प्रशांत मिश्र। गुजरते साल का आखिरी लम्हा कांग्रेस के लिए तुलनात्मक रूप से बेहतर रहा। यदि हम 2017 के अंत में गुजरात और हिमाचल प्रदेश विधानसभा के चुनावों को 2018 की शुरुआत मानें तो हिमाचल हारने के साथ ही कांग्रेस शासित एक और राज्य भाजपा के पास चला गया था। इसके बावजूद गुजरात में भाजपा को लोहे के चने चबाने के लिए मजबूर करने से पार्टी का आत्मविश्वास बढ़ा। इसके बाद 2018 के मध्य में हुए कर्नाटक विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने हारने के बावजूद जोड़ तोड़ के मामले में भाजपा को मात देकर जद-एस के साथ सत्ता में वापसी की। इससे पार्टी को थोड़ी और गति मिली।

इसके उपरांत अभी हाल में छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में सीधी लड़ाई में भाजपा को मात देकर कांग्रेस ने ऐसा बल पा लिया जो अर्से से एक स्वप्न जैसा दिख रहा था। हालांकि टीडीपी से समझौते के बावजूद तेलंगाना में मिली करारी हार और मिजोरम में सत्ता गंवाने के कारण तीन राज्यों में जीत का जश्न थोड़ा फीका रहा। इन तीन राज्यों में सत्ता में वापसी कांग्रेस के लिए हिंदी पट्टी में पैर जमाने के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है। इससे भी उल्लेखनीय यह है कि इस जीत ने कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की अहमियत बढ़ाई। हालांकि भाजपा इसे प्रदेश स्तर के सत्ता विरोधी माहौल का नाम देकर राहुल गांधी के सिर से जीत का सेहरा छीनने की कोशिश कर रही है, लेकिन वह इसकी अनदेखी नहीं कर सकती कि लिबरल और वाम विचारधारा से प्रभावित बुद्धिजीवियों को राहुल गांधी को प्रधानमंत्री के दावेदार के रूप में पेश करने का मौका मिल गया है। यह बात और है कि विपक्ष में बहुत बड़ा वर्ग ऐसा है जो राहुल की प्रधानमंत्री पद की दावेदारी से नाखुश और असहमत है, फिर भी इसमें संदेह नहीं कि कांग्रेस और खुद राहुल में विश्वास पैदा हुआ है। अन्यथा कोई कारण नहीं कि पिछले छह महीने में वह दो-तीन बार प्रधानमंत्री पद की इच्छा जताते। अब यह 2019 के चुनाव नतीजों से ही साबित होगा कि वास्तव में राहुल की वापसी हुई है या फिर भाजपा विधानसभा चुनाव अपने अंतर्विरोधों और प्रदेश सरकारों से नाराजगी की वजह से हारी?

कांग्रेस के प्रति आम जनता का विश्वास अभी बहुत गहरा नहीं हुआ है। कांग्रेस राफेल सौदे को सुप्रीम कोर्ट से क्लीन चिट मिलने के बावजूद जिस तरह उछालने के साथ ही तीन राज्यों में जीत के बाद भी ईवीएम पर सवाल उठाने से नहीं चूक रही उससे यही साफ होता है कि वह किसी भी शर्त पर लोकसभा चुनाव में अपना पुनर्जीवन चाहती है। फिर चाहे मुद्दे नकारात्मक ही क्यों न हों अथवा झूठ ही क्यों न बोलना पड़े। किसानों की कर्ज माफी का मुद्दा भी कुछ ऐसा ही है। राहुल ने एलान कर दिया है कि वह 2019 का चुनाव वह इसी मुद्दे पर लड़ेंगे।

तथ्य यह है कि पंजाब और कर्नाटक में भी कर्ज माफी का वादा किया गया था, लेकिन उसे अब तक पूरा नहीं किया जा सका है। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कर्ज माफी का वादा कर सत्ता में आने के बाद राहुल ने ताल ठोकने के अंदाज में कहा, हमने वादा किया था दस दिन का, लेकिन चंद घंटों में ही कर्ज माफ कर दिया। ट्वीट करने के लिए तो यह सब ठीक है, लेकिन वादे पर अमल करना मुश्किल है। अगर कर्ज माफी में देरी हुई तो बैंकों की ओर से किसानों को नोटिस भेजने में वक्त नहीं लगेगा। ऐसे में बाजी उलटी भी पड़ सकती है। यह भी ध्यान रहे कि कांग्रेस की ओर से उठाए गए बाकी मुद्दे एक-एक करके गायब हो रहे हैं।

