डॉ. मोनिका शर्मा। Environmental Protection Responsibilities बीते दिनों अभिनेत्री कंगना रनोट ने एक साधारण सूती साड़ी पहनकर सार्वजनिक उपस्थिति दर्ज कराई। यह सहज तस्वीर वायरल होने पर कंगना ने कहा कि जरूरत से ज्यादा संसाधनों का उपयोग करने वाली आज की पीढ़ी एक आम साड़ी पर गौर कर रही है। कंगना ने फैशन और फिल्मी दुनिया को संबोधित करते हुए कहा कि हम एक पीढ़ी के रूप में संसाधनों का जरूरत से ज्यादा उपभोग कर रहे हैं। हमें विचारशील होना होगा। लोग हमारे आम परिधानों पर भी गौर करते हैं। इन चीजों को प्रोत्साहित किए जाने की दरकार है। हम ऐसे उत्पाद तब लेना पसंद करते हैं, जब वे फैंसी स्टोर में आते हैं, लेकिन किसानों, बुनकरों और शिल्पकारों को नहीं देखते, जो इन चीजों को तैयार करते हैं।

कावेरी कॉलिंग कैंपेन

कुछ समय पहले कावेरी कॉलिंग कैंपेन से जुड़ने के अवसर पर भी कंगना ने कहा था कि पर्यावरण को फैशन और ग्लैमर उद्योग से सबसे ज्यादा नुकसान पहुंच रहा है। जो कपड़े और जूते मॉडल पहनते हैं उनमें से बहुत आगे काम में नहीं लिए जाते हैं। उन्हें जला दिया जाता है जिससे बहुत ज्यादा कार्बन उत्सर्जन होता है। इसीलिए इस क्षेत्र से जुड़े लोगों पर बेहतर दिखने का दबाव कम होना चाहिए। इससे न केवल सिंथेटिक और चमड़े से बने कपड़ों का प्रयोग कम होगा, बल्कि हाथ से बुने कपड़ों को बढ़ावा भी मिलेगा।

एक वैश्विक चिंता

यह एक वैश्विक चिंता है कि हम संसाधनों का जरूरत से ज्यादा उपभोग कर रहे हैं। बीते कुछ वर्षो में जीवनशैली में आए बदलावों से प्राकृतिक संसाधन ही नहीं रीते, बल्कि हमारी सोच और समझ भी रीत गई है। सजावटी-दिखावटी सी आज की दुनिया में बुनकरों और किसानों की मेहनत की अनदेखी ही नहीं, जलवायु परिवर्तन का मसला भी हमारी जीवनशैली से ही जुड़ा है। ऐसी बातों और हालातों का हमारी सोच और सजगता से ही वास्ता है। जल संसाधनों की कमी की बात हो या पेड़ों की अंधाधुंध कटाई की, जरूरतों पर इच्छाएं भारी पड़ रही हैं। यही इच्छाएं प्रकृति के लिए भी बोझ बन गई हैं। अंतरराष्ट्रीय संस्था ग्लोबल फुट प्रिंट की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक इस साल जुलाई के महीने तक हमने 2019 के लिए धरती के समस्त संसाधनों का इस्तेमाल कर लिया है। यानी साल भर के लिए तय संसाधनों को आधे साल में ही खत्म कर दिया है। रिपोर्ट यह भी बताती है कि मानव जाति प्राकृतिक संसाधनों का 1.75 गुना दोहन कर रही है।

प्राकृतिक संसाधनों का निर्माण

चिंतनीय है कि प्रकृति जिस अनुपात में प्राकृतिक संसाधनों का निर्माण करती है, उसके अनुपात में हम संसाधनों का दोहन बहुत तेजी से कर रहे हैं। इस अंधाधुंध दोहन के चलते हम आज 1.7 पृथ्वी जितना संसाधन इस्तेमाल कर रहे हैं जो करीब 10 साल बाद बढ़कर दो पृथ्वियों जितना हो जाएगा। कुल मिलाकर भोगवादी संस्कृति वाली इंसानी आदतें कुदरत को तो कुपित करने का काम कर ही रही हैं, तेजी से हो रहा संसाधनों का क्षरण खुद मानवीय जीवन के लिए भी संकट पैदा कर रहा है। जलवायु परिवर्तन के कारण स्वास्थ्य से जुड़े खतरे भी तेजी से बढ़ रहे हैं।

