केसी त्यागी : वेश बदलकर फरार हुए खालिस्तान समर्थक और अलगाववादी अमृतपाल सिंह की वजह से पंजाब एक फिर सुर्खियों में है। लगभग 40 वर्ष पूर्व पंजाब के बिगड़े हालात के परिणामस्वरूप एक दुर्भाग्यपूर्ण घटनाक्रम के तहत तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को जान गंवानी पड़ी थी और देश के कुछ हिस्से एक धार्मिक उन्माद तथा सांप्रदायिक हिंसा का शिकार बने। हजारों जानें गईं और करोड़ों रुपये की संपत्ति का नुकसान हुआ।

भिंडरांवाला की तर्ज पर अमृतपाल सिंह उसी वैमनस्य के साथ राज्य को चुनौती देता दिख रहा था। बलिदानी सरदार भगत सिंह ने वर्ष 1928 में एक लेख द्वारा इस प्रकार की प्रवृत्तियों के विरुद्ध हमें सचेत किया था। लेख में उन्होंने लिखा था, 'अब तो एक पंथ का होना ही दूसरे पंथ का कट्टर शत्रु होना है। यदि इस बात का यकीन न हो तो लाहौर के ताजा दंगें ही देख लें। यह मारकाट इसलिए नहीं की गई कि फलां आदमी दोषी है, वरन इसलिए कि फलां आदमी हिंदू है या सिख या मुसलमान। ऐसी स्थिति में हिंदुस्तान का भविष्य अंधकारमय नजर आता है।' ठीक 95 वर्ष पूर्व की गई यह व्याख्या आज के संदर्भ में भी उचित ठहरती है। आज पुन: उसी संकल्प को दोहराने का दिन है, जिसके लिए 23 वर्ष की अल्पायु में ही सरदार भगत सिंह ने बलिदान दिया।

सरदार भगत सिंह एवं उनके साथियों-राजगुरु और सुखदेव के बलिदान को लगभग 90 वर्ष पूरे हो चुके हैं, लेकिन भारतीय जनमानस को उनके पराक्रम की गाथाएं आज भी रोमांचित करती हैं। एक बार मुझे सरदार भगत सिंह की माताजी विद्यावती कौर और बहन प्रकाशवती कौर से बातचीत करने का सौभाग्य मिला था। विद्यावती कौर ने गर्व के साथ बताया कि 13 अप्रैल, 1919 की जलियांवाला बाग की घटना किस प्रकार ‘वीर’ (सरदार भगत सिंह) के जीवन को क्रांतिकारी बना गई।

दरअसल 1919 में स्वतंत्रता सेनानियों से निपटने के लिए अंग्रेजों ने एक काला कानून लागू किया, जिसे रौलेट एक्ट के नाम से जाना जाता है। अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में पंजाबी एवं सिख समाज वैशाखी पर्व को बड़े उत्साह से मनाता है। उस दिन भी सिख समाज के लोग इस उत्सव को मनाने के साथ उस एक्ट का विरोध करने के लिए जुटे थे। ब्रिटिश सरकार ने इसे संगठित विद्रोह की संज्ञा देकर लोगों को गोलियों से भून दिया।

सरदार भगत सिंह उस समय लाहौर में पढ़ते थे। वह लाहौर से अमृतसर पहुंच कर वहां से लहू से रंगी हुई मिट्टी को एकत्रित कर लाए। भगत सिंह रोजाना उस पर फूल चढ़ा कर बलिदानियों को अपनी श्रद्धांजलि देते थे। विद्यावती कौर के मुताबिक भगत सिंह पर शादी के लिए परिवार वालों ने दबाव बनाना शुरू कर दिया तो वह एक दिन पत्र लिखकर घर छोड़ गए कि उनका जीवन ‘देश के लिए समर्पित है।’ फिर तो भारत को आजाद कराने के लिए वह क्रांति की मशाल लेकर निकल पड़े। अंग्रेजों ने अपनी सत्ता की जड़ें हिलती देख भयभीत होकर उन्हें लाहौर सेंट्रल जेल में बंद कर दिया। यह वह दौर था जब गांधी-इर्विन पैक्ट सुर्खियों में छाया हुआ था।

जब ब्रिटिश सरकार ने भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी की सजा सुनाई तो समूचा देश आंदोलित हो गया। भगत सिंह के माता-पिता ने उन्हें जीवनदान देने के लिए गुहार लगाई। भगत सिंह को जब यह बात पता चली तो उन्होंने पहली बार अपने माता-पिता के प्रति नाराजगी व्यक्त की। उन्होंने कहा कि वह सार्वजनिक तौर पर भी माता-पिता से संबंध नहीं होने की घोषणा करने से परहेज नहीं करेंगे।

फांसी से एक दिन पूर्व 22 मार्च, 1931 को भगत सिंह ने अपना अंतिम पत्र लिखा कि ‘जीने की इच्छा मुझमें भी है। मैं इसे छिपाना नहीं चाहता, लेकिन मैं कैद होकर या पाबंद होकर जीना नहीं चाहता। मेरा नाम क्रांति का प्रतीक बन चुका है। क्रांतिकारी दल के आदर्शों और कुर्बानियों ने मुझे बहुत ऊंचा उठा दिया है। इतना ऊंचा कि जीवित रहने की स्थिति में इससे ऊंचा हरगिज नहीं हो सकता। आज मेरी कमजोरियां जनता के सामने नहीं हैं। मैं अगर फांसी से बच गया तो वह जाहिर हो जाएंगी और क्रांति का प्रतीक चिह्न मद्धम पड़ जाएगा। फांसी चढ़ने के बाद हिंदुस्तानी माताएं अपने बच्चों के लिए भगत सिंह बनने की आरजू करेंगी। अब तो बड़ी बेताबी से अंतिम परीक्षा का इंतजार है। कामना है यह और नजदीक हो जाए।’ इससे प्रतीत होता है वह अपने लक्ष्य के प्रति कितने समर्पित थे?

वर्ष 1911 से पूर्व कांग्रेस में स्वराज्य प्राप्ति की इच्छा अवश्य थी, लेकिन व्यापक जन उभार के अभाव में वह कोई ठोस कार्यक्रम नहीं बन पा रही थी। 23 मार्च, 1931 को इन वीरों की आहुति के बाद समूचे देश की चेतना में एक नई जागृति आई। भावनाओं का उफान चरम पर पहुंच गया। परिणामस्वरूप दबाव में आई कांग्रेस को अपने कराची अधिवेशन में संपूर्ण स्वराज्य का प्रस्ताव पास करना पड़ा। लाहौर में जिस स्थान पर भगत सिंह को फांसी दी गई थी, आज वहां उनकी मूर्ति लगी है, जहां दोनों मुल्कों के क्रांति प्रिय फूलमाला चढ़ाकर स्वयं को गौरवान्वित महसूस करते हैं। आज सभी विचारों के दल एवं व्यक्ति उन्हें अपने-अपने तरीके से स्मरण कर रहे हैं, लेकिन उनका कथन अब भी गूंज रहा है कि ‘हमारा लक्ष्य यह नहीं है कि गोरे शासकों का स्थान काले शासक लें और व्यवस्था जस की तस चलती रहे। जब तक व्यक्ति का व्यक्ति द्वारा, वर्ग का वर्ग द्वारा और राष्ट्र का राष्ट्र द्वारा शोषण समाप्त नहीं होगा हमारा संकल्प अधूरा रहेगा।’

(लेखक पूर्व सांसद हैं)