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कुदरत के खजाने पर बंदिशों का साया

उत्तराखंड में कुदरत ने नेमतें बिखेरी हैं। लेकिन कुदरत के इस खजाने पर बंदिशों का साया है। जो उत्तराखंड की खूबसूरती को निखरने नहींं दे रही है।

By Raksha PanthariEdited By: Published: Wed, 08 Nov 2017 08:15 PM (IST)Updated: Thu, 09 Nov 2017 03:00 AM (IST)
कुदरत के खजाने पर बंदिशों का साया

देहरादून, [रविंद्र बड़थ्वाल]: कुदरत ने जंगल और जल जैसे जिस अकूत खजाने से उत्तराखंड को भरपूर नवाजा, वह राज्य को सेहतमंद और खुशहाल बनाने में इस्तेमाल होना तो दूर, उल्टा बंदिशों को सबब बन गया है। उत्तराखंड ऐसा पहला राज्य होगा जो अपने प्राकृतिक संसाधनों पर सिर्फ इतरा ही सकता है। इस हिमालयी राज्य की आर्थिकी को संवारने के लिए इन संसाधनों का कैसे सदुपयोग किया जाए, इसकी चिंता केंद्र सरकार को भी नहीं है। नतीजा केंद्रीय मदद के लिए हर साल हाथ फैलाने की मजबूरी तो है ही, हर पैदा होने वाला बच्चा भी करीब 44 हजार के कर्ज के बोझ के तले दबा हुआ है। जीएसडीपी और प्रति व्यक्ति आमदनी के चमकदार आंकड़े भी भौगोलिक विषमताओं के साथ विकास में असमानता की खाई को पाटने में बेबस नजर आ रहे हैं। ऐसे में 17वीं वर्षगांठ के मौके पर राज्य के सामने विकास में आत्मनिर्भर होने का यक्ष प्रश्न अनुत्तरित खड़ा हुआ है।

ग्रीन बोनस की अनदेखी 

राज्य बनने के बाद से ही उत्तराखंड की आर्थिकी पटरी पर नहीं आ पा रही है। ऐसा कब तक होगा, इसका अनुमान भी लगाना मुमकिन नहीं है। राज्य के अपने बड़े प्राकृतिक संसाधन केंद्र के हाथों बंधक बने हुए हैं। ग्रीन डेफिसिट राज्यों की करतूतों की कीमत उत्तराखंड को पर्यावरणीय बंदिशों के रूप में अदा करनी पड़ रही है। राज्य में 64.8 फीसद वन क्षेत्र अब बढ़कर 70 फीसद से ज्यादा हो गया है। वनों के चलते राज्य को विकास के लिए भूमि की किल्लत झेलनी पड़ रही है, वहीं ढांचागत सुविधाओं के विस्तार में बड़ा अड़ंगा लगा है। ऊपर से वनों की सुरक्षा पर होने वाले खर्च के चलते हर साल घाटा बढ़ रहा है। इस वजह से औसतन हर साल 16 करोड़ से ज्यादा घाटा उठाने की नौबत है। पिछले दस साल के वक्फे में राज्य में 20 वर्ग किमी वन क्षेत्र में इजाफा हुआ। यही वजह है कि ग्रीन डेफिसिट राज्यों को एक अनुमान के मुताबिक करीब 40 हजार करोड़ की पारिस्थितिकीय सेवाएं दे रहे उत्तराखंड को ग्रीन बोनस देने की पैरोकारी की जा रही है। लेकिन फिलहाल इस पर केंद्र चुप्पी साधे हुए है। 

ऊर्जा प्रदेश का ख्वाब चकनाचूर

राज्य के पास जल संपदा का विशाल भंडार है। 9000 झील और 1200 ग्लेशियर के संजाल में 12000 किमी जल संसाधन। इसके बावजूद प्रदेश की सैकड़ों बस्तियां, गांव प्यास का संकट झेल रहे हैं। वहीं जल संसाधन के बूते देखा गया ऊर्जा प्रदेश का ख्वाब चकनाचूर होता जा रहा है। गंगा के साथ ही भागीरथी इको सेंसिटिव जोन के प्रतिबंधों के चलते बिजली उत्पादन की क्षमता विकास में बाधा उत्पन्न हो गई है। बिजली उत्पादन क्षमता का सिर्फ 11.31 फीसद ही दोहन किया जा सका है। हालांकि प्रदेश में जलविद्युत उत्पादन क्षमता 30 हजार मेगावाट आंकी गई है। बंदिशों की वजह से 2336 मेगावाट के प्रोजेक्ट को स्वीकृति का इंतजार है, जबकि 735 मेगावाट की परियोजनाएं निरस्त की जा चुकी हैं। बड़ी जलविद्युत परियोजनाओं के स्थान पर छोटी जलविद्युत परियोजनाओं की संभावनाएं हैं, लेकिन इसके लिए नीति निर्धारित नहीं हो पाई है। बिजली उत्पादन की तुलना में खपत में तीन गुना इजाफा हो चुका है। राज्य अपनी आबादी को कर्ज लेकर बिजली मुहैया करा रहा है। 

