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देवत्व के दर्शन

कभी नाग शिव जी के गले का अलंकरण, कभी विष्णु जी की शय्या तो कभी गणेश जी का जनेऊ बनते हैं। जो भी कल्याणकारी है, उसमें हम देवत्व के दर्शन करते हैं। कृषि व पर्यावरण के लिए उपयोगी सर्पो की पूजा का यही उद्देश्य है। नागपंचमी (1 अगस्त) पर संध्या अतुल टंडन का आलेख.. श्रावण मास की पंचमी तिथि (शुक्लपक्ष) नागों को समर्पित है। श्रीमद्भ

By Edited By: Published: Wed, 30 Jul 2014 08:15 PM (IST)Updated: Thu, 31 Jul 2014 06:35 PM (IST)

कभी नाग शिव जी के गले का अलंकरण, कभी विष्णु जी की शय्या तो कभी गणेश जी का जनेऊ बनते हैं। जो भी कल्याणकारी है, उसमें हम देवत्व के दर्शन करते हैं। कृषि व पर्यावरण के लिए उपयोगी सर्पो की पूजा का यही उद्देश्य है। नागपंचमी (1 अगस्त) पर संध्या अतुल टंडन का आलेख..

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श्रावण मास की पंचमी तिथि (शुक्लपक्ष) नागों को समर्पित है। श्रीमद्भागवत गीता के 10वें अध्याय के 29वें श्लोक में भगवान स्वयं कहते हैं- अनंतश्वास्मि नागानां वरुणो यादसामहम्। अर्थात 'मैं नागों में शेषनाग और जलचरों का अधिपति वरुण हूं।'

पौराणिक ग्रंथों के अनुसार, शेषनाग समस्त नागों के राजा और हजार फणों से यु्क्त हैं। वे श्रीहरि की शय्या बनकर सदा उनकी सेवा में रत रहते हैं।

शास्त्रों के अनुसार, नागों की उत्पत्ति महर्षि कश्यप की पत्नी कद्रू से हुई है। नागों का मूल स्थान 'पाताल लोक' को माना जाता है। पुराणों में नागों की राजधानी भोगवतीपुर विख्यात है। नागकन्याओं का सौंदर्य अप्सराओं के समान अद्वितीय बताया गया है। योग साधना में भी 'कुंडलिनी-शक्ति' को 'सर्पिणी' का ही रूप बताया गया है।

हमारे देश में नागों की पूजा देवता के रूप में किए जाने की पुरानी परंपरा है। इसका पता पौराणिक ग्रंथों के अलावा पुरानी सभ्यताओं के अवशेषों से भी लगता है। इससे यह स्पष्ट है कि भारतीय समाज में नागों को सदा से ही आदरणीय और पूजनीय स्थान प्राप्त है। सनातन ग्रंथों की मान्यता है कि भगवन्नाम का स्मरण करते समय नागों की नामावली का पाठ करना विषनाशक और सर्वत्र विजय दिलाने वाला होता है। नागों के 9 नाम नवनाग देवता कहलाते हैं- अनन्तं वासुकिं शेष पद्मनाभं च कंबलम्।

शंखपालं धृतराष्ट्र तक्षकं कालियं तथा॥

इस प्रकार ये नौ नाम हैं - अनंत, वासुकि, शेष, पद्यनाभ, कंबल, शंखपाल, धृतराष्ट्र, तक्षक और कालिय।

नागपंचमी मनाने के संबंध में ग्रंथों में एक पौराणिक कथा मिलती है, जिसके अनुसार, एक बार नागों ने अपनी माता कद्रू की आज्ञा की अवहेलना की, जिससे क्रोधित होकर नागमाता ने उन्हें यह शाप दे दिया कि 'जब राजा जनमेजय नाग-यज्ञ करेंगे, उस यज्ञ में तुम सब जलकर भस्म हो जाओगे।' तब नागों ने ब्रह्मा जी से शाप मुक्त होने का उपाय पूछा। ब्रह्मा जी ने कहा- 'यायावर वंश में उत्पन्न तपस्वी जरत्कारु तुम्हारे बहनोई होंगे। उनका पुत्र आस्तीक तुम्हारी रक्षा करेगा'। इस तरह से ब्रह्माजी ने यह वरदान नागों को शुक्लपक्ष की पंचमी तिथि को दिया था। इसी तिथि में आस्तीक मुनि ने नागों का परिरक्षण किया था।

