Trending

    Move to Jagran APP
    pixelcheck
    विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

    लीबिया के भविष्य की ¨चता

    By Edited By:
    Updated: Tue, 25 Oct 2011 12:36 AM (IST)

    Hero Image

    अपने देश में लोकतंत्र के लिए कोई स्थान नहीं होने का दावा करने वाले लीबिया के तानाशाह मुअम्मर गद्दाफी अंतत: लोकतंत्र की स्थापना के लिए सड़कों पर उतर आए लोगों के द्वारा बेरहमी से मार डाले गए। पिछले दिसंबर से अरब देशों से शुरू हुई क्रांति के बाद गद्दाफी की तानाशाह हुकूमत के खिलाफ भी आवाजें उठने लगी थीं, जिसे उन्हाेंने सेना के बल पर दबाने की कोशिश की। लीबियाई नागरिकों के समर्थन में नाटो देशों द्वारा की गई कार्रवाई के बाद उनका पतन सुनिश्चित हो गया था, किंतु सवाल लीबिया के भविष्य का है। अन्य देशों के तेल संसाधनों पर गिद्ध दृष्टि रखने वाले अमेरिका और यूरोप के समर्थन से लीबिया तानाशाह गद्दाफी से मुक्त हो गया है, किंतु इन देशों की मंशा पर संदेह स्वाभाविक है। सऊदी अरब, कुवैत, बहरीन, कतर, ओमान आदि देशों में अब भी दमनकारी राजशाही जारी है और अन्य इस्लामी देशों की तरह वहां भी मानवाधिकारों का घोर उल्लंघन होता है, किंतु तेल संपन्न इन देशों से अमेरिका-यूरोप की गाढ़ी छनती है। क्यों? अमेरिका और यूरोप वस्तुत: लीबिया में लोकतंत्र की बहाली के बजाय एक ऐसी व्यवस्था को विकसित करने के लिए ज्यादा फिक्रमंद है, जिसके माध्यम से वे लीबिया के तेल संसाधनों का मनमाफिक दोहन कर सकें।

    विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

    1968 में कर्नल मुअम्मर गद्दाफी ने लीबिया के सुल्तान इदरीस को गद्दी से उतार फेंका था। उन्होंने लीबिया के गिरजाघरों को मस्जिदों में बदल डाला। पूरे देश में मध्यकालीन शरीयत कानून लागू किया गया। 1970 तक गद्दाफी की छवि अरब राष्ट्रवादी, क्रांतिकारी समाजवादी और इस्लामी कट्टरपंथी के रूप में स्थापित हो चुकी थी। सत्ता पर आते ही उन्होंने 1951 में बनाए गए लीबियाई संविधान को रद्द कर डाला और इसके साथ नागरिक स्वतंत्रता भी खत्म हो गई। सत्तर के दशक में उन्होंने पूंजीवाद और साम्यवाद के बीच के भेद को खत्म करते हुए एक तीसरा सिद्धांत उछाला, जिसके माध्यम से लोगों को आजाद और खुशहाल करने का दावा किया गया था। उन्होंने कम्युनिस्टों की 'रेड बुक' की तर्ज पर एक किताब-'ग्रीन बुक' भी लिखी। इस बात में दो राय नहीं कि गद्दाफी एक निरंकुश तानाशाह थे, किंतु यह भी सही है कि उनसे पूर्व लीबिया की अर्थव्यवस्था जर्जर हालत में थी। पचास के दशक में ही लीबिया में तेल भंडार होने का पता चल गया था, किंतु खनन का काम विदेशी कंपनियों के हाथ था और तेल की कीमतें भी वही कंपनियां तय करती थीं। गद्दाफी ने यह दोहन बंद किया और लीबिया पहला ऐसा विकासशील देश बना, जिसने तेल के खनन से मिलने वाली आय में बड़ा हिस्सा हासिल किया। बाद में अन्य अरब देशों ने भी इसका अनुसरण किया। गद्दाफी के रवैये से अमेरिका-यूरोप के हितों को सर्वाधिक क्षति पहुंची। मुअम्मर गद्दाफी को इस्लामी कठमुल्ला कहना अतिशयोक्ति नहीं है।

