[प्रो. निरंजन कुमार]। लगातार संकीर्ण होती जा रही राजनीति ने सार्वजनिक बहस के स्तर को किस हद तक गिराने का काम किया है, इसका एक उदाहरण हाल में तब दिखने को मिला जब सिविल सेवा परीक्षा में सफल उम्मीदवारों के लिए सर्विसेज और कैडर के आवंटन में सुधारों के लिए प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा कार्मिक मंत्रालय को भेजा गया प्रस्ताव राजनीतिक विवाद में घिर गया। यह प्रस्ताव अभी एक सुझाव ही है और इसमें केवल यह कहा गया है कि कार्मिक मंत्रालय एवं अन्य संबंधित मंत्रालय और विशेषज्ञ इस पर विचार करें, लेकिन विचार, बहस और मंथन शुरू होने के पहले ही एक विवाद खड़ा कर दिया गया। विवाद से परिचित होने के पहले यह जान लेना आवश्यक है कि सरकारी सेवाओं में सर्वोच्च मानी जाने वाली आइएएस,आइपीएस, आइएफएस, आइआरएस आदि अन्य केंद्रीय सेवाओं के लिए सिविल सेवा परीक्षा एक साथ आयोजित होती है। इसमें तीन चरणों की परीक्षा होती है- प्रारंभिक एवं मुख्य परीक्षा और फिर साक्षात्कार।

अंतिम चयन मुख्य परीक्षा और साक्षात्कार के अंकों को जोड़कर किया जाता है। फिर सफल अभ्यर्थियों की मेरिट सूची निकली जाती है। इसके बाद अभ्यर्थी की मेरिट और उसकी वरीयता के अनुसार सेवाएं आवंटित की जाती हैं। आइएएस, आइपीएस आदि सेवा पाने वाले अभ्यर्थियों को कैडर या राज्यों का आवंटन भी मेरिट और उनकी वरीयता के अनुसार किया जाता है। हालांकि कैडर के लिए मेरिट से आवंटन हर राज्य के लिए निर्धारित संख्या की आधी सीटों के लिए ही होता है। शेष आधे आइएएस,आइपीएस अभ्यर्थियों को कैडर या राज्यों का आवंटन रोस्टर यानी एक चक्रीय पद्धति से किया जाता है।

सिविल सेवा परीक्षा द्वारा सर्विसेज और कैडर के आवंटन की एक सीमा यह है कि कुछेक सेवाओं को छोड़ दें तो अधिकांश अभ्यर्थियों को यह नहीं पता होता कि अमुक सेवा में कार्य की प्रकृति क्या होती है अथवा अमुक सेवा उसकी अभिरुचि और स्वभाव से मेल खाती है या नहीं? इसके अतिरिक्त सिर्फ लिखित परीक्षा और लगभग आधे घंटे के साक्षात्कार के आधार पर सर्विसेज और कैडर के निर्धारण की भी अपनी एक सीमा होती है। कई बार लिखित परीक्षा और साक्षात्कार में उम्मीदवार उतना अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाता जबकि व्यवहार में वह बहुत अच्छा परिणाम देता है। शायद इसी को ध्यान में रखकर पीएमओ ने कार्मिक और अन्य मंत्रालयों के पास यह सुझाव भेजा कि सेवाओं और राज्यों का आवंटन केवल सिविल सेवा परीक्षा के अंकों के आधार पर न हो। चयन के बाद सभी सफल अभ्यर्थियों के लिए प्रशिक्षण के आरंभ में तीन महीने का जो फाउंडेशन कोर्स होता है उसमें प्राप्त अंकों को भी जोड़ते हुए यह आवंटन किया जाए।

इस फाउंडेशन कोर्स में पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन, कानून, अर्थव्यवस्था, भारतीय समाज आदि से संबंधित अकादमिक घटकों के साथ-साथ विभिन्न पाठ्येत्तर क्रियाकलाप जैसे ग्रामीण क्षेत्रों का दौरा, सहकर्मियों के साथ व्यवहार आदि भी शामिल होता है, जो उनके भावी कर्तव्य के लिए आवश्यक है। फाउंडेशन कोर्स 400 अंकों का होता है, जबकि मुख्य परीक्षा 1750 और साक्षात्कार 275 अंकों का होता है। उक्त प्रस्ताव पर कुछ विचार-विमर्श होने के पहले ही कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने एक ट्वीट कर दिया कि सिविल सेवा परीक्षा के आधार पर बनी मेरिट लिस्ट में प्रधानमंत्री मोदी छेड़छाड़ कर आरआरएस की पसंद के अधिकारियों की नियुक्ति करना चाहते हैं। राहुल गांधी की यह समझ किसी की गलत सलाह पर आधारित जान पड़ती है। उन्हें यह समझना चाहिए कि

