नई दिल्ली [जागरण स्पेशल]। राजनीति में बढ़ते अपराधीकरण पर हमारे आपके सब्र का बांध भले न टूटे, लेकिन सुप्रीम कोर्ट का धैर्य जवाब दे गया है। हाल ही में उसने सभी राजनीतिक दलों को निर्देश दिया कि विधानसभाओं और लोकसभा चुनावों में हर उम्मीदवार के आपराधिक इतिहास का विवरण सार्वजनिक करें। साथ ही चयन के 48 घंटों के अंदर वे बताएं कि किसी साफ-सुथरी छवि वाले उम्मीदवार की जगह उन्होंने दागी का वरण क्यों किया।

शीर्ष अदालत का गुस्सा गैरजायज नहीं है। हाल ही दिल्ली विधानसभा में चुनकर आए 70 नए विधायकों में 37 (53 फीसद) पर गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं। 2018 में सुप्रीम कोर्ट में सरकार ने एक हलफनामा पेश करके बताया कि देश भर में कुल 1765 सांसद या विधायक हैं जिनके ऊपर विभिन्न अदालतों में 3045 आपराधिक मामले दर्ज हैं। करीब हर माननीय पर दो मामले का औसत गिरता है। 

दरअसल राजनीति को ‘हींग लगे न फिटकरी, रंग आए चोखा’समझने वाले लोग राजनीति में तेजी से प्रवेश कर रहे हैं। बिना निवेश और न्यूनतम जोखिम के ज्यादा रिटर्न देने वाले पेशे के तौर पर समझ रखने वाले ये तथाकथित माननीय जनता का भला कैसे कर सकते हैं। इनके मुकदमों के त्वरित निपटान की बहस के बीच जरूरी यह है कि ऐसे लोगों को राजनीति में आने से ही रोका जाए।

जिताऊ उम्मीदवार के लालच में इन्हें टिकट मिल जाता है, और मतदाता अपनी प्रिय पार्टी के नाम पर आंखें मूंद लेता है। वहीं मतदाता बाद में नाक-भौं सिकोड़ते हैं जब उन्हें पता चलता है कि उनके कल्याण के लिए आए धन को सांसद-विधायक महोदय गड़प कर गए। ऐसे हालात से बचने के लिए और देश में साफ-सुथरी राजनीति को बढ़ावा देने के लिए कानून-कायदों के साथ मतदाता बहुत बड़ा हथियार है। उसे चेतना ही होगा।

बना निवेश झमाझम रिटर्न

जर्मनी के समाजशास्त्री मैक्स वेबर ने अपने विश्लेषण ‘राजनीति एक पेशा’में कहा था कि, ‘राजनीति में आने की दो वजहें हैं : या तो लोग राजनीति के लिए जीते है, या फिर राजनीति पर जीते हैं। सवाल उठता है कि ऐसे क्या फायदे हैं जिनकी वजह से अपराध में डूबे लोग राजनीति में छलांग लगाते हैं। अपनी किताब व्हेन क्राइम पेज : मनी एंड मसल इन इंडियन पॉलिटिक्स में मिलन वैष्णव ने इन सवालों के जवाब दिए हैं। राजनीति आज ऐसा पेशा बनती जा रही है जिसमें लोगों को निवेश की जरूरत नहीं पड़ती और रिटर्न कई गुना ज्यादा हासिल होता है।

फूट डालो राज करो

आपराधिक छवि के लोग अपने फायदे के लिए समाज में मौजूद बंटवारे को और बढ़ाते हैं। वे रक्षात्मक अपराधीकरण के जरिए अपनी जाति या समुदाय के भाई-बंधुओं के मान-सम्मान की रक्षा करने का वादा करते हैं। उन्हें यह मर्म पता है कि रोजाना के इन मुद्दों का दीर्घकालिक उपाय कर देने से लोगों को उनकी जरूरत नहीं रहेगी।

अगर सरकारें लोगों को मूलभूत सुविधाएं प्रदान कर देंगी तो आपराधिक उम्मीदवार अपनी चमक खो देंगे। यह सारे बिंदु मतदाताओं को प्रभावित करते हैं, जिससे वे अपराधियों को चुनना पसंद करते हैं। इसे यह साफ हो जाता है कि अज्ञानी मतदाता जैसा कुछ नहीं होता। मतदाता ऐसे उम्मीदवारों को उनके आपराधिक रिकॉर्ड की वजह से ही चुनते हैं।

राजनीति और अपराध

आपराधिक पृष्ठभूमि वाले सांसद और विधायक को मतदाता सम्मानित क्यों करते हैं? सीधा सा जवाब यह है कि ऐसे लोगों को पार्टी जिताऊ मानती है। राजनीतिक पार्टियां आपराधिक उम्मीदवारों को मतदाताओं के सामने आने का मंच देती हैं। यह एक ऐसा बाजार है जहां जिसका जितना अच्छा नेटवर्क होता है उसे उतना फायदा मिलता है। पार्टियां और आपराधिक राजनेताओं के बीच मांग और आपूर्ति का समीकरण काम करता है।

एक दूसरे के हित साधने वाली सोच ने दिया प्रवृत्ति को बढ़ावा

1980 में तीन चीजें समानांतर रूप से चल रही थीं- राजनीति का विखंडन, गहराती प्रतिस्पर्धा और कांग्रेस का खत्म होता वर्चस्व। इनके चलते भारतीय राजनीति में खालीपन आया। अनिश्चितता के इस दौर में चुनावी प्रतिद्वंद्वता कई गुना बढ़ गई।

पार्टियों द्वारा काम पर रखे गए अपराधियों के मन में खुद सत्ता पर काबिज होने की इच्छा जगी। महंगे होते चुनाव के बीच अपराधियों द्वारा गलत तरीकों से कमाए गए अकूत धन के चलते पार्टियां उन्हें ऐसे उम्मीदवार के तौर पर पेश करती हैं जो चुनाव का खर्चा खुद वहन कर सकता है और पार्टी को कई तरीकों से आर्थिक मदद दे सकता है।

मतदाताओं की बारी

मतदाता क्यों ऐसे अपराधी उम्मीदवारों को अस्वीकार नहीं करते? दरअसल जहां कानून बेहद लचर हो और विखंडित समाज हो, वहां एक उम्मीदवार की आपराधिक पृष्ठभूमि अहम पूंजी मानी जाती है। ऐसे उम्मीदवार मतदाताओं का पुनर्वितरण, दादागिरी, सामाजिक बीमा और झगड़ों का निपटारा करके खुद की साख बनाते हैं। यह चारों माध्यम राज्य के विशेषाधिकार हैं और किसी अपराधी उम्मीदवार के ये गुण उसे विश्वसनीय बनाते हैं।