पेट्रोलियम उत्पादों के दामों में उछाल को कांग्रेस ने मुद्दा बनाया, परंतु वैश्विक हालात और मोदी सरकार की तेल कूटनीति के कारण अब जब तेल के दाम वर्ष 2013 से भी नीचे आ गए हैं तो यह मुद्दा भी उसके हाथ से जाता रहा। राहुल ने जीएसटी को गब्बर सिंह टैक्स का नाम देकर मोदी सरकार पर खूब प्रहार किए थे, परंतु हाल में जिस तरह तमाम वस्तुओं पर टैक्स की दरें कम करने के साथ यह संकेत दिया गया कि जीएसटी स्लैब कम किए जा सकते हैं उससे कांग्रेस को बैकफुट पर जाना पड़ सकता है। कांग्रेस ने नोटबंदी को अभी भी एक मुद्दा बना रखा है, परंतु नोटबंदी के तुरंत बाद हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भाजपा ने जो सफलता पाई उसके बाद कहना मुश्किल है कि यह मुद्दा चुनावी दृष्टिकोण से कांग्रेस को कितना लाभ दे सकेगा?

राफेल सौदे के अलावा कांग्रेस ने विजय माल्या और नीरव मोदी को लेकर भी मोदी सरकार पर प्रहार किए, परंतु माल्या के प्रत्यर्पण के मामले में जांच एजेंसियों ने जो ऐतिहासिक सफलता हासिल की उससे भाजपा की भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम को बल मिला है और कांग्रेस का प्रचार कमजोर पड़ा है। अगस्ता वेस्टलैंड हेलिकॉप्टर सौदे के बिचौलिये क्रिश्चियन मिशेल के प्रत्यर्पण के बाद भाजपा को गांधी परिवार पर सीधा आक्रमण करने का मौका मिला है। इसके अलावा राबर्ट वाड्रा के मामलों पर जांच एजेंसियां जिस तेजी से आगे बढ़ रही हैं उससे कांग्रेस के लिए मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं। नेशनल हेराल्ड मामले में भी दिल्ली उच्च न्यायालय ने जिस तरह हेराल्ड हाउस खाली करने के आदेश दिए, उससे इस मामले में आरोपी गांधी परिवार की साख को धक्का पहुंचा है। चुनाव के वक्त इस मसले पर गांधी परिवार के लिए जवाब देना मुश्किल होगा।

जहां तक लोकसभा चुनावों के मद्देनजर गठबंधनों का प्रश्न है, तेलंगाना में टीडीपी से गठबंधन करके कांग्रेस को कुछ नहीं हासिल हुआ। निराशाजनक नतीजों के बाद स्थानीय कांग्रेस द्वारा टीडीपी से गठबंधन तोड़ने की मांग ने कांग्रेस नेतृत्व की मुश्किल बढ़ाई है। द्रमुक नेता स्टालिन ने राहुल के प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी पर मुहर लगा कर तमिलनाडु में कांग्रेस को मजबूत आधार अवश्य दिया है, परंतु कर्नाटक में जद-एस के साथ आए दिन की खटपट ने कांग्रेस की दक्षिण विजय की मुहिम को कुंद किया है। यदि संप्रग को राष्ट्रीय स्तर पर आंकें तो कांग्रेस सिर्फ महाराष्ट्र में बराबरी का गठबंधन कर सकती है। बाकी जगह वह जूनियर पार्टनर है, चाहे वह तमिलनाडु हो या आंध्र, तेलंगाना अथवा बिहार। आखिर जिन राज्यों में कांग्रेस साथी दलों पर आश्रित है वहां वह कितनी सीटें लड़ पाएगी? चुनावी दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण उत्तर प्रदेश में तो सपा और बसपा कांग्रेस पर हाथ रखने को ही राजी नहीं। यही हाल पश्चिम बंगाल का है जहां की राजनीति तृणमूल कांग्रेस और भाजपा के बीच ध्रुवीकृत हो रही है। उत्तर पूर्व में यदि असम में एआइयूडीएफ को छोड़ दें तो कांग्रेस के पास न तो कहीं और साथी हैं और न ही जनाधार।

यह सही है कि देश के मानचित्र से लगभग गायब होती कांग्रेस का फिर से उदय शुरू हुआ है, लेकिन यह यक्ष प्रश्न बरकरार है कि क्या देश की सबसे पुरानी पार्टी विपक्ष की धुरी बनने में कामयाब हो पाएगी? जो समीकरण अब तक दिख रहे हैं उसमें तो ऐसा नहीं लगता। इसका जवाब कांग्रेस को खुद खोजना होगा कि अपना-अपना अस्तित्व बचाने को बेचैन दल उसे बड़ी बहन की तरह अपनाने को क्यों नहीं तैयार?

(लेखक दैनिक जागरण के राजनीतिक संपादक हैं)