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मुजफ्फरनगर दंगा : सवालों के घेरे में जांच रिपोर्ट

मुजफ्फरनगर दंगे के लिए गठित एकल सदस्यीय जस्टिस विष्णु सहाय आयोग की जांच रिपोर्ट की एक्शन टेकेन रिपोर्ट (एटीआर) सार्वजनिक होने के बाद तमाम सवाल उठने लगे हैं।

By Dharmendra PandeyEdited By: Published: Tue, 08 Mar 2016 01:49 PM (IST)Updated: Tue, 08 Mar 2016 09:00 PM (IST)

लखनऊ(आनन्द राय)। मुजफ्फरनगर दंगे के लिए गठित एकल सदस्यीय जस्टिस विष्णु सहाय आयोग की जांच रिपोर्ट की एक्शन टेकेन रिपोर्ट (एटीआर) सार्वजनिक होने के बाद तमाम सवाल उठने लगे हैं। रिपोर्ट में तत्कालीन एसएसपी सुभाष चंद्र दुबे और अभिसूचना निरीक्षक प्रबल प्रताप सिंह को दोषी ठहराये जाने के बाद शेष सभी को किसी न किसी तरह से क्लीन चिट दी गयी है।

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आयोग ने दंगे के लिए मुख्य रूप से अभिसूचना की नाकामी को ही जिम्मेदार ठहराया है लेकिन सबसे अहम सवाल यह है कि केंद्रीय इंटेलीजेंस ब्यूरो ने पश्चिम के बवाल को लेकर सरकार को पहले ही आगाह किया तो भी कोई कारगर कार्रवाई क्यों नहीं की गयी।

आयोग की रिपोर्ट में कहा गया है सात सितंबर 2013 को मुजफ्फरनगर के नगला मंडौर की पंचायत में स्थानीय अभिसूचना इकाई ने 15 से 20 हजार भीड़ एकत्र होने की सूचना दी थी जबकि पंचायत में 40 से 50 हजार की भीड़ जुटी। ऐसे में सारी योजनाएं धरी की धरी रह गयीं। रिपोर्ट के दृष्टिगत दो महत्वपूर्ण तथ्यों पर गौर करना जरूरी है। पहला तो यह कि पांच सितंबर को मुजफ्फरनगर में ऐतिहासिक बंदी हुई। तब प्रशासन ने सरकार को 40 फीसद बंदी की ही सूचना दी थी। इससे भी असमंजस बना हुआ था लेकिन इतनी बड़ी चूक को जांच में नजर अंदाज किया गया। इस मामले में आयोग ने किसी को जिम्मेदार नहीं ठहराया।

जब प्रतिबंधित थी महापंचायत तो कैसे आयी भीड़

सात सितंबर को नंगला मंडौर में खापों की महापंचायत की अनुमति नहीं थी। सरकार की अनुमति न देने के बाद भीड़ जुटने लगी तो प्रशासन ने क्यों नहीं रोका। यह बात तो स्पष्ट है कि 40 से 50 हजार की भीड़ एकमुश्त तो आ नहीं सकती। न ही बीस हजार की भीड़ एक साथ आ धमकी। अगर महापंचायत प्रतिबंधित थी तो भीड़ आने के साथ ही उसे रोकने की कोशिश क्यों नहीं हुई। सच तो यह है कि पांच-दस हजार की भीड़ रोकने का भी प्रबंध नहीं था। इसके लिए तो पूरी व्यवस्था को जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए था लेकिन दो ही अधिकारियों एसएसपी सुभाष चंद्र दुबे और अभिसूचना के निरीक्षक प्रबल प्रताप सिंह को जिम्मेदार ठहराकर इतिश्री कर दी गयी। इससे भी रिपोर्ट पर सवाल उठना स्वाभाविक है।

अलर्ट के बावजूद कारगर कार्रवाई नहीं

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कवाल की घटना के कई माह पहले सुलग रही सांप्रदायिक तनाव की चिंगारी को लेकर इंटेलीजेंस ब्यूरो ने अलर्ट किया था। तत्कालीन केंद्रीय गृह राज्य मंत्री कुंवर आरपीएन सिंह ने तो साफ तौर पर बयान भी दिया था कि केंद्र सरकार द्वारा राज्य को अलर्ट करने के बाद भी कोई कारगर कार्रवाई नहीं की गयी।

सुभाष चंद्र दुबे का गुनाह स्पष्ट नहीं

सरकार की ओर से सदन में जो एटीआर रिपोर्ट रखी गयी उसमें एसएसपी सुभाष चंद्र दुबे को दंगे के लिए जिम्मेदार ठहराया गया लेकिन उनकी चूक उजागर नहीं की गयी है। तत्कालीन प्रमुख सचिव गृह समेत जिन अधिकारियों को क्लीन चिट दी गयी उनके बेगुनाह होने का मंतव्य जरूर स्पष्ट किया गया है।

एडीजी अभिसूचना से मांगेंगे स्पष्टीकरण

शासन ने मुजफ्फरनगर दंगे मे एडीजी अभिसूचना जवाहर लाल त्रिपाठी से स्पष्टीकरण मांगने की तैयारी कर ली है। अभिसूचना इकाई के फेल होने की वजह से दंगा हुआ। अभिसूचना इकाई की अक्षमता के बारे में उनसे स्पष्टीकरण लिया जाएगा।

आइपीएस एसोसिएशन रिपोर्ट पढऩे के बाद उठाएगा कदम

आइपीएस एसोसिएशन ने अभी सुभाष चंद्र दुबे के मामले में कोई कदम नहीं उठाया है लेकिन संकेत मिले हैं कि आयोग की रिपोर्ट पढऩे के बाद ही एसोसिएशन अपनी रुख तय करेगा।

सक्षम आयोग से कराएं जांच

सामाजिक कार्यकर्ता डॉ. नूतन ठाकुर ने सहाय जांच आयोग को प्राथमिक स्तर पर विधि विरुद्ध बताते हुए मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से एक सक्षम आयोग से जांच कराये जाने की मांग की है। उन्होंने मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम 1993 की धारा 24(3) के हवाले से कहा है कि राज्य मानवाधिकार आयोग का अध्यक्ष या सदस्य भविष्य में राज्य सरकार के अधीन किसी अग्रिम नियोजन का पात्र नहीं हो सकता है। जस्टिस सहाय 2008 से 2012 तक उत्तर प्रदेश मानवाधिकार आयोग के सदस्य रह चुके हैं।


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