हरे-भरे जीवन का पर्व ‘हरेला’
कैसा हृदयस्पर्शी नजारा है। हल्की फुहारों के बीच चौतरफा फैली हरियाली तन-मन को हर्षा रही है। खेतों में धान की रोपाई चल रही है। हरेला यानी पर्यावरण संरक्षण का पर्व जो आ रहा है। हरेला महज एक त्योहार नहीं, बल्कि उत्तराखंड की जीवनशैली का प्रतिबिंब भी है, जो दर्शाता है
देहरादून। कैसा हृदयस्पर्शी नजारा है। हल्की फुहारों के बीच चौतरफा फैली हरियाली तन-मन को हर्षा रही है। खेतों में धान की रोपाई चल रही है। हरेला यानी पर्यावरण संरक्षण का पर्व जो आ रहा है। हरेला महज एक त्योहार नहीं, बल्कि उत्तराखंड की जीवनशैली का प्रतिबिंब भी है, जो दर्शाता है कि यहां लोग प्रकृति के साथ किस तरह संतुलन साधकर चलते हैं। प्रकृति का संरक्षण यहां की परंपरा का हिस्सा है और इसके लिए लोग किसी भी हद को लांघ सकते हैं। हरेला का संदेश भी यही है। कारण, हरियाली होगी, तभी तो जीवन भी खुशहाल होगा।
उत्तराखंड के लोकपर्वो में शामिल है हरेला, जिसे हरियाली संगरांद (संक्रांति) भी कहते हैं। सूबे के ग्रामीण अंचलों में श्रवण मास की प्रथम तिथि को मनाया जाने वाला यह प्रकृति पर्व गढ़वाल और कुमाऊं में अलग-अलग ढंग से मनाया जाता है। सात अनाज एकत्रित कर देवी को अर्पित करने के बाद नींबू और पंय्या के पौधों का रोपण किया जाता है। आदिकाल से चली आ रही इस परंपरा के तहत प्रकृति और मनुष्य का सहचर्य स्थापित एवं प्रगाढ़ होता है।
ग्रामीण अंचल में बहू के मायके जाने का यह मुहूर्त होता था और चातुर्मास भी इस दिन ही प्रारंभ होता है। आज भी प्रकृति और हरियाली के इस उत्सव की विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान है और यह हमें पुन: लोकजीवन में शामिल होने के लिए प्रेरित करता है। हरेला पर्व उत्तराखंड के प्रकृति प्रेम का प्रतीक है, जो भविष्योन्मुखी समाज को विशिष्ट परहचान देता है।
हरेला दुनिया के बिरले पवरें में से एक है, जो हरियाली की कामना के साथ एक समाज को सामूहिक रूप से जागृत करता है। प्रदेश सरकार ने भी इस बहाने ही सही उत्तराखंड की इस लोक परंपरा को उस पीढ़ी तक ले जाने की कोशिश है, जो हरेला के महत्व से अनभिज्ञ है।