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नंदा राजजात: पत्थरों के गांव में भावनाओं की स्निग्धता

डोली में बैठी नंदा की आंखों से अब भी अश्रु की धारा बह रही है। उसकते-उसकते (सिसकते-सिसकते) वह पर्दे से बाहर झांकती है। ठीक सामने गांव का वही थाल (नंदा चौरा) दिखाई दे रहा है, जहां वह सखियों के साथ हंसी-ठिठोली करती थी। वह घने जंगल, जहां से वह अपने बड़ों के साथ घास-लकड

By Edited By: Published: Thu, 21 Aug 2014 11:05 AM (IST)Updated: Thu, 21 Aug 2014 12:25 PM (IST)
नंदा राजजात: पत्थरों के गांव में भावनाओं की स्निग्धता

देहरादून, [दिनेश कुकरेती]। डोली में बैठी नंदा की आंखों से अब भी अश्रु की धारा बह रही है। उसकते-उसकते (सिसकते-सिसकते) वह पर्दे से बाहर झांकती है। ठीक सामने गांव का वही थाल (नंदा चौरा) दिखाई दे रहा है, जहां वह सखियों के साथ हंसी-ठिठोली करती थी। वह घने जंगल, जहां से वह अपने बड़ों के साथ घास-लकड़ी लाया करती थी। उसे याद आ रहा है रूड़ी (गर्मियों) का वह कौथिग (मेला), थोकदारों के खेत से गुजरती स्यूंद (मांग) सी वह कूल और सौंजड़्यों (संगी-साथी) की टोली, जिसे देखकर तिमले के फूल सा अहसास होता है। मानो कह रही हो, 'दादु वो रूड़ि का कौथिग, स्यूंद सी सैण मा कि कूल, दादु वो सौंजड़्यों कि टोल, ह्वै गये तीमला को फूल।' अहा! कैसा मनोहारी दृश्य है, जी करता है यहां से हिलें ही ना।

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ऐसी ही तो है हमारी नंदा, लेकिन उसके रूप अनेक हैं, इसलिए हर व्यक्ति, हर गांव, हर परगना उसकी विदाई का हिस्सा बनना चाहता है। तभी तो उसके नौटी से बधाण (ससुराल) के लिए निकलते ही सिद्धपीठ कुरुड़ में भी राजजात का आगाज हो जाता है। कुरुड़ यानी पत्थरों का गांव। यहां पत्थरों का एक जंगल है। चारों ओर पत्थर ही पत्थर। एक और दिलचस्प बात कि इन पत्थरों का रंग काला है। मान्यता है कि द्वापर में एक राक्षस अपना साम्राज्य फैलाते-फैलाते दशौली के इस गांव में आ धमका, लेकिन यहां मां राजराजेश्वरी का थान (क्षेत्र) होने के कारण वह मां से युद्ध करने लगा। शस्त्रों से पराजित कर मां ने राक्षस को सम्मुख बिन्सर की पहाड़ी में फेंक दिया। पर, राक्षस चुप नहीं बैठा। उसने बिन्सर की पहाड़ी का आधा हिस्सा मां के थान(क्षेत्र) भद्रेश्वर पर्वत पर दे मारा, जहां मां विराजमान थी। मां के शरीर से टकराते ही यह पहाड़ हजारों टुकड़ों में बिखर गया। तब मां ने त्रिशूल के एक वार से उस राक्षस का अंत कर दिया, लेकिन पत्थर यहीं पड़े रहे। बाद में मां राजराजेश्वरी इन पत्थरों में शिला रूप में बस गई।

पत्थरों के इसी गांव में सोमवार को विधि-विधान पूर्वक राजजात का आगाज हुआ। मां राजराजेश्वरी की डोली यहां से आज [बुधवार को] कैलाश के लिए प्रस्थान करेगी और 29 अगस्त को वाण में उसका मिलन नौटी की जात से होगा। 24 पड़ावों से गुजरते हुए यह जात 12 सितंबर को अपने अंतिम पड़ाव देवराड़ा पहुंचेगी। यह जात कुरुड़ से आरंभ होकर चरबंग, उस्तोली, भेंटी, डुंग्री, सूना, चेपड़्यों, नंदकेसरी, फल्दियागांव, मुंदोली, वाण, गैरोली पातल, वेदनी, पातर नचौंण्या, शिला समुद्र होते हुए होमकुंड पहुंचेगी। यहां चौसिंग्या की विदाई के इसका रास्ता देवराड़ा की तरफ मुड़ जाता है। मां राजराजेश्वरी के देवराड़ा पहुंचने पर यहां 12 सितंबर को महायज्ञ होगा और फिर छह माह तक मां यहां प्रवास करेगी।

नंदप्रयाग से 18 किमी आगे नंदाकिनी नदी के आंचल में बसा कुरुड़ कन्नौजी गौड़ ब्राह्माणों के आधिक्य वाला गांव है। यहां देवदार के विशालकाय वृक्ष की छांव में मां नंदा का प्राचीन मंदिर स्थापत्य कला का अनुपम प्रतीक है। इस मंदिर में नंदा की दो स्वर्ण प्रतिमाएं स्थापित हैं। प्रतिवर्ष ये प्रतिमाएं डोलियों में विराजमान हो वार्षिक जात को स्वरूप प्रदान करती हैं। एक स्वर्ण प्रतिमा बधाण क्षेत्र के गांवों का परिभ्रमण कर वेदिनी बुग्याल तक जाती है तो दूसरी दशौली की डोली में विराजमान होकर रामणी से ऊपर स्थित बुग्याल पहुंचती है। कुरुड़ की नंदा को राजराजेश्वरी के नाम से पूजा जाता है। तत्कालीन गढ़वाल नरेश ने कुरुड़ की नंदा को राजराजेश्वरी का दर्जा प्रदान करते हुए नंदा की शक्ति को सम्मान देकर ताम्रपत्र प्रदान किया था। बधाण की नंदा डोली की भव्य पूजा नंदकेसरी में राजजात से मिलन के समय होती है, जबकि दशौली की नंदा डोली वाण में राजजात की अन्य डोली-छंतौलियों के साथ नंदामय होकर जात को और शक्ति एवं आकर्षण प्रदान करती है। कुरुड़ के मंदिर में प्राकृतिक रूप से नंदा की कृष्णवर्ण पत्थर की छोटी मूर्ति स्थायी रूप से विद्यमान है, जो मंदिर से बाहर नहीं लाई जाती।

दशौली जात के पड़ाव

20 अगस्त: कुरुड़ से लुन्तरा

21 अगस्त: लामसौड़ा, लाटूखाल

22 अगस्त: माणखी, चोपड़ाकोट, कांडई

23 अगस्त: खलतरा, मोठा, सेमा, बैरासकुंड

24 अगस्त: पगना देवी मंदिर

25 अगस्त: भौंदार, चरबंग, ल्वाणी

26 अगस्त: सुंग, रामणी

27 अगस्त: आला

28 अगस्त: जोखना, कनोल

29 अगस्त: वाण लाटू देवता मंदिर

30 अगस्त: गैरोलीपातल

31 अगस्त: वेदिनी बुग्याल

01 सितंबर: पातर नचौंण्या

02 सितंबर: शिलासमुद्र

03 सितंबर: चंदनियाघाट

04 सितंबर: सुतोल

05 सितंबर: नारंगी

06 सितंबर: नंदा की डोली अपने थान सिद्धपीठ कुरुड़ पहुंचेगी।

पढ़े: परंपरा की थाल में संस्कृतियों का मिलन

कोमल भावनाओं की अभिव्यक्ति नंदा की जात


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