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लोक कलाकारों की बदहाली पीड़ा और समस्याएं दिखेंगी ‘नेटुआ’ में

लोक नर्तक और लोक कलाकारों की बदहाली पीड़ा और समस्याओं को बॉलीवुड के कुछ फिल्मकार नेटूआ नामक फिल्म के जरिए उजागर करने की कोशिश में है। उसे हिंदी हॉरर फिल्म 2001 डेड वन फेम के निदेशक प्रेम सागर सिंह निर्देशित कर रहे हैं इसके निर्माता बीएन तिवारी हैं।

By Neel RajputEdited By: Published: Sun, 25 Oct 2020 10:37 AM (IST)Updated: Sun, 25 Oct 2020 10:37 AM (IST)
अभिनेता मनोज बाजपेई एनएसडी व श्री राम सेंटर में 'नेटुआ' नाटक का कर चुके हैं मंचन

नई दिल्ली [बिरंचि सिंह]। आए दिनों मंडी हाउस में लोक कलाकारों की भीड़ देखी जाती है। यह अलग बात है कि कभी कभार जितने कलाकार रंग मंच पर होते हैं उतने दर्शक भी ऑडिटोरियम में नहीं पहुंच पाते। लोक नर्तक और लोक कलाकार मंचन के पश्चात बगैर तालियों की गड़गड़हट सुने घर लौट जाते हैं। अगले दिन उसी जोश व खरोश से मंच से उतर आते हैं। लेकिन यह सुनापन इन्हें जरूर खलता है पीड़ा उन्हें भी होती है। 21 वीं शताब्दी के इस दौर में भी सरकार, शासन व प्रशासन भी लोक कलाकारों की बात नहीं करता। आज भी लोक कलाकारों की स्थिति जस की तस है। बेहतर नहीं हो पाई। इन दिनों इसी तरह के कलाकारों की पीड़ा को रुपहले पर्दे पर दिखाने की तैयारी चल रही। मंडी हाउस के कलाकारों की वेशभूषा में फिल्मी कलाकार मयूर विहार,अक्षरधाम, मंडी हाउस के साथ नजफगढ़ के फार्महाउसाें में शुटिंग करने में व्यस्त हैं।

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लोक नर्तक और लोक कलाकारों की बदहाली पीड़ा और समस्याओं को बॉलीवुड के कुछ फिल्मकार नेटूआ नामक फिल्म के जरिए उजागर करने की कोशिश में है। उसे हिंदी हॉरर फिल्म '2001 डेड वन' फेम के निर्देशक प्रेम सागर सिंह निर्देशित कर रहे हैं इसके निर्माता बीएन तिवारी हैं। इस फिल्म की एक खासियत यह भी है कि बॉलीवुड के सशक्त अभिनेता मनोज बाजपेई एनएसडी (नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा) व श्री राम सेंटर में 'नेटुआ' नाटक का मंचन करते थे जिसे देखने के लिए नाटक प्रेमियों का जनसैलाब उमड़ पड़ता था। ऐसे में कलाकारों का चयन एनएसडी और एफटीआईआई फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीच्यूट ऑफ इंडिया जैसे संस्थानों से किया गया है ताकि रंगमंच की दुनिया के बेहतरीन कलाकार इस फिल्म में अपने अभिनय कौशल दिखा सकें और लोककलाकारों की पीड़ा को उजागर कर सकें।

निर्माता निर्देशकों के मुताबिक इस फिल्म के माध्यम से वे यह दिखाना चाहते हैं कि लोक नर्तक व लोक कलाकारों को ग्रामीण समाज या उच्च समाज में भी उपेक्षा की दृष्टि से देखा जाता है। पुरुष लोक नृत्य हमेशा उपहास के पात्र बनते हैं वहीं लोक कलाकार बहुत ही विनम्रता से यह सब को नियति मानकर स्वीकार कर लेते हैं। लोक कलाकार इतना भी धन अर्जन नहीं कर पाते जिससे वह अपने परिवार का भरण-पोषण कर पाए। लोक कलाकारों के तरफ सरकार का ध्यान आज तक आकृष्ट नहीं हो पाया है। सरकार को लोक कलाकारों को आर्थिक लाभ देना चाहिए पेंशन की योजना चालू करनी चाहिए ताकि उन्हें आर्थिक बल मिल सके ताकि वह अपनी कला के माध्यम से समाज को नई दिशा दे पाए।

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