पहाड़ बेहाल, निर्माण लागत ज्यादा

प्रदेश का हिमालयी क्षेत्र में भूमि क्षरण की दर देश की औसत दर से तकरीबन ढाई गुना ज्यादा है। चार टन प्रति प्रति हेक्टेयर प्रति साल की औसत दर से काफी ज्यादा तकरीबन 10 टन प्रति हेक्टेयर प्रति वर्ष की दर से मिट्टी का क्षरण हो रहा है। प्रदेश के कुल 88 फीसद में 35 फीसद क्षेत्र भू-क्षरण से खासा प्रभावित है। हिमालय से रिसने वाली भूमि मैदानी क्षेत्रों में तकरीबन पांच करोड़ से ज्यादा आबादी को भूमि के उपजाऊपन से सीधे फायदा पहुंच रहा है। वहीं पर्वतीय क्षेत्रों में निर्माण कार्यों की लागत तकरीबन दोगुना या उससे भी ज्यादा है। एक किमी मोटर मार्ग पर राज्य को तकरीबन 46 लाख रुपये खर्चने पड़ रहे हैं। इस राशि में 12.50 लाख सिर्फ जंगल बचाने पर होने वाला खर्चा है। केंद्र सरकार सात हजार रुपये प्रति वर्गमीटर के मुताबिक भुगतान करती है, जबकि यह लागत प्रति वर्गमीटर 14 हजार रुपये पड़ रही है।

केंद्रीय मदद पर बढ़ी निर्भरता

राज्य बनने के बाद उत्तराखंड को विशेष औद्योगिक पैकेज और विशेष राज्य का दर्जा मिलने का फायदा हुआ। इस वजह से विकास की दर 14 फीसद को भी पार कर गई थी लेकिन इस दर में अब गिरावट दर्ज की गई है। अपने संसाधनों का इस्तेमाल नहीं करने की वजह से राज्य की केंद्रीय मदद पर निर्भरता हर साल बढ़ती जा रही है। राज्य के कुल बजट का 86 फीसद से ज्यादा वेतन-भत्ते-मानदेय, पेंशन, ब्याज व निवेश ऋण पर खर्च हो रहा है। विकास कार्यों के लिए बेहद कम धनराशि मिल पा रही है। इसी वजह से चालू वित्तीय वर्ष में केंद्र सरकार से सहायता अनुदान के रूप में 8230.61 करोड़ मिलने की उम्मीद संजोई गई है। बीते वित्तीय वर्ष 2016-17 से यह राशि डेढ़ हजार करोड़ ज्यादा है। कृषि, आवास, सड़क, ग्राम्य विकास, शहरी विकास, सहकारिता, पशुपालन, बिजली, पानी और ढांचागत विकास के क्षेत्रों में अधिक केंद्रीय मदद मिलने का भरोसा संजोया गया है। 

जीएसडीपी संग असमानता भी बढ़ी 

वर्ष 2016-17 में वर्ष 2015-16 की तुलना में राज्य सकल घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) में सात फीसद की वृद्धि हुई है। स्थाई भावों पर जीएसडीपी सालाना 162824 करोड़ अनुमानित की गई है। वहीं प्रति व्यक्ति आय 1,60,795 रुपये रहने का अनुमान है। हालांकि, वित्तीय वर्ष 2015-16 की तुलना में वर्ष 2016-17 में राज्य की आर्थिक विकास दर में 0.71 फीसद की गिरावट रही है। अर्थ एवं संख्या निदेशालय के मुताबिक वर्ष 2016-17 में राज्य में प्रति व्यक्ति आय 1,60,795 व आर्थिक विकास दर 7 फीसद रही। वहीं वर्ष 2015-16 में प्रति व्यक्ति आय 1,46,826 रुपये और आर्थिक विकास दर 7.71 फीसद अनुमानित की गई है। विकास दर में और गिरावट दर्ज होने का अंदेशा है। जीएसडीपी और प्रति व्यक्ति आय में इजाफा होने के बावजूद पर्वतीय क्षेत्रों में विकास में असमानता कम होने का नाम नहीं ले रही है। 

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