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लालू प्रसाद यादव: चारा ने कर दिया 'बेचारा', दागदार होती गई करिश्‍माई सियासी छवि

दो-दो प्रधानमंत्री बनवाने वाले लालू प्रसाद यादव को चारा घोटाला ने बेचारा बना दिया है। अगर वे चारा के चक्कर में नहीं पड़ते तो राजनीति के शीर्ष पर होते।

By Amit AlokEdited By: Published: Sun, 07 Jan 2018 10:20 AM (IST)Updated: Mon, 08 Jan 2018 11:27 PM (IST)
लालू प्रसाद यादव: चारा ने कर दिया 'बेचारा', दागदार होती गई करिश्‍माई सियासी छवि
लालू प्रसाद यादव: चारा ने कर दिया 'बेचारा', दागदार होती गई करिश्‍माई सियासी छवि

पटना [अरविंद शर्मा]। चारा घोटाले में साढ़े तीन साल की सजा ने लालू की करिश्माई सियासी छवि को एक बार फिर दागदार कर दिया है। गोपालगंज के एक गरीब परिवार में पैदा होकर और बचपन में गाय-भैंस चराकर लालू ने अपने दम पर सियासत में जितना ऊंचा मुकाम पाया, उतना ही बदनाम भी हुए। देश में ऐसा कोई नेता नहीं जिसपर भ्रष्टाचार के इतने सारे आरोप लगे हैं। चारा से लेकर रेलवे टेंडर घोटाले तक ने लालू को बहुत परेशान और बदनाम किया है। भ्रष्टाचार के लिए सात बार जेल की यात्रा करने वाले लालू शायद देश के इकलौते नेता हैं। चारा घोटाले में लालू नहीं फंसते तो आज राष्ट्रीय राजनीति उनका मुकाम कुछ और होता।
लो प्रोफाइल और मसखरा दोनों उपाधियां साथ चलीं
आप लालू प्रसाद को लो-प्रोफाइल नेता कह सकते हैं। राजनीति का मसखरा भी समझ सकते हैं। लेकिन, बिहार में एक तबका ऐसा भी है जो उन्हें गरीबों का मसीहा मानता है। विरोधियों की गुगली को मजाक में उड़ा देने वाली भोली सूरत पर आप मत जाइए। राजनीति में घाघ नेता का मतलब लालू होता है।

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देश में ऐसा कोई दूसरा नेता नहीं हुआ, जिसने सियासी कील-कांटे दूरकर दो-दो नेताओं के प्रधानमंत्री बनने का रास्ता साफ किया। 90 के दशक की राजनीति को जानने वाले बेहतर बता सकते हैं कि लालू प्रसाद ने कैसे एचडी देवेगौड़ा और आइके गुजराल को उनकी मंजिल तक पहुंचाया। ...और मुलायम सिंह यादव के प्रधानमंत्री बनने के सपने पर किस तरह पानी फेरा।
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छात्र राजनीति से की थी शुरुआत
लालू की राजनीति की शुरुआत पटना विश्वविद्यालय से हुई थी। वह 1970 में छात्रसंघ अध्यक्ष चुने गए थे। मौके को हासिल करने में माहिर लालू ने आपातकाल के दौरान जेपी समर्थक के रूप में अपनी पहचान बनाई। किस्मत ने भी साथ दिया और महज 29 साल की उम्र में 1977 में पहली बार लोकसभा पहुंच गए। जेपी के नारों को दोहराते और आम लोगों को सपने दिखाते हुए लालू आगे बढ़ते गए।

मंडल कमीशन की लहर ने लालू के लिए पतवार का काम किया और इसके सहारे उन्होंने वह सब हासिल किया जो एक नेता का सपना होता है। बिहार में शीर्ष पद पर पहुंचकर लालू ने जितनी लोकप्रियता कमाई, उतना सबके लिए संभव नहीं है।

