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राज्य के हालात सुधारने को मजबूत इच्छाशक्ति की दरकार

उत्तराखंड राज्य के गठन को 17 साल पूरे हो चुके हैं। लेकिन हालात आज भी कुछ खास नहीं सुधरे हैं। पलायन, खेती, औद्योगिकी जैसी तमाम चुनौतियां आज भी राज्य के सामने खड़ी हैं।

By raksha.panthariEdited By: Published: Wed, 08 Nov 2017 07:59 PM (IST)Updated: Thu, 09 Nov 2017 03:00 AM (IST)
राज्य के हालात सुधारने को मजबूत इच्छाशक्ति की दरकार

देहरादून, [केदार दत्त]: किसी भी राज्य को संवारने के लिए 17 साल का वक्फा कम नहीं होता, लेकिन इस लिहाज से देखें तो विषम भूगोल वाले उत्तराखंड में हालात अभी भी नहीं सुधरे हैं। राज्य गठन के पीछे जो महत्वपूर्ण मुद्दे थे, वे आज भी जस के तस हैं। फिर चाहे बात राज्य से निरंतर हो रहे पलायन की हो अथवा लगातार बंजर में तब्दील होती कृषि भूमि की अथवा शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार जैसे सवालों की, सभी की दशा किसी से छिपी नहीं है। इन समेत अन्य चुनौतियों से पार पाने की दिशा में जो राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखाई जानी चाहिए थी, वह अब तक नजर नहीं आई। नतीजतन, तमाम दिक्कतों से जूझ रहे राज्यवासियों के मन में यह तक भावना घर करने लगी है कि इससे बेहतर स्थिति तो उत्तर प्रदेश के जमाने में ही थी। 

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उत्तराखंड के 18वें साल में ये बात उठ रही है कि इसे संवारने के लिए अब राज्य आंदोलन की तर्ज पर आंदोलन की जरूरत है तो यह सियासत की अनदेखी और नौकरशाही की हीलाहवाली को ही दर्शाता है। असल में, राज्य गठन के मूल में जो मसले छिपे थे, उनके समाधान के लिए अब तक की सरकारों ने खास रुचि नहीं ली। यदि ली गई होती तो राज्यभर से पलायन की दौड़ पर अंकुश लगता और 2.85 लाख घरों में ताले नहीं लटकते। पहाड़ की रीढ़ कही जाने वाली मातृशक्ति को हलक तर करने को पानी जुटाने के लिए भटकना नहीं पड़ता। यही नहीं, राज्यभर में हजारों घरों को आज भी रोशनी की दरकार है। ये हाल तब है, जबकि प्रचुर जल संसाधनों को देखते हुए उत्तराखंड को ऊर्जा प्रदेश बनाने के दावे अक्सर किए जाते रहे।

और तो और हिमाचल की तर्ज पर खेती-बागवानी को बढ़ावा देकर आर्थिकी संवारने की बातें भी खूब हुई, लेकिन वाईएस परमार जैसे निर्णय लेने की क्षमता यहां के हुक्मरानों में नजर नहीं आई। परिणामस्वरूप खेती और बागवानी आज कितनी तवज्जो मिल रही, किसी से छिपा नहीं है। पर्वतीय इलाकों में आज भी हजारों टन माल्टा यूं ही सड़ जाता है तो उत्तराखंड के सेब को आज भी पहचान की दरकार है।

सूबे को पर्यटन प्रदेश बनाने के दावे भी हुए, लेकिन एक भी नया पर्यटक स्थल अभी तक आकार नहीं ले पाया। ये स्थिति तब है, जबकि कुदरत ने उत्तराखंड को मुक्त हाथों से सौंदर्य बख्शा है। पर्यटन के नाम पर सिर्फ चारधाम और हेमकुंड का तीर्थाटन ही मुख्य है। ऐसा ही हाल अन्य क्षेत्रों का भी है। हालांकि, अब मौजूदा सरकार ने कुछ कदम उठाने का ऐलान किया है और इसमें डबल इंजन का लाभ मिलने की उम्मीद भी है। यह राज्य पर निर्भर है कि उत्तराखंड को संवारने के लिए वह मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति का परिचय देते हुए कितना कुछ हासिल कर पाती है। यह देखने वाली बात होगी।

