भूराज ने किया गीतांजलि का हिन्दी पद्यानुवाद
बदायूं : राष्ट्रगान गन गण मन के रचयिता रवीन्द्र नाथ टैगोर ने जिस कालजयी गीतांजलि की है। उस अमर कृति
बदायूं : राष्ट्रगान गन गण मन के रचयिता रवीन्द्र नाथ टैगोर ने जिस कालजयी गीतांजलि की है। उस अमर कृति के अंग्रेजी अनुवाद का बदायूं के युवा कवि भूराज सिंह राजलायर ने ¨हदी में पद्यानुवाद किया है।
नेकपुर सिविल लाइंस बदायूं के रहने वाले भूराज सिंह राजलायर ने पहली बार गीतांजलि का एक गीत पढ़ा तब उनकी उम्र महज 17 वर्ष की थी और वह कक्षा 11 के छात्र थे। इसके बाद एमए में भी गीतांजलि के कुछ गीत पढ़े। गुरुदेव के इन गीतों का युवा कवि पर ऐसा नशा चढ़ा कि इस कालजयी कृति को ¨हदी भाषी काव्य प्रेमियों तक पहुंचाने की ठान ली। 5 जनवरी 2003 को पहली बार उन्होंने यह पुण्य अनुष्ठान शुरू किया तो कवीन्द्र रवीन्द्र से जुड़े तमाम साहित्य का वर्षो तक अध्ययन किया। बंगाल की यात्रा की और गुरुदेव से संबंधित अधिक से अधिक जानकारियां जुटाने की कोशिश की। उसी वक्त पता चला कि 1974 में डा. सत्यकाम विद्यालंकार ने गीतांजलि का बांग्ला से ¨हदी में अनुवाद किया है, लेकिन खुद गुरुजी द्वारा अंग्रेजी में अनूदित कृति का कोई ¨हदी पद्यानुवाद नहीं है। गीतांजलि में कुल 103 गीत लिखे गए हैं, इनमें से 52 गीतों का पद्यानुवाद तो वर्ष 2007 में पूरा कर लिया था, लेकिन बाकी 51 गीतों का पद्यानुवाद नहीं हो सका था। कवि भूराज के जीवन पर गीतांजलि की कुछ ऐसी छाप पड़ी कि इसी बीच जन्म लेने वाली अपनी पुत्री का नाम भी गीतांजलि रख दिया। शेष गीतों के ¨हदी पद्यानुवाद का कार्य अब पूर्ण हो सका। उनकी पांडुलिपियां तैयार हैं। उम्मीद है कि कुछ ही माह में अब प्रकाशन भी हो जाएगा। कवि भूराज बताते हैं कि 1901 से लेकर 1910 तक का काल गुरुदेव के जीवन की दिशा और दशा दोनों में अमूल-चूल परिवर्तन का काल रहा। 1902 में उनकी पत्नी मृणालिनी देवी का निधन हुआ तो 1904 से 06 के बीच उनके एक पुत्र और एक पुत्री ने भी साथ छोड़ दिया। घोर अवसाद एवं मानसिक पीड़ा में वर्ष 1906-10 के बीच बांग्ला भाषा में इस अमरकृति का सृजन करते हुए वियोगी होगा पहला कवि, आह से निकला होगा गान..को चरितार्थ कर दिया। इसमें मानव जाति को कर्मयोग, मानवता की सेवा, प्रेम, समर्पण, भक्ति, आत्म शुद्धि तथा सतत प्रार्थना से प्रभु को प्राप्त करने का सहज मार्ग सुझाया गया है।
स्वयं गुरुदेव ने एक स्थान पर लिखा है कि हर किसी की भांति मेरे अंदर भी दो 'मैं' है। एक वह जो सदैव लालसा, क्रोध, सुख-दुख से शासित है और दूसरा वह है जो पृथक, अटल, स्थिर एवं स्वयं समर्थ है। एक तुच्छ, व्यैक्तिक एवं परिवेश का बंदी है। दूसरा भव्य, सार्वभौमिक और असीमित अनंत से जुड़ा हुआ है..। गीतांजलि कृति गुरुदेव की इसी चिंतन का सार है।
- टिल्लन वर्मा, वरिष्ठ कवि, साहित्यकार