[डॉ. श्रीरंग गोडबोले] अंग्रेजों का मानना था कि 1857 का विद्रोह मुस्लिमों द्वारा प्रायोजित था। भारत के मुस्लिम इस्लामी शासन के पतन और इसके साथ होने वाले विशेषाधिकारों की हानि जैसे आघातों से उबर नहीं पाए थे। उनकी दृष्टि में हिंदू उनके अधीनस्थ होने के कारण मित्रता रखने के योग्य नहीं थे। इस गहन अवसाद से मुस्लिम एकजुटता की आवश्यकता पैदा हुई और इस तरह अलीगढ़ आंदोलन का जन्म हुआ। इसके संस्थापक सर सैय्यद अहमद खान (1817-98) थे, जिन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी के एक निष्ठावान सेवक के रूप में 1857 के विद्रोह के खिलाफ अंग्रेजों का साथ दिया। वह 1878 से 1883 तक गवर्नर-जनरल की विधान परिषद के सदस्य रहे थे। सैय्यद के अनुसार मुस्लिम सशक्तीकरण अंग्रेजों के प्रति निष्ठा, शिक्षा के प्रति समर्पण और राजनीति से अलग रहने की भावना में निहित था।

सर सैय्यद अहमद खान और इस्लामी भाईचारा

लाहौर में मोहमेडन एजुकेशनल कॉन्फ्रेंस में दिए गए संबोधन में सर सैय्यद अहमद खान ने 1875 में स्थापित मोहमेडन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज के उद्देश्य का वर्णन किया। उनके अनुसार “हमारे लिए इस्लाम का अभ्यास करना आवश्यक है। हमारे युवाओं को अंग्रेजी शिक्षा के साथ-साथ मजहब और उसके इतिहास की शिक्षा प्राप्त करनी चाहिए। उन्हें इस्लामी भाईचारे का पाठ पढ़ाया जाना चाहिए, जो हमारे विश्वास का सबसे महत्वपूर्ण और अंतरंग हिस्सा है। विघटनकारी प्रवृत्तियों का प्रतिकार करने के लिए अरबी या फारसी में से एक से परिचित होना आवश्यक है। समूह में एक साथ रहने, एक साथ भोजन करने और एक साथ अध्ययन करने से छात्रों के बीच भाईचारे की भावना को बढ़ाया जा सकता है। अगर यह नहीं किया जा सका तो हम न तो प्रगति कर सकते हैं और न ही समृद्धि पा सकते हैं और न ही एक समुदाय के रूप में जीवित रह सकते हैं ”(सर सैयद अहमद खान एंड मुस्लिम नेशनलिज्म इन इंडिया, शरीफ अल मुजाहिद, इस्लामिक स्टडीज, खंड 38, क्रमांक 1, 1999, पृ.90)।

अंग्रेजों के प्रति वफादारी की अलीगढ़ नीति

सन 1867 में सैय्यद अहमद ने बनारस के आयुक्त शेक्सपियर से वार्तालाप में पहली बार हिंदुओं और मुसलमानों को "दो राष्ट्र" के रूप में वर्णित किया (अल मुजाहिद, उक्त, पृ.92)। 1883 में दिए गए एक भाषण में, सैय्यद ने कहा "अब मान लीजिए कि अंग्रेजों को भारत छोड़ना पड़ा... तो भारत का शासक कौन होगा? क्या इन परिस्थितियों में यह संभव है कि मुस्लिम और हिंदू जो कि दो राष्ट्र हैं, एक ही सिंहासन पर बैठे हों और सत्ता में बराबर बने रहें? निश्चित रूप से नहीं। यह आवश्यक है कि उनमें से एक दूसरे पर विजय प्राप्त करे और उसे नीचे गिराए”(मेकिंग ऑफ पाकिस्तान, रिचर्ड साइमंड्स, फेबर, 1950, पृष्ठ 31)। अंग्रेजों के प्रति वफादारी की अलीगढ़ नीति को 1906 में ऑल इंडिया मुस्लिम लीग के संस्थापक सिद्धांतों में शामिल किया गया था।

