े हल पर सबकी सहमति बन सके।

1972 से आज तक पर्यावरण बचाने को लेकर हुईं बैठकों से कुछ ठोस निकल कर नहीं आया है। इन बैठकों में दोषारोपण में ही वक्त जाया हुआ है। यह तो गनीमत है कि कुछ संकल्पित देश अपने बलबूते कमर कसकर ग्लोबल वार्मिंग का स्थानीय निदान करने में जुटे हैैं। भारत ने भी बार-बार कहा है कि वह दुनिया को बढ़ते तापमान से बचाना अपनी जिम्मेदारी समझता है। पेरिस समझौते को लेकर ज्यादातर छोटे और विकासशील देश एकजुट होकर इसके पक्ष में रहे कि दुनिया से कार्बन उत्सर्जन को घटाने के प्रयत्न किए जाएं। फिर भी बहुत कुछ हाथ नहीं लग पाया, क्योंकि कार्बन उत्सर्जन पर वैसा अंकुश लगाने पर सहमति नहीं बनी जैसी आवश्यक थी।

एक आंकड़े के अनुसार 2005 से 2013 के बीच ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन 18.3 फीसद बढ़ा है। क्योटो प्रोटोकॉल के बाद ग्लोबल कार्बन उत्सर्जन 19.1 प्रतिशत बढ़ा। 2018 की विश्व ऊर्जा की सांख्यिकीय समीक्षा के अनुसार वर्ष 2017 में कार्बन उत्सर्जन 426 मिलियन मीट्रिक टन था जो वर्ष 2016 की तुलना में 1.6 फीसद ज्यादा रहा। विडंबना यह है कि ऐसे चिंताजनक निष्कर्षों के बावजूद कुछ विकसित देश ग्लोबल वार्मिंग की अवधारणा को अवैज्ञानिक मानते हुए सिरे से नकार रहे हैैं। इनमें अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भी हैैं। इसी तरह ब्राजील के नए राष्ट्रपति जे बोलसोनारो भी इनमें शामिल हैैं। उनका मानना है कि जलवायु परिवर्तन जैसे विषय विकास में बाधक हैं।

यहां यह बताना जरूरी है कि ब्राजील वह अकेला देश है जिसने क्योटो प्रोटोकॉल का सम्मान करते हुए समय से पहले कार्बन उत्सर्जन में बड़ी कटौती की है, लेकिन नए राष्ट्रपति के रवैये से किए-कराए पर पानी फिर सकता है। अंदेशा है कि नए राष्ट्रपति के कार्यकाल में विकास के नाम पर बड़े स्तर पर वनों को काटा जा सकता है। यूनिवर्सिटी ऑफ एडिनबर्ग के प्रो. डेविड रे के अनुसार कार्बन की सालाना बैलेंस शीट पूरी तरह विज्ञान आधारित है और इसके संदेश बेहद चिंताजनक हैैं।

क्योटो, पेरिस और पोलैैंड सरीखे सम्मेलन किसी बड़े परिणाम की तरफ तो नहीं ले जा पा रहे हैैं, लेकिन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हो रहे तमाम शोधों का जो लाभ इन सम्मेलनों के माध्यम से मिलता है वह हर देश के लिए समझ तैयार करने के लिए लाभप्रद है। वल्र्ड रिसोर्स इंस्टीटयूट केअध्यक्ष हेलन माउंटफोर्ड ने यह स्वीकारा है कि इन सम्मेलनों में लिए गए फैसलों को मानने की गति बहुत धीमी है। पेरिस समझौते में कहा गया था कि कार्बन उत्सर्जन और अवशोषण के बीच एक संतुलन होना चाहिए और उसमें वनों का ही सबसे बड़ा योगदान है, लेकिन दुनिया के बड़े देश इस संतुलन को कायम करने के लिए पूरे मन से आगे नहीं आ रहे हैैं। पोलैैंड में मौटे तौर पर यूरोपीय देशों, कनाडा, न्यूजीलैंड और अन्य विकासशील देशों ने फिर एक बार उस संकल्प को दोहराया जिसमें दुनिया के तापमान की बढोतरी को थामना है। इस सम्मेलन में वाहनों की संख्या और कोयले की खपत पर नियंत्रण भी चर्चा का विषय रहा, क्योंकि जहां विकसित देशों में कारों और अन्य वाहनों की संख्या बढ़ रही है वहीं विकासशील देश कोयले का इस्तेमाल कर रहे हैैं।

भले ही पर्यावरण पर आयोजित अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन संकल्पों के साथ समाप्त होते हों, लेकिन उन पर पालन करने वाले देश मुठ्ठी भर ही होते हैं। इस मामले में जर्मनी, न्यूजीलैंड जैसे देशों को तो सराहा जा सकता है, लेकिन यह चिंताजनक है कि कहीं अधिक समर्थ देश पर्यावरण को बचाने के उपायों के प्रति प्रतिबद्धता जताने से पीछे हट रहे हैैं। अमेरिका का रवैया पर्यावरण संरक्षण के लिए उठाए गए सामूहिक प्रयासों के लिए एक बड़ा झटका है। क्या इससे बड़ी विडंबना और कोई हो सकती है कि अमेरिका और ब्राजील जलवायु परिवर्तन की थ्योरी को ही सिरे से नकार रहे हैं। चूंकि अमेरिका दुनिया की आर्थिक गतिविधियों का केंद्र है इसलिए उसका व्यवहार कार्बन उत्सर्जन को कम करने की कोशिशों को धक्का पहुंचाने वाला है।

पोलैैंड सम्मेलन के बाद यह जरूरी है कि हर देश अपनी पर्यावरण संबंधी बैलेंस शीट बनाए और यह आकलन करे कि आर्थिकी और पारिस्थितिकी कैसे संतुलित की जा सकती है? दोनों तरह के प्रयासों को प्राथमिकता देकर ही यह संतुलन संभव हैं। दुर्भाग्य यह है कि जीडीपी ही सब देशों की आर्थिक प्रगति के रूप में देखी जाती है। दुनिया में कोई भी देश ऐसा नहीं जो पारिस्थितिकी के आंकड़ों को आर्थिकी के समानांतर खड़ा करता हो। ऐसे में सकल पर्यावरण उत्पाद यानी जीईपी का महत्व बढ़ जाता है जो आर्थिकी के सापेक्ष प्राकृतिक उत्पादों और पारिस्थितिकी को समानांतर रूप से पेश करे। दरअसल जिस तरह बेहतर जीडीपी देश की आर्थिकी का दम भरती है उसी तरह जीईपी प्रकृति एवं उसके मौलिक संसाधनों का विश्लेषण कर सकती है।

पोलैैंड में दुनिया के करीब दो सौ देशों ने भले ही वैश्विक तापमान वृद्धि को दो डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने के लिए पेरिस समझौते के लक्ष्यों को हासिल करने को लेकर हामी भरी हो, लेकिन इस लक्ष्य को पाना आसान नहीं लग रहा। ऐसे में भारत जैसे देशों के सामने इसके अलावा और कोई उपाय नहीं कि वह अपने स्तर पर सभी आवश्यक कदम उठाए। इसमें सफलता तब मिलेगी जब आम लोग पर्यावरण संरक्षण के प्रति अपनी जिम्मेदारी समझेंगे। हम यह समझें कि अपने घर, गांव, शहर और देश की बेहतर पारिस्थितिकी को बचाना हमारा काम है, क्योंकि सवाल हमारे जीवन का है जो जंगल, हवा, मिट्टी और पानी से जुड़ा है।

[ लेखक पर्यावरण मामलों के विशेषज्ञ हैैं ]