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भारत और तिब्बत के रिश्तों के गवाह हैं उत्तरकाशी में नेलांग घाटी के ये पत्थर

भारत-चीन सीमा पर स्थित उत्तरकाशी जिले की नेलांग घाटी स्वयं में इतिहास समेटे हुए है। यहां आज भी ऐसे पत्थर मौजूद हैं जिन पर तिब्बती लिपि में बौद्ध धर्म का मूल मंत्र खुदा हुआ है।

By BhanuEdited By: Published: Sun, 24 Jul 2016 10:50 AM (IST)Updated: Mon, 01 Aug 2016 07:01 AM (IST)
भारत और तिब्बत के रिश्तों के गवाह हैं उत्तरकाशी में नेलांग घाटी के ये पत्थर

उत्तरकाशी, [शैलेन्द्र गोदियाल]: भारत-चीन सीमा पर स्थित उत्तरकाशी जिले की नेलांग घाटी स्वयं में इतिहास समेटे हुए है। एक दौर में इस घाटी के जरिए न सिर्फ भारत-तिब्बत के बीच व्यापार होता था, बल्कि बौद्ध धर्म के अनुयायी दोरजी (तिब्बती व्यापारी) बौद्ध धर्म व अपनी संस्कृति का प्रचार भी करते थे।
इसका प्रमाण हैं नेलांग घाटी के जादूंग, नेलांग व कारछा में मौजूद वे पत्थर, जिन पर तिब्बती लिपि में बौद्ध धर्म का मूल मंत्र खुदा हुआ है।

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सामरिक दृष्टि से संवेदनशील होने के कारण नेलांग घाटी को 'इनर लाइन' क्षेत्र घोषित किया गया है।
यहां कदम-कदम पर सेना की कड़ी चौकसी है और बिना अनुमति यहां कोई प्रवेश नहीं कर सकता, लेकिन 1962 के भारत-चीन युद्ध से पहले यहां भारत-तिब्बत के बीच व्यापार चला करता था। तब यह घाटी दोनों मुल्कों के व्यापारियों से गुलजार रहती थी।

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दोरजी ऊन, चमड़े से बने वस्त्र व नमक लेकर थांगला दर्रे से जादूंग-नेलांग होते हुए उत्तरकाशी तक आते थे और यहां से तेल, मसाले, दालें, गुड़ व तंबाकू लेकर वापस लौटते थे। तब दोरजी के साथ ऐसे तिब्बती भी घाटी में आते थे, जिनका उद्देश्य यहां बौद्ध धर्म और तिब्बती संस्कृति का प्रचार-प्रसार करना भी होता था।

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जादूंग गांव के मूल निवासी 70 वर्षीय नारायण ङ्क्षसह बताते हैं कि नेलांग, जादूंग व कारछा गांव गर्मियों के मौसम में दोरजी आया करते थे। उनके साथ कुछ धर्म प्रचारक भी होते थे, जो गांव के आसपास पत्थरों पर तिब्बती लिपि में बौद्ध धर्म की प्रार्थना उकेरते थे। यही वजह है कि आज भी नेलांग, जादूंग और कारछा के आसपास ये पत्थर जगह-जगह बिखरे पड़े हैं।
पत्थरों पर अंकित है प्रार्थना
नेलांग घाटी में पत्थरों पर बौद्ध धर्म की जो प्रार्थना लिखी है, यह तिब्बती बौद्ध धर्म का मूल मंत्र है। इसका भावार्थ है, 'अहं का नाश हो, सज्जनता व उदारता का विकास हो, सदाचार के गुणों का विकास हो। असीमित इच्छाओं का दमन हो, धर्म का विकास हो, पूर्वाग्रह की समाप्ति हो, दृढ़ता व एकाग्रता का विकास हो, घृणा की समाप्ति हो और बुद्धिमता का विकास हो।

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आज भी मनाते हैं तिब्बतियों का पर्व
इतिहासकार एवं सबाल्टन वेलफेयर सोसाइटी के सचिव डॉ. विजय बहुगुणा के मुताबिक नेलांग घाटी में पत्थरों पर तिब्बती लिपि में बौद्ध धर्म का मूलमंत्र जो उकेरा गया है। 1962 से पहले तिब्बत के व्यापारी यहां आकर व्यापार के साथ धर्म-संस्कृति का प्रचार-प्रसार भी करते थे। जादूंग व नेलांग के जाड़ और भोटिया समुदाय के मूल निवासी आज भी तिब्बतियों के प्रमुख पर्व लोसर को मनाते आ रहे हैं।

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