प्रमुख चुनौतियां

पलायन

शिक्षार्जन व तीर्थाटन को पलायन की बात समझ आती है, लेकिन मूलभूत सुविधाओं के साथ ही बेहतर भविष्य के लिए यह सिलसिला तेजी से बढ़ा है। गुजरे 17 साल में 968 गांव भुतहा हो गए, जबकि दो हजार गांवों में किसी विशेष मौके पर ही कुछ घरों के दरवाजे खुलते हैं। 

खेती-किसानी

उत्तराखंड ऐसा राज्य है, जहां खेती-किसानी को तवज्जो देने में सरकारें हिचकिचाती रहीं। नतीजा ये हुआ कि अब तक एक लाख हेक्टेयर से अधिक कृषि भूमि बंजर में तब्दील हो गई है। उस पर तीन लाख हेक्टेयर ऐसी भूमि पहले से ही मौजूद थी।

औद्योगिकीकरण

राज्य में औद्योगिक विकास केवल मैदानी क्षेत्रों तक ही सीमित है। हालांकि, 2008 में पहाड़ों में उद्योग चढ़ाने को नीति भी बनी, मगर यह परवान नहीं चढ़ पाई। बात समझने की है कि पहाड़ों में वहां की स्थितियों के अनुरूप उद्योगों को बढ़ावा देने के साथ ही स्थानीय लोगों को रोजगार मिलता तो कोई अपनी जड़ों को क्यों छोड़ता। 

पर्यावरण और विकास

71 फीसद वन भूभाग वाले इस सूबे में करीब 46 फीसद फॉरेस्ट कवर है। इन वनों के जरिए राज्य देश को 107 बिलियन रुपये से अधिक की पर्यावरणीय सेवाएं दे रहा है। बावजूद इसके पर्यावरण और विकास में सामंजस्य नजर नहीं आता। 

बिजली-पानी

जल संसाधनों की प्रचुरता के बावजूद राज्य के सैकड़ों गांवों के लोगों का अधिकांश वक्त हलक तर करने को पानी जुटाने में जाया होता है। गर्मियों में यह दिक्कत सर्वाधिक होती है। यही नहीं, जल विद्युत की अपार संभावनाओं के बावजूद 97 घरों के लिए बिजली अभी दूर की कौड़ी है। फिर पर्वतीय इलाकों में जहां विद्युत सुविधा है भी उसका हाल किसी से छिपा नहीं है।

स्वास्थ्य

राज्य के पर्वतीय क्षेत्रों का सबसे अहम सवाल है स्वास्थ्य का। आंकड़ों पर ही नजर दौड़ाएं तो राज्य में सरकारी अस्पतालों की संख्या 993 है और यहां डॉक्टरों के 2711 पद स्वीकृत हैं। इन पदों में 1615 वर्षों से खाली चल रहे हैं और इनमें अधिकांश पर्वतीय क्षेत्र के अस्पताल हैं। 

वन्यजीव

वन बहुल उत्तराखंड को यहां के वन्यजीवों ने देश-दुनिया में नई पहचान दिलाई है, लेकिन यही वन्यजीव यहां के निवासियों के लिए मुसीबत का सबब भी बने हैं। राज्य बनने से लेकर अब तक 610 लोग वन्यजीवों का निवाला बने हैं तो 1300 के लगभग घायल। 

पर्यटन

उत्तराखंड के प्राकृतिक सौंदर्य को देखते हुए इसे पर्यटन प्रदेश के रूप में विकसित करने के दावे भी हुए। इसके बावजूद आज तक सरकारें एक भी नया टूरिस्ट डेस्टिनेशन विकसित नहीं कर पाईं। यही नहीं, पूर्व में विलेज टूरिज्म की बात हुई और 24 गांव चयनित हुए, मगर यह पहल परवान नहीं चढ़ पाई। 

सड़कों का विस्तार

वैसे तो प्रदेश में सड़कों की कुल लंबाई 42702 किलोमीटर है, लेकिन अभी सैकड़ों की संख्या में गांव सड़क सुविधा से अछूते हैं। फिर जो सड़कें अस्तित्व में हैं, उनके रखरखाव के प्रति सिस्टम की सुस्ती जगजाहिर है। 

संचार

डिजिटलाइजेशन के इस दौर में राज्य के पर्वतीय इलाकों में संचार कनेक्टिविटी सबसे बड़ी चुनौती है। इसके अभाव में पहाड़ में बदली परिस्थितियों में बैंकिंग और अन्य सेवाएं ठीक से कदम नहीं रख पा रही हैं। यही नहीं, आपदा की दृष्टि से संवेदनशील राज्य में वक्त पर इसकी कमी अखरती है।

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