हर वर्ष जिन लगभग 700-800 अभ्यर्थियों का फाउंडेशन कोर्स हुआ करेगा वे वही होंगे जिनका चयन सिविल सेवा परीक्षा के आधार पर होगा। यह चयन ही अंतिम रहेगा, न कि मेरिट सूची। एक तरह से सुझाव बस यह है कि अंतिम मेरिट निर्धारित करने में फाउंडेशन कोर्स के परिणाम को भी शामिल किया जाए। यह समझ से परे है कि आखिर इससे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पसंद के अधिकारियों की नियुक्ति पिछले दरवाजे से कैसे हो जाएगी? राहुल गांधी को यह भी पता होना चाहिए कि इस तरह का प्रस्ताव पहली बार नहीं आया।

सबसे पहले सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक एवं शिक्षाविद डीएस कोठारी के नेतृत्व में गठित कोठारी समिति (1974-77) ने इसी तरह का सुझाव दिया था। फिर सिविल सेवा परीक्षा में सुधार के लिए गठित सतीशचंद्र समिति (1988-89) ने भी यह अनुशंसा की थी कि सर्विसेज और कैडर के आवंटन में मुख्य परीक्षा और साक्षात्कार के साथ-साथ फाउंडेशन कोर्स को भी आधार बनाया जाए। ये दोनों समितियां कांग्रेसी प्रधानमंत्रियों इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के समय बनी थीं। कुछ कारणों से उक्त समितियों के सुझाव लागू नहीं किए जा सके, पर अब समय आ गया है कि मौजूदा प्रस्ताव पर समग्रता से विचार हो ताकि बदलते हुए दौर में सही सेवा के लिए सही व्यक्ति चयनित हो सके। नि:संदेह इस प्रस्ताव को लेकर कुछ आशंकाएं भी हैं। बतौर उदाहरण यह कि प्रशिक्षकों और प्रशिक्षुओं में एक व्यक्तिगत संबंध बन सकता है और इस तरह प्रशिक्षकों की वस्तुनिष्ठता खत्म हो सकती है और प्रशिक्षुओं के मूल्यांकन में व्यक्तिनिष्ठता आ सकती है।

यह आशंका ऐसी समस्या नहीं जिसका हल निकालना असंभव हो। इसका एक हल तो यह हो सकता है कि प्रत्येक चरण एवं हर बिंदु पर तीन अलग-अलग लोगों द्वारा मूल्यांकन हो। इसके बाद इन मूल्यांकनों का भी पुनरीक्षण कोई तीन सदस्यीय समिति करे। यह सुझाव थोड़ा पेचीदा और खर्चीला प्रतीत होता है, लेकिन जिन लोगों के हाथ में देश के प्रशासन की बागडोर 30-35 साल रहनी है उनके लिए यह सब कुछ तो वहन किया ही जा सकता है। एक अन्य आशंका यह जताई जा रही है कि इससे प्रशिक्षुओं में आपसी सहयोग की भावना नहीं पनपेगी और उनमें प्रतिस्पद्र्धा का भाव बना रहेगा, लेकिन यह आशंका इसलिए निर्मूल है, क्योंकि एक तो फाउंडेशन कोर्स में मूल्यांकन का एक घटक ही परस्पर सहयोग की भावना- व्यवहार होता है और दूसरे, स्वस्थ प्रतिस्पद्र्धा अपने आप में कोई गलत चीज नहीं है।

इसके अतिरिक्त प्रशिक्षण-प्रोबेशन के बाद अपने कार्यकारी जीवन में अच्छी पोस्टिंग और जगह के लिए प्रतियोगिता- प्रतिस्पद्र्धा आजीवन बनी रहती है। केवल इससे परस्पर सहयोग-सहकार का भाव समाप्त नहीं हो जाएगा। यदि पीएमओ की ओर से कार्मिक मंत्रालय को भेजे गए प्रस्ताव पर गहन विचार-विमर्श हो तो और भी बेहतर समाधान मिल सकते हैं। प्रस्तावित सुधार अभ्यर्थियों और साथ ही देश हित में हैं। इस प्रस्ताव को लेकर जो आशंका कांग्रेस अध्यक्ष ने प्रकट की वह तो बिल्कुल ही निराधार है।

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं)