राजीव सचान। यह तो तय है कि भाजपा ने लोकसभा चुनाव में अपने अपेक्षाकृत कमजोर प्रदर्शन के कारणों की समीक्षा करनी शुरू कर दी होगी, लेकिन यह कहना कठिन है कि वह इन कारणों की तह तक जाकर उनका निवारण भी कर सकेगी, क्योंकि ऐसा तब संभव हो पाता है, जब गलतियों को स्वीकार करने के साथ ही उनके लिए जिम्मेदार लोगों को जवाबदेह बनाने का काम किया जाता है। फिलहाल भाजपा के सामने चुनौती यह नहीं है कि मोदी सरकार के स्थायित्व को मजबूती कैसे दी जाए? उसके सामने बड़ी चुनौती आगामी विधानसभा चुनाव हैं।

यदि भाजपा महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड और फिर उसके बाद अन्य राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों में बेहतर प्रदर्शन नहीं कर पाती तो इससे एक तो जनता के बीच यह संदेश जाएगा कि उसका प्रभाव कम होता जा रहा है और दूसरे, उसके नेताओं एवं कार्यकर्ताओं का मनोबल भी और गिरेगा। ऐसे में विपक्ष को यही संदेश जाएगा कि आगामी आम चुनावों में भाजपा को सत्ता से बाहर किया जा सकता है। यह स्थिति बनेगी या नहीं, इस बारे में अभी कुछ नहीं कहा जा सकता, क्योंकि राजनीति में एक सप्ताह भी लंबा समय होता है।

इसकी चर्चा तो खूब हो गई कि भाजपा के कमजोर प्रदर्शन का एक बड़ा कारण उत्तर प्रदेश समेत कुछ और राज्यों में खराब प्रत्याशियों का चयन और विपक्ष की ओर से बनाए गए नैरेटिव की काट न कर पाना रहा, लेकिन इस पर भी चर्चा होनी चाहिए कि भाजपा के कार्यकर्ता उसके सबसे मजबूत समझे जाने वाले गढ़ उत्तर प्रदेश में भी हताश-निराश क्यों थे? पार्टी नेतृत्व के लिए इसकी तह तक जाना आवश्यक है, क्योंकि भाजपा एक कैडर आधारित दल है और ऐसे दलों के उत्थान-पतन में नेताओं-कार्यकर्ताओं के मनोबल की एक बड़ी भूमिका होती है।

किसी दल के नेता-कार्यकर्ता तब निराश होते हैं, जब अपनी सरकार होते हुए भी उनकी सुनवाई नहीं होती और यहां तक कि उनके सही काम भी नहीं हो पाते। ऐसी स्थिति कई कारणों से बनती है और मूलतः तब बनती है, जब सरकार नौकरशाही पर कुछ ज्यादा ही निर्भर हो जाती है। नौकरशाही पर निर्भरता का दुष्परिणाम यह होता है कि विधायकों, सांसदों और यहां तक कि मंत्रियों को भी अपने कार्यकर्ताओं और समर्थकों के जायज काम कराने में मुश्किल पेश आती है।

जब नौकरशाहों को यह आभास हो जाता है कि उन्हें सत्तारूढ़ दल के प्रतिनिधियों को महत्व नहीं देना तो फिर वे विधायकों, सांसदों और मंत्रियों तक को भाव देना बंद कर देते हैं। इसके चलते इन जनप्रतिनिधियों के समर्थकों को भी यह पता चल जाता है कि नेताजी की तो अपनी ही सरकार में नहीं चलती और यहीं से उनकी निराशा और साथ ही सरकार एवं पार्टी नेतृत्व से मोहभंग का सिलसिला शुरू हो जाता है।

जब कोई सरकार नौकरशाही के भरोसे ज्यादा रहती है तो फिर नौकरशाह मनमानी करने लग जाते हैं। स्थिति तब और बिगड़ जाती है, जब इसकी कोई पूछ-परख नहीं होती कि कहीं नौकरशाही बेलगाम होकर मनमानी तो नहीं कर रही है? इसके चलते सरकार जमीनी हकीकत से कट जाती है। यदि पार्टी कार्यकर्ता जमीनी हकीकत के बारे में फीडबैक देना भी चाहें तो सरकार और संगठन में कोई फीडबैक लेने वाला नहीं होता।

नरेन्द्र मोदी और अमित शाह वाली भाजपा के बारे में यह कोई नई-अनोखी बात नहीं कि संगठन में वही होता है, जो सरकार चाहती है। इसमें संदेह है कि टिकट वितरण में संगठन की कोई खास भूमिका रही होगी। नौकरशाही पर अधिक भरोसा भाजपा की अधिकांश सरकारों की एक पुरानी समस्या रही है। इस समस्या की चपेट में केंद्रीय सत्ता भी है।

शासन संचालन नौकरशाहों के बिना नहीं हो सकता, लेकिन इसका भी कोई मतलब नहीं कि नौकरशाह तो सेवा विस्तार पा जाएं, सेवानिवृत्ति बाद महत्वपूर्ण पदों पर आसीन हो जाएं अथवा निकट संबंधियों को चुनाव लड़ाने में समर्थ हो जाएं, लेकिन पार्टी नेताओं-कार्यकर्ताओं की निगमों, आयोगों आदि में समय रहते नियुक्तियां न होने पाएं।

इस लोकसभा चुनाव में भाजपा से एक गलती यह भी हुई कि उसने सामाजिक इंजीनियरिंग के जरिये जिन वर्गों को खुद से जोड़ा था, उनकी अधिक परवाह नहीं की और यह मानती रही कि वे पहले की तरह उसके साथ बने रहेंगे, लेकिन कई कारणों से ऐसा नहीं हुआ। सरकारी योजनाओं के जरिये लाभार्थी वर्ग के रूप में भाजपा का जो एक नया वोट बैंक तैयार हुआ था, उसमें सेंध लग गई और पार्टी का परंपरागत वोट बैंक भी उससे छिटक गया। किसी भी दल को यह मानकर नहीं चलना चाहिए कि जो मतदाता समूह उससे जुड़ गया है, वह उससे आगे भी जुड़ा रहेगा।

इस मामले में तो मुस्लिम वोट बैंक भी किसी दल का सगा नहीं। बिहार में पिछले विधानसभा चुनाव में मुस्लिम बहुल किशनगंज क्षेत्र से असदुद्दीन ओवैसी के पांच विधायक इसलिए जीत गए थे, क्योंकि वहां के मुसलमानों ने अपने लोगों को जिताना बेहतर समझा। इसी तरह 2009 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में मुस्लिम मतदाता सपा का साथ छोड़कर कांग्रेस के पाले में चले गए थे।

इसके चलते कांग्रेस अप्रत्याशित रूप से लोकसभा की 21 सीटें जीतने में सफल रही थी। तब मुस्लिम मतदाता सपा से इसलिए बिदक गया था, क्योंकि मुलायम सिंह ने भाजपा नेता कल्याण सिंह को अपने दल में शामिल कर लिया था। यह भी किसी से छिपा नहीं कि जब मायावती ने दलित-ब्राह्मण एका के तहत हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा विष्णु महेश है.. का नारा दिया था तो ब्राह्मण मतदाता बसपा के साथ हो गए थे। कुल मिलाकर भाजपा को विपक्ष का मुकाबला करने के लिए अपनी कार्यशैली बदलनी होगी, जो सरकार के संचालन में भी दिखे और संगठन में भी।

(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडिटर हैं)