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DU Admission 2020: देश में रोजगार आधारित उच्च शिक्षा की ठोस पहल की जरूरत

दिल्ली विश्वविद्यालय के विभिन्न स्नातक पाठ्यक्रमों में आवेदकों की तुलना में सीटें नहीं बढ़ पा रही हैं। लिहाजा इनमें नामांकन मुश्किल होता जा रहा है। कई विभागों में तो कटऑफ 100 प्रतिशत के आसपास तक पहुंच गया है। दिल्ली के हजारों छात्रों को दिल्ली विवि में नामांकन से वंचित होना।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Tue, 27 Oct 2020 09:07 AM (IST)Updated: Tue, 27 Oct 2020 09:19 AM (IST)
DU Admission 2020: देश में रोजगार आधारित उच्च शिक्षा की ठोस पहल की जरूरत
एक नई स्किल और एंटरप्रेन्योरशिप यूनिवर्सिटी की स्थापना इन दोनों मुश्किलों को कुछ हद तक कम कर सकती है।

शंभु सुमन। हर वर्ष की तरह इस बार भी दिल्ली विश्वविद्यालय के कई कॉलेजों में 98 से 100 फीसद कटऑफ के साथ शुरू में ही अधिकतर विषयों की करीब आधी सीटें भर गईं। बीए, बीएससी, बीकॉम और कंप्यूटर साइंस में नामांकन को लेकर मची मारामारी में वे लाखों छात्र-छात्राएं मायूस हो गए, जिनको 12वीं में 70-80 फीसद नंबर आए हैं। उससे नीचे के अंक लाने वालों को आगे की पढ़ाई के लिए पत्राचार कोर्स की राह अपनानी होगी, जिस कारण उनकी आगे की राह और भी कठिन होगी। कोविड महामारी के चलते इस बार 12वीं की परीक्षाएं जैसे-तैसे निपटाई गई थीं। अंक निर्धारण की पद्धति में बदलाव किए गए थे।

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परीक्षा पास करने वालों का प्रतिशत बेतहाशा बढ़ गया : सीबीएससी बोर्ड की परीक्षा में न केवल साढ़े दस लाख से अधिक विद्यार्थी पास हुए, बल्कि 38,686 ने 95 फीसद से अधिक अंक हासिल किए। यह पिछले साल की तुलना में दोगुने से अधिक का रिकार्ड है। साथ ही, इस बार 1.58 लाख छात्र को 90 से 95 फीसद अंक आए, जबकि पिछले साल इतने अंक मात्र 94 हजार छात्रों को मिले थे। ऐसी ही स्थिति राज्यों में शिक्षा बोर्ड की परीक्षाओं में बैठने वाले एक करोड़ से अधिक छात्रों के आए नतीजों की भी है, जहां परीक्षा पास करने वालों का प्रतिशत बेतहाशा बढ़ गया।

राजधानी दिल्ली में ही कॉलेजों की घोर कमी : एक तरफ अंकों का बढ़ा हुआ प्रतिशत और दूसरी ओर दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) में ऑनलाइन एडमिशन की सुविधाजनक प्रक्रिया। डीयू के 91 कॉलेजों में 86 विभागों के महज 70 हजार सीटों के लिए करीब ढाई लाख आवेदन आए। डीयू में एडमिशन के आकर्षण की मूल वजह अच्छी पढ़ाई, स्तरीय मान्यता और रोजगार के बेहतर मौके मिलने की संभावना है। नतीजन देश के लगभग सभी राज्यों से 12वीं पास युवा इनमें एडमिशन के लिए दिल्ली की दौड़ लगाते हैं। जबकि राजधानी दिल्ली में ही कॉलेजों की घोर कमी है। दूसरे राज्यों के स्तरीय विश्वविद्यालयों में भी नामांकन को लेकर होड़ मची रहती है। सभी जगह कॉलेजों की कमी बनी हुई है। ऐसे में सवाल उठता है कि ऐसी स्थिति आखिर क्यों और इसका जिम्मेदार कौन? एक देश और एकसमान स्तरीय शिक्षा व्यवस्था का तंत्र विकसित करने में हम आखिर कब तक पिछड़े रहेंगे? उच्च शिक्षा के लिए लगातार बढ़ती छात्रों की संख्या और बदलाव की पढ़ाई को लेकर गंभीर समीक्षा क्यों नहीं की जाती है? छात्रों का अनावश्यक माइग्रेशन आखिर कब तक?

