Delhi Bird Flu: बर्ड फ्लू नामक शब्द भी बीमारी में तब्दील होकर तैर रहा है
मुर्गा है अंग्रेजी में चिकन कहते हैं बड़ी अजीब चीज है। प्राइमरी छात्रों के लिए कक्षा में बनने और पुलिस वालों द्वारा चौराहे पर बनाने के काम आता है। प्लेट सजाने और चर्बी बढ़ाने के एवं लखनऊ में तो खाने के अलावा पहनने के काम भी आता है।
नई दिल्ली, कमल किशोर सक्सेना। ये जो मुर्गा है, जिसे अंग्रेजी में चिकन भी कहते हैं, बड़ी अजीब चीज है। प्राइमरी छात्रों के लिए कक्षा में बनने और पुलिस वालों द्वारा चौराहे पर बनाने के काम आता है। शौकीनों की प्लेट सजाने और चर्बी बढ़ाने के एवं लखनऊ में तो खाने के अलावा पहनने के काम भी आता है। इधर कुछ वर्षो से यह बर्ड फ्लू विस्तार कार्यक्रम में भी काम आने लगा है।
आजकल फिर फिजाओं में कोरोना और उसके नए स्टेन के साथ-साथ बर्ड फ्लू नामक शब्द भी बीमारी में तब्दील होकर पूरे लाव-लश्कर के साथ तैर रहा है। बटर चिकन, मुर्ग मुसल्लम, अंडा करी, आमलेट जैसी डिशेज, जो डायनिंग टेबल की शान समझी जाती थीं, आज निकम्मे बर्ड फ्लू की वजह से ये सब छुतही मान ली गई हैं। जो लोग मुर्गे का नाम सुनने मात्र से ही राम-राम का जाप करते हुए गंगा नहाने भाग जाते थे, अब वे भी इसकी चर्चा में मशगूल हो गए हैं।
खैर, क्या आपने कभी किसी मुर्गे को ध्यान से देखा है। हम देसी मुर्गे की बात कर रहे हैं। किसी ब्रायलर या फार्म के प्रोडक्ट की नहीं, जिनके न तो मां-बाप का पता होता है, और न खानदान का। देसी मुर्गे का मुखड़ा जरा गौर से देखिए। ऊपर वाले ने सिर पर क्या शानदार कलगी की शक्ल में ताज दिया है। कोई आम आदमी की तरह कर्ज की गठरी नहीं। यानी शाही तबीयत का नजराना पैदाइशी मिला है।
लेकिन इनकी किस्मत देखिए कि हमारे यहां डेढ़-दो सौ रुपये किलो के भाव बिकने वालों का आज 50 रुपये में खरीदार नहीं मिल रहा है। लोग उसके बदले लौकी-पालक और साग-भागी को अधिक तवज्जो दे रहे हैं। नॉन वेज बनाने और बेचने वाले होटलों तथा रेस्तारांओं की बिक्री का ग्राफ गिरना शुरू हो गया है। ये देखकर लगता है कि अर्थव्यवस्था का काफी कुछ दारोमदार मुर्गो पर भी है।
पता नहीं हमारा भारतीय रिजर्व बैंक और अर्थशास्त्रियों ने इस मर्म को समझा है या नहीं। मेरी सलाह में उन्हें जल्द इसे समझना चाहिए।एक राज की बात और बताता हूं। दूसरे विश्व युद्ध में सैनिकों की ताकत बढ़ाने के लिए मुर्गो की बाकायदा मिलिट्री किचेन में भर्ती की जाती थी। पूरी बटालियन मुर्गे को उदरस्थ करके इतनी जोर की डकार लेती थी कि दुश्मन की आधी रेजिमेंट तो उस डकार को सुनकर ही शहीद हो जाती थी। जरा सोचिए, उस समय भी अगर ये बर्ड फ्लू नाम की लानत होती तो क्या वह जंग खत्म हो सकती थी।
अभी एक दिन हमने एक मुर्गे को दोपहर में बांग देते देखा। ताज्जुब भी हुआ और गुस्सा भी आया। उससे पूछा, ये कौन सा टाइम है बांग देने का। तुम लोगों के लिए तो सुबह चार बजे का वक्त निर्धारित किया गया है। वह बोल पड़ा, तुम लोगों का भी तो तड़के चार बजे उठना मुकर्रर था। लेकिन क्या हुआ। सारी रात तुम उल्लुओं जैसा जागते हो, गधों की तरह स्मार्ट फोन पर जूझते हो, फिर भैंसे की तरह दोपहर तक पसरे रहते हो। तो मैंने भी बांग का समय बदल लिया।
उसकी बात में दम था, लेकिन हम दिनदहाड़े उससे अपमानित नहीं होना चाहते थे, इसलिए बात बदलकर कहा- अरे भैया, बर्ड फ्लू से पूरा देश कांप रहा है और तुम बांग देते घूम रहे हो। वह बोला- चिंता करके भला मैं क्या करूंगा। मुङो तो हर हाल में मरना ही है। अगर बर्ड फ्लू से बच भी गया तो सरकार दवा छिड़ककर इस डर से मार देगी कि मेरी वजह से दूसरे न मर जाएं।
अगर फिर भी बच गया तो कितने दिन? दुकान पर कोई ग्राहक आएगा और 50 रुपये किलो की दर से मुङो ले जाएगा और उसके बावर्चीखाने में मेरे पंचतत्व टुकड़े-टुकड़े होकर किसी कुकर में सीटी बजा रहे होंगे। मित्रों! मुर्गे की बात का हमारे पास तो कोई जवाब नहीं है, अगर आपके पास हो तो अवश्य बताएं। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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