मिलिए देश के उन युवाओं से, जो अपनी कमजोरियों और डर पर विजय पाकर कामयाबी की राह पर बढ़ रहे...
भारत सहित पूरी दुनिया कोरोना महामारी से लड़ रही है। हर किसी के मन में अनजाना-सा डर समाया है कि आगे क्या होगा क्या नहीं। पर इस डर को जीतना भी जरूरी है। बुराई पर अच्छाई की जीत का त्योहार दशहरा हम सभी को यही संदेश देता है।
नई दिल्ली [अंशु सिंह]। दोस्तो, बापू यानी महात्मा गांधी बचपन में बेहद शर्मीले स्वभाव के थे। कई बार वे इसलिए स्कूल नहीं जाते थे, ताकि किसी से बात न करनी पड़े। किसी ने कल्पना नहीं की थी कि वे कभी देश के स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व करेंगे। उनके लाखों-करोड़ों अनुयायी होंगे। लेकिन गांधी जी ने स्व-अध्ययन से और अपनी कमियों-कमजोरियों को दूर कर वैश्विक पहचान बनाई। किसी भी प्रकार का डर इंसान की बड़ी कमजोरी बन सकता है। अगर इसे जीत लिया जाए, तो किसी भी मुश्किल या चुनौती पर जीत हासिल कर लेना असंभव नहीं रह जाता है।
कोरोना का डर दूर कर रहे तारा-अप्पा : मुंबई की संज्ञा ओझा ने 2018 में पहली बार तारा-अप्पा के वीडियोज बनाने शुरू किए थे। कोविड आने के बाद उन्होंने महसूस किया कि लोग, और खासकर बच्चे किस तरह डरे-सहमे हुए हैं। तब उन्होंने ताराअ प्पा मपेट को लेकर ऐसे वीडियोज (तारा का कोरोना प्लान) बनाए, जिसमें वे बताते थे कि बीमारी से डरने की जरूरत नहीं। इन वीडियोज का काफी अच्छा फीडबैक मिला। वह बताती हैं, ‘एक दिन यूनिसेफ, उत्तर प्रदेश की कम्युनिकेशन डेवलपमेंट टीम की ओर से कॉल आई कि वे राज्य सरकार के साथ मिलकर चलाए जा रहे जागरूकता कार्यक्रम के लिए तारा-अप्पा की वीडियो सीरीज चाहते हैं, तो हमने उनका प्रस्ताव स्वीकार कर करीब 10 एपिसोड्स तैयार किए।’ ‘तारा है तैयार’ नाम की इस सीरीज का डीडी पर प्रसारण हो रहा है, ताकि शहरी एवं ग्रामीण सभी क्षेत्रों के बच्चों एवं अभिभावकों को इसका लाभ मिल सके। संज्ञा ने साइन लैंग्वेज में भी वीडियो तैयार किए हैं। हर एपिसोड में अलग विषय पर बात होती है।
तारा-अप्पा बताते हैं कि कैसे शारीरिक दूरी रखें, हाथों को साफ करें, अपने रूटीन को क्रिएटिव बनाएं, ताकि तनावमुक्त व खुश रहें। इसके साथ ही ऑनलाइन क्लासेज के प्रभावों को लेकर टीचर्स-पैरेंट्स को जागरूक करना होता है। संज्ञा ने कोरोना योद्धाओं पर भी वीडियोज बनाए हैं, ताकि बच्चों को मालूम हो कि लोग कैसे बिना डरे दूसरों की मदद कर रहे हैं। इसी कड़ी में ओनली माई हेल्थ ने हेल्थकेयर हीरोज अवॉर्ड की आउट ऑफ बॉक्स आइडिया श्रेणी में ताराअ प्पा को अवेयरनेस वॉरियर अवॉर्ड से सम्मानित किया है।
स्टेज पर जाने के डर को जीता : 5 साल से थोड़ी बड़ी होते ही अभिजिता ने लिखना शुरू कर दिया था। अभी वह 7 साल की हैं और उनकी पहली किताब ‘हैप्पीनेस ऑल अराउंड’ प्रकाशित हो चुकी है। वह बताती हैं, ‘मेरी किताब में कहानी और कविता दोनों हैं। जो चीज मैं आसपास देखती, महसूस करती हूं, उन पर कविताएं लिखती हूं। कोरोना में बच्चे क्या मिस करते हैं, मैंने उस पर भी कविता लिखी है। लिखने में तो मुझे बहुत मजा आता है, लेकिन एक समय था जब मुझे स्टेज से डर लगता था। मम्मी-पापा मुझे बार-बार समझाते, तुम कुछ इस तरह सोचो कि तुम्हारे सामने कोई नहीं है। कैमरा भी नहीं है, तो फिर तुम आराम से अभिनय कर लोगी। जो भी काम करो, खुश होकर करो। एंजॉय करो। फिर परिणाम अच्छे आएंगे। इसके बाद पहली बार जब स्टेज पर गई, तब तीन साल की थी। मुझे डर लगा, लेकिन मैंने स्टेज पर जाना कभी बंद नहीं किया। धीरे-धीरे डर खत्म हो गया और मैं कॉन्फिडेंट हो गई।’
कमियों से नहीं घबराई : मैं नांदेड़ जिले के जोशी सांगवी गांव से हूं। मां खेतों में मजदूरी करने के साथ चूड़ियां बेचने का काम करती थीं। बड़ी मुश्किल से गुजर-बसर होती थी। स्वयंसेवी संस्था की मदद से 10वीं तक की शिक्षा पूरी की। फिर पॉलिटिकल साइंस (ऑनर्स) में ग्रेजुएशन करने के बाद महाराष्ट्र पब्लिक सर्विस कमीशन की तैयारी में जुट गई। मेरे पास न तो इंटरनेट की सुविधा थी और न ही मैंने कोई कोचिंग ली। केवल किताबों और नोट्स की मदद से तैयारी की। पहले प्रयास में असफल होने पर थोड़ा दुख हुआ, पर निराश होने के बजाय मैंने दोबारा कमजोरियों को पहचान कर उन्हें दूर करने की कोशिश की। मैं डिप्टी कलेक्टर बनकर उन समस्याओं को दूर करना चाहती थी, जिनसे अब तक जूझती आ रही थी। इसलिए महाराष्ट्र पब्लिक सर्विस कमीशन के ग्रेड ए की परीक्षा दी और उसमें सफल रही। लड़कियों में मुझे तीसरा स्थान मिला था।