स्थितियां बेहद चिंतनीय

भारत में भी संसाधनों के दोहन की स्थितियां बेहद चिंतनीय हैं। अगर इसी गति से प्राकृतिक संसाधनों का उपभोग जारी रहा तो हमें अपनी मांग पूरी करने के लिए 2.5 देशों जितने संसाधनों की आवश्यकता होगी। असीमित मानवीय जरूरतों और गतिविधियों ने धरती, जल और वायु सभी को प्रदूषित कर दिया है। जहां पेड़-पौधों के पूजन की परंपरा रही है वहां पहाड़ से लेकर रेगिस्तान तक देश के हर हिस्से में प्राकृतिक ससाधनों का जमकर दोहन हो रहा है। साफ है कि पर्यावरण सहेजने के लिए जागरूकता और जिम्मेदारी का भाव रोजमर्रा की आदतों का हिस्सा होने जरूरी हैं। महात्मा गांधी के मुताबिक पृथ्वी सभी मनुष्यों की जरूरतें पूरी करने के लिए पर्याप्त संसाधन प्रदान करती है, लेकिन लालच पूरा करने के लिए नहीं।

आई लिविंग प्लैनेट रिपोर्ट

वन्यजीवन पर मानवीय गतिविधियों के भयानक असर से जुड़ी बीते साल आई लिविंग प्लैनेट रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 1970 के बाद मानवीय गतिविधियों के कारण जीव-जंतुओं की कुल संख्या 60 प्रतिशत कम हुई है। इतना ही नहीं कार्बन, खाद्य पदार्थ, जंगल, जैव विविधता और जल जैसे धरती के प्राकृतिक संसाधनों का दोहन भी विचारणीय है। अगर पेड़ों के घटने की रफ्तार इसी गति से जारी रही तो वर्ष 2050 तक विश्व मानचित्र से भारत के क्षेत्रफल के बराबर जंगल समाप्त हो जाएंगे। ऐसे में लाखों के परिधान पहन चर्चा में आने के बजाय आम पोशाक पहनकर इस संवेदनशील विषय पर सार्थक बात कहने का कंगना का यह अंदाज गौर करने लायक है। क्योंकि सहज और सरल रहन-सहन अपनाकर ही धरती के संसाधनों को बचाया जा सकता है।

पर्यावरण के बिगड़ते हालात

विडंबना ही है कि तपती धरती, बढ़ते जल संकट, खत्म होते जंगल और हवा में घुलते प्रदूषण के जहर से शिकायत तो सभी को है, पर पर्यावरण के बिगड़ते हालातों के प्रति जिम्मेदारी समझने की फुरसत किसी के पास नहीं। जबकि कुदरत के बिगड़ते मिजाज और रीत रहे संसाधनों का मुद्दा समग्र समुदाय से जुड़ा है जिसे उचित योजनाओं के साथ-साथ धरती पर उपलब्ध संसाधनों का संयमित उपभोग और सही जीवनशैली ही प्रभावी रूप से संबोधित कर सकती है। ऐसे में इस जिम्मेदारी का सबसे पहला पड़ाव प्राकृतिक संसाधनों के दोहन को रोकने का ही है।

मनोवैज्ञानिक समस्या

दुखद है कि हम प्रकृति से लेना तो सीख गए हैं, पर उसे कुछ भी लौटाने की समझ ही गुम है। नि:संदेह प्रकृति मनुष्य की आवश्यकताओं की पूर्ति का सामर्थ्‍य रखती है, पर इंसान तो सब कुछ छीनने में लगा है। यह व्यवहार प्रकृति के बिगड़ते संतुलन के लिए ही नहीं, व्यक्तिगत जीवन के लिए भी बड़ी चिंता का विषय बन गया है। सब कुछ होकर भी कुछ कमी सी लगने की आदत आज एक बड़ी मनोवैज्ञानिक समस्या है, जिसके चलते जिंदगी के प्रति एक निराशा की स्थिति पैदा हो रही है। ऐसे में सहज जीवनशैली अपनाकर हम मन का सुकून ही नहीं, प्रकृति के फीके पड़ रहे रंगों को भी सहेज सकते हैं।

(लेखक सामाजिक मामलों की जानकार हैं)

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