नागों को बचाने के प्रयास से शुरू हुई नागपंचमी आज के समय में भी प्रासंगिक है। आज भी नागों व अन्य सर्पो को बचाने की आवश्यकता है। कारण यह कि सर्प हमारे पर्यावरण संतुलन के लिए अत्यंत आवश्यक जीव हैं, साथ ही ये हमारी कृषि के लिए भी बहुत उपयोगी होते हैं। ये चूहों व कीटपतंगों से फसलों की रक्षा करते हैं। भारतीय संस्कृति और दर्शन ने हमें यह सिखाया है कि हमारे लिए जो भी कल्याणकारी होता है, उसी में हम देवत्व के दर्शन करते हैं। संभवत: यही कारण है कि हमारे ऋषि-मुनियों ने नाग को भगवान का रूप माना है और न सिर्फ भगवान शंकर के गले का अलंकरण बनाया है, बल्कि अन्य देवताओं के संग उनकी कल्पना की है।

विषधर होने पर भी नाग को हम शत्रुता या घृणा की दृष्टि से नहीं देखते, बल्कि इनमें देवत्व की छवि देखते हैं। यही हमारी भारतीय संस्कृति की विशेषता है, जहां किसी के प्रति भी कटुता का कोई स्थान नहीं होता है। भारतीय अद्वैत वेदांत के अनुसार, 'प्रत्येक प्राणी ईश्वर का अंश है।' यही चिंतन प्राणिमात्र में परमात्मा का दर्शन कराता है। नागों को सम्मान देने के लिए ही भगवान शंकर ने उन्हें अपने आभूषण के रूप में, गणपति जी ने यज्ञोपवीत के रूप में धारण किया। पुराणों में कहा गया है कि-सूर्यनारायण के रथ में प्रत्येक मास में अलग-अलग नाग उनके रथ का वहन करते हैं। इस प्रकार द्वादस मासों में सूर्य के रथ के वाहक 12 नाग होते हैं। नागों (सर्पो) को भारतीय जन-जीवन में आज भी ग्राम देवता के रूप में पूजा जाता है। कल्हण की 'राजतरंगिणी' के अनुसार, कश्मीर की संपूर्ण भूमि नागों की ही देन है। अब भी वहां अनंतनाग नामक नगर की उपस्थिति इस तथ्य को पुष्ट करती है।

नागों की अनेक जातियां और प्रजातियां हैं। भविष्यपुराण में नागों के लक्षण, नाम, स्वरूप एवं जातियों का विस्तार से वर्णन मिलता है। मणिधारी तथा इच्छाधारी नागों का भी उल्लेख मिलता है। भले ही हम मणिधारी व इच्छाधारी नागों को काल्पनिक माने, लेकिन यह तय है कि नाग हमारे लिए स्वयं मणि हैं। क्योंकि पर्यावरण रक्षा तथा वनसंपदा में नागों की महत्वपूर्ण भूमिका है। ये नाग हमारी कृषि संपदा की विषैले जीव-जंतुओं से रक्षा करते हैं। आयुर्वेद के प्रमुख ग्रंथों-चरक संहिता, सुश्रुतसंहिता तथा भावप्रकाश में भी नागों से संबंधित अनेक विषयों का उल्लेख मिलता है। सर्पो की अधिष्ठात्री मानी जाने वाली 'मनसा देवी' की उपासना भारत में सर्वत्र होती है। यह भी एक विशेष तथ्य है कि द्वापर में श्रीकृष्ण के साथ 'बलराम' और त्रेता युग में श्रीराम के साथ 'लक्ष्मण' जी को शेषनाग का ही अवतार बताया गया है।

नागों के प्रति हमारी सनातन संस्कृति का अनुराग यह भी बताता है कि किसी का एक अवगुण देखकर हमें उसे गुणहीन नहीं मान लेना चाहिए, बल्कि उसके अन्य सद्गुणों को सम्मान देना चाहिए। नाग हमारी प्रकृति की अनुपम विभूति हैं। इनका संरक्षण करना हमारा कर्तव्य है। जीव-जंतुओं और पर्यावरण के प्रति हमारी जागरूकता नाग पंचमी का उद्देश्य है।

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