कहानी: शब्दों के शूल
अच्छी राइटिंग न होने के कारण हुए उपहास को उस लड़की ने स्वीकार किया चुनौती के रूप मेंऔर हासिल की उच्च शिक्षा...
यह बात लगभग 60-62 साल पुरानी है। तब मैं लगभग 12 वर्ष की थी। मेरे पिता जी जेलर थे और हमारा परिवार फर्रुखाबाद जेल के अहाते में रहता था। यह जेल शहर से बहुत दूर थी। कई किलोमीटर तक स्कूल तो क्या खरीददारी करने के लिए दुकानें तक नहीं थीं। तब जेल और फर्रुखाबाद शहर के बीच में सिर्फ सुनसान जंगल था। बस्ती से दूर होने के कारण अधिकांश जेलकर्मियों के छोटे बच्चे शिक्षा से वंचित ही रहते थे। वैसे भी यह वह दौर था, जब लड़कियों की शिक्षा पर अभिभावक अधिक ध्यान नहीं देते थे। दूसरे, उस समय एक घर में इतने बच्चे होते थे कि माता-पिता सबकी शिक्षा में ध्यान नहीं दे पाते थे। जो बच्चे स्कूल जाना शुरू करते थे, वह तकरीबन दस साल की उम्र पार कर चुके होते थे। प्रत्येक बच्चे पर बहुत ध्यान नहीं दिया जाता था। जो जितना पढ़ गया, ठीक था। मैं अपने अभिभावकों की तीसरी संतान थी। मुझसे बड़े एक भाई और एक बहन थी। वे दोनों पढ़ते थे लेकिन मैं और मुझसे छोटे भाई-बहन पढऩे नहीं जाते थे। हम घर पर ही रहकर थोड़ा बहुत पढ़ लेते थे और बाकी समय खेलकूद में ही जाता था। हम लोगों की पढ़ाई को लेकर किसी को कोई चिंता भी नहीं थी। मां थोड़ी पढ़ी लिखीं थीं, इसलिए जो पढ़ाई होती थी, उन्हीं की वजह से होती थी।
हमारे घर में कई तोते पले थे। गर्मियों के दिन थे। हमारे घर रिश्ते के एक भाई आए। वे तोतों से बहुत डरते थे। हम शरारत में कभी-कभी उनके कंधे पर तोते के बच्चे रख देते थे। उन्हें डराने में हम लोगों को बहुत मजा आता था। वे अक्सर हमारे घर आते और हम लोग उनके साथ यह शरारत करते।
एक दिन वो भाई साहब बोले कि तुम पढ़ती-लिखती भी हो या पूरा दिन खेल में निकाल देती हो। आज मैं तुम्हारी कापी देखूंगा कि तुम क्या पढ़ती हो? मैंने उन्हें वह कापी दिखाई जिसमें घर में ही रहकर पढ़ाई करती थी। मेरी कापी उन्होंने देखी और बोले कि जिसकी राइटिंग इतनी गंदी है, वह कभी पढ़ाई कर ही नहीं पाएगा। उनकी बात सही थी लेकिन उनके कहे शब्द मेरे हृदय में शूल की तरह चुभ गए। वे अपनी बात कहकर चले गए लेकिन उनके शब्द मेरे दिमाग में घर कर गए।
भाई साहब के चले जाने के बाद 2-3 दिनों तक मैं एकदम शांत रही। फिर एक दिन मैंने घर में कहा कि मैं तब तक खाना नहीं खाऊंगी जब तक मेरा स्कूल में एडमीशन नहीं कराया जाएगा। मार्च का महीना था। विद्यालयों में परीक्षाएं नहीं हुई थीं। घर में सबने बहुत मनाया, समझाया और वादा किया कि इस वर्ष की परीक्षाएं हो जाएं फिर जब स्कूल खुलेंगे तो तुम्हारा एडमीशन अवश्य ही करवा दिया जाएगा। एडमीशन की प्रतीक्षा करती हुई मैं घर में ही मां से पढऩे लगी। भाग्य से जून में पिताजी का स्थानांतरण लखनऊ जेल में हो गया।
मां के प्रयत्न से जुलाई में सीधे आठवीं कक्षा में मेरा एडमीशन हो गया। उन भाई साहब की बात मुझे रह-रहकर याद आती थी, इसलिए मैंने मन लगाकर पढ़ाई की। परिणाम आया तो पास हुए लड़के-लड़कियों में मुझे द्वितीय स्थान मिला।
इसके बाद मैंने पलटकर नहीं देखा। पढऩे की ललक थी, सो पढ़ाई आगे भी चलती रही। मैंने अच्छे अंकों के साथ उच्च शिक्षा प्राप्त की। मुझे अब लिखने का शौक भी लग गया था और समाचारपत्रों के लिए लेखन करने लगी। शादी हुई तो पति की भी पहचान एक प्रतिष्ठित लेखक के रूप में थी। कभी मुझे पढ़ न पाने की चुनौती मिली थी लेकिन मैंने उसे दरकिनार कर कई शैक्षिक पुस्तकें लिखीं। मैं कहना चाहती हूं कि अगर दृढ़ इच्छाशक्ति है तो असंभव कुछ भी नहीं है। उपहास को अपनी तौहीन न मानें बल्कि उसे सकारात्मक सोच के साथ चुनौती के रूप में अपनाएं।
चित्रा पाण्डेय, मेरठ (उ.प्र.)
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