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भटकाव और बिहार का पिछड़ेपन की मिली सजा 
पहले से ही पिछड़ा बिहार उनके शासनकाल में बर्बाद होने लगा। घोटाले और अपराध लालू सरकार की पहचान बन गई। 1997 में लालू प्रसाद पर चारा घोटाले का आरोप लगा। इसकी चर्चा जैसे-जैसे बढ़ती गई, वैसे-वैसे चुनावों में लालू का प्रदर्शन भी फीका पड़ता गया। हालांकि, लालू ने यह दिखाने की कोशिश की कि वे अलग मिट्टी के बने नजर आए। किसी की परवाह नहीं की। नतीजा हुआ कि 2005 में नीतीश कुमार ने भाजपा के सहयोग से लालू के साम्राज्य को तहस-नहस कर दिया।
राबड़ी की कुर्सी चर्चित घटना बन गई
लालू ने हमेशा अपनी शैली में ही राजनीति की। पत्थर तोडऩे वाली भगवतिया देवी हो या लालू की तारीफ में गाना गाने वाले ब्रह्मानंद मंडल, लालू ने दोनों को सड़क से संसद तक पहुंचा दिया। लालू ने न केवल अपने चहेतों को उत्कर्ष पर पहुंचाया, बल्कि परिवार और रिश्तेदारों पर भी उतनी ही मेहरबानी दिखाई। चारा घोटाले में में जेल जाने से पहले उन्होंने अपनी अनपढ़ पत्नी राबड़ी देवी को बिहार का ताज सौंप दिया। लालू के इस फैसले की चौतरफा आलोचना हुई, लेकिन उन्होंने इसकी परवाह नहीं की।

राबड़ी की पहचान सिर्फ घर की चारदीवारी तक सीमित थी। उन्हें घरेलू महिला के रूप में ही जाना जाता था, लेकिन सीबीआइ जब लालू के दरवाजे पर गिरफ्तार करने पहुंची तो राबड़ी को मुख्यमंत्री बनवाकर उन्होंने सियासी कौशल का परिचय दिया। राजद के समर्पित नेता देखते रह गए। राबड़ी को सीएम के रूप में पाकर विपक्ष को भी हैरत हुई। किंतु लालू ने बिहार की सत्ता और सियासत पर कब्जा बरकरार रखा।

राबड़ी के भाइयों साधु और सुभाष यादव पर भी लालू की कृपा बरसी। आलोचना की परवाह किए बिना दोनों भाइयों को संसद पहुंचा दिया।
परिवार मोह में धृतराष्ट्र कहलाए
घोटाले के आरोपों में फंसने और जेल यात्राओं के बावजूद लालू की राजनीति का अंदाज और तेवर बरकरार है। वह आज भी अपनी शर्तों पर राजनीति करते हैं। नीतीश के साथ महागठबंधन करके 15 सालों बाद सत्ता में लौटे लालू ने तेजस्वी यादव पर लगे आरोपों के मुद्दे पर झुकना स्वीकार नहीं किया और सत्ता से हाथ धो बैठे।

लालू का यह अंदाज उनके विरोधियों के साथ-साथ करीबियों को भी नागवार गुजरता रहा है। 2014 के लोकसभा चुनाव में अपने सबसे करीबी और विश्वस्त नेता रामकृपाल यादव की उपेक्षा करते हुए उन्होंने अपनी बड़ी बेटी डॉ. मीसा भारती को लोकसभा का टिकट थमा दिया। मीसा चुनाव हार गईं और लालू को अपने करीबी नेता से हाथ धोना पड़ा। रामकृपाल अभी भाजपा के सांसद और केंद्रीय मंत्री हैं।

रामकृपाल के पार्टी छोडऩे के बाद भी लालू ने सबक नहीं लिया और परिवार को प्रश्रय देना जारी रखा। लोकसभा में पराजित मीसा को लालू ने राज्यसभा सदस्य बना दिया। यह क्रम आगे भी चलता रहा। विधानसभा चुनाव के दौरान तीन दलों के महागठबंधन के पहले लालू ने पार्टी के कई वरिष्ठ नेताओं को दरकिनार करके अपने छोटे पुत्र तेजस्वी को आगे बढ़ाया। सरकार बनने पर तेजस्वी को उपमुख्यमंत्री बनाया। बड़े पुत्र तेज प्रताप यादव सरकार के वरीयता क्रम में तीसरे नंबर के मंत्री बने, जबकि राजद के अन्य वरिष्ठ नेताओं का क्रम तेज-तेजस्वी के बाद रहा।

महागठबंधन के बिखरने के बाद लालू ने पार्टी का प्रमुख चेहरे के रूप में तेजस्वी का नाम आगे बढ़ा दिया। उन्हें मुख्यमंत्री प्रत्याशी घोषित कर दिया गया है। जाहिर है, लालू की राजनीति का अपना स्टाइल है।


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