विरोध के बीच ओडिसी नृत्य सीख बनाई पहचान : राहुल को बचपन से संगीत एवं नृत्य में रुचि रही है। शुरुआत पांच साल की उम्र में शास्त्रीय संगीत सीखने से हुई, लेकिन फिर उन्होंने अपनी गुरु ज्योति श्रीवास्तव से ओडिसी नृत्य सीखने का निर्णय लिया। पिता जी थोड़े रुढ़िवादी स्वभाव के थे। उन्होंने इसका विरोध किया। बताते हैं राहुल, पिता जी नहीं चाहते थे कि लड़का होकर मैं नृत्य करूं। समाज का भी दबाव था। लेकिन मैंने भी ठान लिया था। खुद को इसमें पारंगत बनाया, मगर पिता जी का साथ नहीं मिला। वे कभी मेरी प्रस्तुति को देखने नहीं आए। मैं स्कॉलरशिप एवं टीचर्स के सहयोग से आगे बढ़ा। टीचर्स ही स्पांसर करते थे। जब 12वीं में था, तो पिता जी का हार्ट अटैक से देहांत हो गया। मुश्किलें बढ़ गईं। परिवार की जिम्मेदारी भी थी। मां ने बहुत सपोर्ट किया। मेरे अंदर एक खुद्दारी भी थी कि किसी की दया नहीं लेनी है। खुद से ही सब करना है। मैंने ग्रेजुएशन के साथ एक स्कूल में तीन हजार रुपये महीने पर पार्टटाइम नौकरी की। इन सब चुनौतियों के बावजूद नृत्य का साथ नहीं छोड़ा। अगर हार मान जाता, तो यह सब कहां संभव था...।
आंखों की रोशनी जाने के बावजूद हारी नहीं : दृष्टिबाधित स्टूडेंट पल्लवी अधिकारी ने बताया कि मैं जब दस साल की थी, तो ब्रेन ट्यूमर की वजह से आंखों की रोशनी चली गई। पढ़ाई अधूरी छूट गई। समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूं। संयोगवश स्वयंसेवी संस्था सिल्वर लाइनिंग्स की फाउंडर प्रीति मोंगा को मेरे बारे में मालूम हुआ। उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या तुम दोबारा पढ़ाई शुरू करना चाहोगी? मुझे तो जैसे इसी पल का इंतजार था, तुरंत हां कर दी। लेकिन यह सब इतना आसान नहीं था। आंखों से दिखाई देना बंद हो गया था। मुझे शून्य से शुरुआत करनी थी। संस्था में रहकर मैंने ब्रेल लिपि में पढ़ने-लिखने के अलावा लैपटॉप पर हिंदी और इंग्लिश में टाइपिंग सीखी। दिल्ली के सालवन पब्लिक स्कूल में पांचवीं कक्षा में मेरा एडमिशन हुआ। मेरी लगन और अच्छे रिजल्ट को देखते हुए सातवीं कक्षा में एक संस्था की ओर से लैपटॉप दिया गया। इस बार की वार्षिक परीक्षा में जब 92.6 फीसद अंक प्राप्त हुए, तो टीचर ने दूसरे बच्चों के सामने मेरी मिसाल देते हुए कहा कि कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती। आगे आइएएस ऑफिसर बनना चाहती हूं।
युवराज सिंह कैंसर से डरे नहीं, दोबारा लौटे खेल के मैदान में : मशहूर क्रिकेटर युवराज सिंह धुंआधार क्रिकेट खेल रहे थे। सब अच्छा चल रहा था। लेकिन एक दिन उन्हें अचानक कैंसर होने की जानकारी मिली। उन्हें बड़ा झटका लगा। बकौल युवराज, उन्हें ऐसा लगा था मानो किसी ने मौत की सजा सुना दी हो। लेकिन फिर उन्होंने अपनी बीमारी को स्वीकार किया। इलाज की पूरी प्रक्रिया के दौरान सकारात्मक रहकर कैंसर से जंग लड़ी। आखिर में उसे परास्त कर खेल के मैदान में लौटे। अब बच्चों के लिए क्रिकेट एकेडमी चलाते हैं।
मुकाबला करने से डरती नहीं : मिक्सड मार्शल आर्ट प्लेयर रितु फोगाट ने बताया कि मैंने सीखा है कि डरने से कभी सफलता नहीं मिलती। मैं कुश्ती की खिलाड़ी रही हूं, लेकिन अब एक बिल्कुल नए खेल मिक्स्ड मार्शल आर्ट को चुना है। उसकी ट्रेनिंग ले रही हूं। सिंगापुर में परिवार से दूर अकेले रहकर सब मैनेज कर रही हूं। मुझे मालूम है कि जिससे भी मैच खेलूंगी, वह सभी एमएमए में माहिर हैं। लेकिन मैं उनसे डरकर मुकाबला ही न करूं, तो जीत कैसे मिलेगी?
[इनपुट : विनीता, स्मिता]
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