    गद्दाफी ने इस्लामी आतंक और जिहादियों का समर्थन किया। तेल से अर्जित अकूत राशि से उन्होंने जिहादी संगठनों का वित्त पोषण भी किया। वे फलस्तीन आंदोलन और आयरिश रिपब्लिकन आर्मी के प्रबल समर्थक थे। 1996 में बर्लिन के एक नाइट क्लब में हुए हमले से गाजी गद्दाफी का चेहरा सामने आया। इसके प्रतिकार में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन ने त्रिपोली और बेनगाझी पर हवाई हमला करने का आदेश दिया था। त्रिपोली पर बमबारी कराने वाले रीगन ने ही इराक के तानाशाह शासक सद्दाम हुसैन की मदद की थी। उन्होंने ही अफगानिस्तान में मुजाहिदीन सेना के गठन के लिए अकूत धनराशि और स्ट्रिंगर मिसाइलों का तोहफा इस्लामी कट्टरपंथियों को सौंपा था। अफगान युद्ध के दौरान सोवियत संघ पर लगाम लगाने के लिए रीगन प्रशासन ने पाकिस्तान के जिया उल हक के तानाशाह शासन को भरपूर आर्थिक और सामरिक मदद दी। मुजाहिदीनों को सोवियत संघ के विरुद्ध जिहाद के लिए मोर्चे पर खड़ा करने वाला अमेरिका ही था। आज वही असलहे और संसाधन अमेरिका और सभ्य समाज के खिलाफ छेड़े गए जिहाद के लिए खतरा बने हुए हैं। अमेरिका के पाखंड और उसके दागदार अतीत को देखते हुए लीबिया के भविष्य को लेकर उठने वाली चिंता स्वाभाविक है।

    उत्तरी अफ्रीकी देश लीबिया की पूर्वी सीमा पर मिस्न स्थित है, जहां हाल ही में अमेरिका आदि विकसित देशों के सैन्य हस्तक्षेप से होस्नी मुबारक का अधिनायकवादी शासन खत्म हुआ है, किंतु मिस्न के जन आंदोलन के पीछे जिस मुस्लिम ब्रदरहुड का हाथ है, उसकी मूल अवधारणा में मजहबी संकीर्णता और कट्टरवाद गहरे समाहित है। सन् 1954 में इसी मुस्लिम ब्रदरहुड ने साम्राज्यवाद के प्रबल विरोधी मिस्न के तत्कालीन राष्ट्रपति और गुटनिरपेक्ष आंदोलन के कद्दावर नेता गमाल अब्दुल नासेर पर जानलेवा हमला करवाया था। इसके कारण नासेर ने मुस्लिम ब्रदरहुड को प्रतिबंधित कर मिस्न से बाहर कर दिया था। मुस्लिम ब्रदरहुड का लक्ष्य हमेशा से ही एक इस्लामिक मध्य-पूर्व का रहा है। होस्नी मुबारक की जगह मिस्न में मुस्लिम ब्रदरहुड का प्रभुत्व न केवल अरब जगत, बल्कि पूरी दुनिया के लिए खतरनाक साबित होगा। साधनहीन अफगानिस्तान के जिहादी यदि दुनियाभर के अत्याधुनिक फौजों को चुनौती देने में सफल हो रहे हैं तो साधन संपन्न मिस्न दुनिया के लिए कितना बड़ा सिरदर्द बन सकता है, सहज समझा जा सकता है।

    लीबिया में चल रहा नाटो देशों का हस्तक्षेप वस्तुत: इराक प्रकरण का दूसरा रूप है। शीतयुद्ध का कालखंड दूसरे देश के अंदरूनी मामलों में अमेरिकी हस्तक्षेप की ही दास्तान है। कोरियाई युद्ध, विएतनाम, चिली में सीआइए के समर्थन से सत्तापलट, अफगानिस्तान आदि मामलों में अमेरिकी हस्तक्षेप किसी से छिपा नहीं है। यह वह समय था, जब प्राग से लेकर प्योंगयांग और शंघाई से लेकर सैंटियागो तक साम्यवाद अपने पैर पसार चुका था। साम्यवाद से प्रजातंत्र को बचाने के नाम पर ही इन स्थानों में अमेरिकी हस्तक्षेप को जायज ठहराने की कोशिश की जाती थी। अपना हित साधने के लिए अमेरिका ने हमेशा गैर प्रजातांत्रिक राह का वरण किया है। दक्षिण अफ्रीका का जातीय शासन, सऊदी अरब का वहाबी घराना, इस्लामी पाकिस्तान, सादात और मुबारक हुसैन के नेतृत्व वाला मिस्न, यूनान में सैन्य शासन के अतिरिक्त अफ्रीका, लैटिन अमेरिका और एशिया के तानाशाह शासकों के मामले में अमेरिका की विदेश नीति सदैव उनके समर्थन में रही। प्रजातंत्र की कथित रक्षा के लिए अमेरिका ने प्राय: वैसे दक्षिणपंथी तानाशाहों की मदद की, जो साम्यवाद को अच्छी चुनौती दे सकते थे। 'हमारे साथ या फिर हमारे विरोधी' यह अमेरिका की पुरानी नीति रही है। यदि अमेरिका वास्तव में सभ्य समाज की सुरक्षा के लिए प्रतिबद्ध है तो सऊदी अरब या ईरान के लिए अलग-अलग नीतियां नहीं चल सकतीं।

    [बलबीर पुंज: लेखक राज्यसभा सदस्य हैं]

    response@jagran.com

    मोबाइल पर ताजा खबरें, फोटो, वीडियो व लाइव स्कोर देखने के लिए जाएं m.jagran.com पर