देवबंदियों ने सर सैय्यद के खिलाफ जारी किया था फतवा

परन्तु ऐसा नहीं है कि सारे मुस्लिम सर सैय्यद के ब्रिटिश समर्थक रवैये को स्वीकार करते थे। इन असहमत मुस्लिमों में अलीगढ़ के उनके साथी भी शामिल थे। 1888 में देवबंदियों ने उनके खिलाफ फतवा जारी किया था। अलीगढ़ कॉलेज में एक पूर्व शिक्षक, शिबली नुमानी ने मुस्लिम एजुकेशन सोसायटी की स्थापना की, जिसे 1894 से लखनऊ के नदवात-उल-उलेमा (विद्वानों की सभा) के रूप में जाना जाने लगा। 1911 में बंगाल के विभाजन को रद्द करने और साथ ही असम और पूर्वी बंगाल के मुस्लिम बाहुल्य प्रांत को समाप्त करने से अंग्रेजों के प्रति मुस्लिम वफादारी अब उनके प्रति नाराजगी में बदल गई।

अलीगढ़ विश्वविद्यालय को अंग्रेजों ने कर दिया था खारिज

बाल्कन युद्धों की शृंखला (1911-13) जिसने ओटोमन तुर्कों को उनके यूरोप के उपनिवेशों से वंचित कर दिया और इसके साथ ही अलीगढ़ कॉलेज को विश्वविद्यालय बनाने के मुस्लिमों के प्रस्ताव को अंग्रेज सरकार द्वारा नकारे जाने ने अलीगढ़ को ब्रिटिश-विरोधी केंद्र में बदल दिया। यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि मुस्लिमों में ब्रिटिश-विरोधी भावना इसलिए पैदा हो गई क्योंकि अखिल-इस्लामी और भारतीय मुस्लिम हितों पर संकट दिखने लगा।

'ऑल इंडिया मुस्लिम लीग'

अली बंधुओं, शौकत अली (1873-1938) और मुहम्मद अली जौहर (1878-1931) जो खिलाफत आंदोलन में एक प्रमुख भूमिका निभाने वाले थे, मोहमेडन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज, अलीगढ़ के पूर्व छात्र थे। बाद में इसके ट्रस्टी भी बने। साथ ही ऑल इंडिया मुस्लिम लीग के संस्थापक-सदस्य भी थे। मुहम्मद अली ने अंग्रेजी साप्ताहिक कॉमरेड (1911) और उर्दू अखबार हमदर्द (1913) शुरू किया। वहीं शौकत अली ने अंजुमन-ए-ख़ुद्दाम-ए-काबा (1913) की स्थापना में मदद की। आगा खान (1877-1957) इस्माइली खोजा संप्रदाय के मजहबी प्रमुख और अलीगढ़ कॉलेज के सबसे उदार संरक्षक थे। साथ ही 1906-13 के दौरान ऑल इंडिया मुस्लिम लीग के संस्थापक-अध्यक्ष भी थे। हालांकि वे खिलाफत आंदोलन के समर्थक थे पर उन्होंने असहयोग आंदोलन का विरोध किया। अलीगढ़ के पूर्व छात्र मौलाना हसरत मोहानी (1878-1951) जो उर्दू साप्ताहिक उर्दू-ए-मुअल्ला के संस्थापक-संपादक थे और 1921 में मुस्लिम लीग के अध्यक्ष और खिलाफत आंदोलन के नेता भी बने।

(लेखक ने इस्लाम, ईसाइयत, समकालीन बौद्ध-मुस्लिम संबंध, शुद्धी आंदोलन और धार्मिक जनसांख्यिकी पर पुस्तकें लिखी हैं।)