असीम अरुण। आज बाबा साहब भीमराव आंबेडकर की जयंती मनाते समय हमारे पास सामाजिक न्याय की चुनौतियों के विषय में सोचने और नई अर्थव्यवस्था एवं सामाजिक परिवर्तन की बदली स्थिति में आगे के विकल्प तलाशने के बारे में सोचने का भी अवसर है। आंबेडकर जी द्वारा संविधान में सामाजिक न्याय का जो खाका बनाया गया, वह उस समय की सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक परिस्थितियों पर आधारित था। उस समय सामाजिक स्तर पर भेदभाव की स्थिति यह थी कि जाति के आधार अस्पृश्यता और तिरस्कार लोगों के सामान्य व्यवहार में शामिल था। अधिकतर शिक्षा सरकारी क्षेत्र में थी और आर्थिक अवसर भी सरकारी नौकरियों में अधिक थे। इनमें वंचित तबकों को भागीदारी दिलाने के लिए संविधान में आरक्षण की व्यवस्था की गई, जिसका लाभ तो मिला, पर असमानता पूरी तरह दूर नहीं हो सकी, क्योंकि आरक्षण आधारित अवसरों का लाभ सामाजिक-शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के सभी लोगों को सामान रूप से नहीं मिल सका। प्रारंभ में सामाजिक न्याय के लाभ की पात्र केवल अनुसूचित जातियां और जनजातियां थीं। बाद में अन्य पिछड़ी जातियों, महिलाओं और सामान्य वर्ग के आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों को भी आरक्षण के दायरे मे लाया गया। अब ट्रांस-जेंडर के कल्याण के लिए भी कदम उठाए जा रहे हैं।

भारतीय गणतंत्र के 75वें वर्ष में बाबा साहब के सिद्धांतों को संजोते हुए आगे का रास्ता तय करने की जरूरत है। इस पर शोध की आवश्यकता है कि सामाजिक भेदभाव की वर्तमान स्थिति क्या है? इसका आकलन करने की भी आवश्यकता है कि क्या किरायेदार तय करते समय भेदभाव होता है? क्या महिलाओं को उसी काम के लिए बराबर वेतन मिलता है, जो काम पुरुष करते हैं? ट्रांस-जेंडर लोग यह तो महसूस नहीं करते कि बगल में बैठने वाले लोग उनसे हिचकते-कतराते हैं? यह देखने का भी अवसर है कि अलग दिखने या भिन्न कपड़े पहनने वालों को स्वीकारा जाता है या नहीं? जिस रूप में बाबा साहब ने अस्पृश्यता का अनुभव किया था, वह तो काफी हद तक दूर हो चुकी है, लेकिन सीवर में घुसकर सफाई करने जैसी कुव्यवस्था आज भी मौजूद है और इसे खत्म करना एक चुनौती बना हुई है। आज यह भी जानने-समझने का समय है कि हम कितने समावेशी बन सके हैं? रोटी-बेटी के रिश्ते बढ़ाने में हम कहां तक पहुंचे हैं? एक-दूसरे की विविधता स्वीकारने और बराबरी का स्थान देने में हम कितने सफल हुए और इस दिशा में आगे कैसे बढ़ेंगे?

वर्तमान समय कुछ रोचक परिवर्तनों का अनुसरण करने और उनका अध्ययन करने का है। कई देशों में ‘एफरमेटिव एक्शन’ यानी सकारात्मक पहल के जरिये विविधता और प्रतिनिधित्व को बढ़ावा दिया जा रहा है। इसी कारण हमें अमेरिका के विभिन्न संस्थानों और यहां तक कि नासा के अंतरिक्ष यात्रियों के दल में महिलाएं या अश्वेत दिखते हैं, क्योंकि उन्हें प्रतिनिधित्व देने की विस्तृत नीति है। यह नीति अन्य पश्चिमी देशों में भी है। इन देशों में शिक्षण संस्थान और अन्य प्रतिष्ठानों में भी अन्य वर्गों को प्रतिनिधित्व दिया जाता है। कुछ इसी राह पर चलते हुए कुछ भारतीय कंपनियों ने भी वंचित तबकों को प्रतिनिधित्व देने के लिए सकारात्मक नीतियां बनाई हैं। टाटा की अनेक कंपनियों ने नीति बना कर अनुसूचित जाति, जनजाति के लोगों से कच्चा माल खरीदने और शिक्षा के विशेष प्रबंध कर अवसर की समानता बनाने की कोशिश की है। अब बजाज, महिंद्रा जैसी कंपनियां भी इसी राह पर बढ़ रही हैं। देश के अनेक महंगे प्राइवेट स्कूल अपनी सामाजिक जिम्मेदारी निभाने के लिए जरूरतमंद बच्चों के लिए शिक्षा का प्रबंध कर रहे हैं। कई तो उन्हें ठीक वही शिक्षा और सुविधाएं दे रहे हैं, जो मोटी फीस देने वाले छात्रों को मिल रही हैं। ऐसे अनेक प्रयास शिक्षा अधिकार कानून के अंतर्गत हमारे देश में हो रहे हैं।

केंद्र सरकार के साथ उत्तर प्रदेश की सरकार भी सामाजिक न्याय को नई ऊंचाइयों पर ले जाने के लिए दृढ़ संकल्पित है। पिछले वर्षों में डिजिटल तकनीक, आधार कार्ड आदि का प्रयोग कर पेंशन, छात्रवृत्ति जैसी योजनाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार को खत्म किया गया है। अब इसे और आगे बढ़ाते हुए न सिर्फ भ्रष्टाचार की आशंकाओं को समाप्त किया जाएगा, बल्कि तकनीक का बेहतर प्रयोग कर लाभार्थियों को आसान और पारदर्शी व्यवस्था दी जाएगी। योगी सरकार द्वारा संचालित कक्षा छह से 12 तक के आश्रम पद्धति के आवासीय स्कूलों को सशक्त किया गया है, जिसमें निजी क्षेत्र की कंपनियों से सहयोग और पार्टनरशिप विकसित की गई है। प्रतियोगी परीक्षाओं में आंबेडकर जी की कल्पना के अनुसार अवसर की समानता देने के लिए योगी सरकार द्वारा अभ्युदय योजना शुरू की गई है। इसमें आनलाइन शिक्षा और क्लास-रूम शिक्षा का एक हाइब्रिड माडल बनाया गया है, जिसमें हर छात्र को अच्छी से अच्छी शिक्षा उपलब्ध कराई जा रही है, ताकि प्रतियोगी परीक्षाओं में कोचिंग की भूमिका को कम किया जा सके और बाबा साहब के विचारों के अनुरूप अवसर की समानता सचमुच बनाई जा सके।

गणतंत्र की अब तक की यात्रा में बहुत कुछ बदला है और अभी काफी कुछ हमें मिलकर बदलना है। सरकारें विकास की योजनाएं बनाती रहेंगी, पर समाज में एक-दूसरे की मानवीय स्वीकार्यता विकसित करने की भी जरूरत है। इसमें साहित्य, सिनेमा, मीडिया, इंटरनेट की भी भूमिका है। मुझे विश्वास है कि आने वाले समय में ऐसी व्यवस्था बनेगी, जिसमें समाज और सरकार की पार्टनरशिप होगी और बाबा साहब की परिकल्पना के अनुसार हम अवसर की समानता वाले एक समरस एवं विकसित भारत की ओर तेजी से बढ़ेंगे।

(लेखक पूर्व आइपीएस और उप्र सरकार में समाज कल्याण, अनुसूचित जाति एवं जनजाति कल्याण मंत्री हैं)