क्रिया योग का गुरुद्वारा है पांडुखोली
क्रिया योग में दीक्षित विख्यात बालीवुड सितारे रजनीकांत के उत्तराखंड भ्रमण से अध्यात्म की यह अलौकिक विधा एक बार फिर चर्चा के केंद्र में है।
हल्द्वानी, नैनीताल [जेएनएन]: क्रिया योग में दीक्षित विख्यात बालीवुड सितारे रजनीकांत के उत्तराखंड भ्रमण से अध्यात्म की यह अलौकिक विधा एक बार फिर चर्चा के केंद्र में है। पूरी दुनिया में क्रिया योग का परचम फहराने वाले परमहंस योगानंद महाराज के दादा गुरु श्यामाचरण लाहिड़ी ने पांडुखोली में सबसे पहले अध्यात्म की इस अलौकिक विधा की दीक्षा ली थी।
द्वाराहाट से लगभग 25 किलोमीटर दूर दूनागिरि मार्ग पर स्थित कुकुछीना से बाजं-बुरांश के हरे-भरे घने वनों से उत्तराभिमुख पैदल मार्ग पर ऊंचाई की ओर लगभग पांच किमी की यात्रा जहां संपन्न होती है। समुद्र सतह से लगभग नौ हजार फीट ऊंचा स्थित वह क्षेत्र पांडुखोली के नाम से पूरी दुनिया में चर्चित है।
एक सौ अस्सी अंश तक विस्तृत विराट हिमालय के नयनाभिराम दर्शन के लिए ही यहां पर्यटक नहीं आते, अपितु मानसिक शांति व आध्यात्मिक चेतना को विकसित करने के लिए भी यह क्षेत्र महापुरुषों का प्रिय स्थल रहा है।
पुरा साहित्य हमें ऐसे अवसरों की भी सूचना देता है, जिनसे स्पष्ट होता है कि चमत्कृत व सम्मोहित कर देने वाले इस सिद्ध क्षेत्र में कई विभूतियां विगत पांच हजार साल से भी अधिक समय से तपस्या कर रही हैं। स्वामी योगानंद महाराज ने एक योगी की आत्मकथा में बताया है कि उनके गुरु युक्तेश्वर गिरि महाराज के भी गुरु श्यामाचरण लाहिड़ी महाशय जी ने यहीं अपने गुरु महावतार बाबा जी से क्रिया योग की दीक्षा ली थी।
ऐसी मान्यता है कि महावतार बाबा बीते पांच हजार साल से भी अधिक समय से यहां साधनारत हैं, जो विशिष्ट योगी को ही दर्शन देते हैं। इसीलिए इस क्षेत्र को क्रिया योग का गुरुद्वारा कहा जाता है।
तीस सितंबर 1828 को जन्मे व 26 सितंबर 1895 को शरीर त्यागने वाले लाहिड़ी महाशय उच्च कोटि के साधक थे, जिन्होंने गृहस्थ जीवन में ही यौगिक पूर्णता प्राप्त कर ली थी। पश्चिम बंगाल के नदिया जिले की प्राचीन राजधानी कृष्णनगर के निकट धरणी (घुरनी) गांव से अध्ययन करने के लिए वह काशी आ गए, जहां बांग्ला, संस्कृत व अंग्रेजी विषय में विशेष योग्यता हासिल की थी।
जीविकोपार्जन के लिए दानापुर स्थित मिलिट्री अकाउंट्स कार्यालय में नौकरी करने लगे, जहां से कुछ समय के लिए रानीखेत भेज दिए गए। वहीं एक दिन दूर से आ रही आवाज से सम्मोहित हो वह पांडुखोली पहुंच गए, जहां महावतार बाबा ने उन्हें क्रिया योग की दीक्षा दी थी। बनारस में बंगाली टोला मोहल्ले में उनका आवास था, जहां आज भी उनकी चरण पादुकाएं हैं।
पांडव भी पहुंचे थे यहां
द्वापर युग में अपने वनवास काल के दौरान पांडव भी अल्मोड़ा जिले के इस अत्यंत रमणीक स्थल पर पहुंचे थे। यहां स्थित प्राकृतिक गुफाओं ने जहां उन्हें सुरक्षा प्रदान की थी, वहीं एकांत ने ध्यान एवं आध्यात्मिक उत्थान का मार्ग भी प्रशस्त किया था।
त्रेता युग में भरत ने की थी तपस्या
त्रेता युग में श्रीराम के अनुज भरत ने भी इस क्षेत्र में (भरतकोट या भटकोट) तपस्या की थी। वाल्मीकि रामायण के अनुसार न राजा यत्र पीड़ा स्यान्नाश्रमाणां विनाशनम्। स देशो दृश्यतां सौम्य नापराध्या महे यथा। अयं कारुपथो देशो रमणीयो निरामया...अंगदं पश्चिमां भूमिं चंद्रकेतु मुखम्। अर्थात श्रीराम अपने अनुज भरत को आदेश देते हैं कि लक्ष्मण के पुत्र अंगद व चंद्रकेतु को ऐसा राज्य प्रदान करना है, जहां उन्हें कोई कष्ट न हो। तब भरत हिमालय अंचलों में भ्रमण करते हुए उत्तराखंड के विषय में श्रीराम को बताते हैं कि ऐसा क्षेत्र मिल गया है। कम आबादी का वह क्षेत्र विघ्न बाधा रहित है।
वहां के लोग सौम्य, निर्लोभी, अपराध विहीन और भूमि पर शयन करने वाले होते हैं। उत्तर कुरु को पहुंचाने वाले पंथों का यह कारुपथ महारमणीय है। पौराणिक ग्रंथों के अनुसार हिमालय पार के तिब्बत प्रदेश का प्राचीन नाम उत्तर कुरु व मेरठ-हस्तिनापुर का नाम दक्षिण कुरु था। इन दो प्रांतों को जोड़ने वाले बीच के क्षेत्र (उत्तराखंड) का नाम कारुपथ पड़ा।
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