इस बीच दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने स्वीकार किया है कि सीटें कम और कॉलेजों की संख्या अधिक होने की वजह से हर साल करीब सवा लाख छात्रों का ही दिल्ली के कॉलेजों में एडमिशन हो पाता है। इस कमी को तब तक दूर नहीं किया जा सकता, जब तक नए कॉलेज की स्थापना के लिए बने अंग्रेजों के जमाने के कानून में समयानुकूल संशोधन नहीं किया जाएगा। इस कानून के कारण ही दिल्ली में पिछले तीन दशकों से दिल्ली विश्वविद्यालय के तहत कोई कॉलेज नहीं खुले। इस कानून के मुताबिक दिल्ली में खोला जाने वाला नया कॉलेज डीयू से ही संबद्ध किया जा सकता है।

यूनिवर्सटिी खोलने के लिए दिल्ली यूनिवर्सटिी एक्ट 1922 के सेक्शन 5(2) में बदलाव जरूरी : वैसे इसमें 1998 में आंशिक संशोधन कर नए कॉलेज की संबद्धता के लिए गुरु गोबिंद सिंह इंद्रप्रस्थ यूनिवर्सटिी को मान्यता मिली थी। उसी साल दिल्ली सरकार द्वारा इसकी स्थापना हुई थी, जिससे 127 कॉलेज संबद्ध हैं और उसकी क्षमता को देखते हुए वहां भी नया कॉलेज खोलना संभव नहीं है। वैसे भी इसकी मान्यता एक शिक्षण सह संबद्धता के तौर पर है। इसी के साथ यानी नए कॉलेज और यूनिवर्सटिी खोलने के लिए दिल्ली यूनिवर्सटिी एक्ट 1922 के सेक्शन 5(2) में बदलाव जरूरी है। केंद्र सरकार से इसकी गुहार लगाई गई है। शिक्षा की बदली हुई परिस्थितियों में नई पीढ़ी को वैश्विक शिक्षा के समकक्ष बनाने और रोजगारोन्मुखी माहौल देने के लिए नए जमाने के कॉलेज और यूनिवर्सटिी खोलने की सख्त जरूरत है। बीते दो दशकों में तकनीकी तरक्की की वजह से शिक्षा के क्षेत्र में तेजी से बदलाव आया है। कंप्यूटर के साथ इंटरनेट और उनसे जुड़ी पढ़ाई का दायरा निरंतर विस्तृत हुआ है। किंतु उस स्तर से हमारी शैक्षिक व्यवस्था में कई खामियां बरकरार हैं।

आधुनिक तकनीक व नवोन्मेष में फिसड्डी : सूचना और संचार क्रांति ने आज हर क्षेत्र के कामकाज को पूरी तरह से पलट कर रख दिया है। हम इंटरनेट की बदौलत क्लाउड और क्वांटम कंप्यूटिंग के साथ साथ ऑटोमेशन के दौर में आ चुके हैं। हैरत की बात है कि भारत में शिक्षित से लेकर अशिक्षित तक जिन तकनीकों की रौ में बह रहे हैं, उनकी बुनियाद हमारे शिक्षा तंत्र ने नहीं रखी है। इस पूरे तंत्र को वैश्विक विश्वविद्यालयों में विकसित किया गया है। शिक्षा की बुनियादी जरूरतों को पूरा नहीं कर पाने के कारण हम भारत में उनसे संबंधित संस्थानों को भी विकसित नहीं कर पाए।

विश्व की पांच बड़ी संस्थाओं माइक्रोसॉफ्ट, गूगल, एप्पल, अमेजन और फेसबुक की बदौलत हमारे घर से लेकर दफ्तर तक की अधिकतर जरूरतें निपटाई जा रही हैं। इनके अलावा, दर्जनों कंपनियां स्वास्थ्य, यातायात, सíवलांस, ऑनलाइन शिक्षा, मीडिया, ई-गवर्नेस आदि को संचालित कर रही हैं। उनके निर्माण में हमारे शिक्षा तंत्र से निकले युवाओं के योगदान पर भी सवाल उठाए जा सकते हैं। कमजोर और लचर शिक्षा व्यवस्था के साथ साथ शिक्षण संस्थानों की कमी की वजह से ही हम माइक्रोसॉफ्ट, गूगल, अमेजन और फेसबुक आदि के महज उपयोगकर्ता बनकर रह गए हैं। शायद यही कारण है कि हमें इन मामलों में पूर्णतया विदेशी तकनीकों पर निर्भर रहना पड़ता है। जहां एक ओर भारत में आज इंटरनेट पर अधिकांश चीजें गूगल के जरिये सर्च की जाती हैं, वहीं चीन अपना स्वयं का सर्च इंजन बना चुका है। हमें भी इस बारे में सोचना चाहिए। इसका बड़ा फायदा डाटा में सेंधमारी से बचाव और आत्मनिर्भरता के रूप में सामने आ सकता है।

[स्वतंत्र टिप्पणीकार]

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