इन बॉलीवुड एक्टर ने ताजा की अपने बचपन की होली की यादें
पूंजीवाद और बाजारवाद हावी हो गया है। अब उत्सव पहले जैसे नहीं रहे।
आशुतोष राणा
आशुतोष राणा मध्य प्रदेश से ताल्लुक रखते हैं। वहां से जुड़ी होली की यादों को साझा करते हुए वह कहते हैं, ‘हमारे यहां होलिकोत्सव पांच दिन मनाया जाता था। एक हफ्ता पहले उसकी तैयारी प्रारंभ हो जाती थी। हमारे यहां होली पर भांग की महक अभी भी मिलेगी। ढोल-नगाड़े, मंजीरे के साथ थिरकते लोग मिल जाएंगे। हम होलिका दहन के लिए हर घर से सहयोग लेते थे। कोई लकड़ी या उपले का दान करता था। मुद्दा लकड़ी या उपले का नहीं, बल्कि योगदान का होता था। होलिका दहन में हर धर्म और समुदाय के लोग शरीक होते थे। हर घर प्रसाद पहुंचाया जाता था। उस दिन गांव से छोटी-छोटी टोलियां भी आती थीं। वे ढोल नगाड़ों पर अपनी कला का प्रदर्शन करती थीं। अगले दिन हम सार्वजनिक टंकी बनाते थे। उसमें रंग घोला जाता था। अलग-अलग मोहल्ले से जुलूस निकलते थे। रास्ते में गुजरते समय रंग-गुलाल फिजां में बिखरा होता था। हर घर से गुझिया और शर्बत मिलता था, ताकि धूप की तपिश से राहत मिलती रहे। आज की भागमभाग भरी जिंदगी में त्योहार उत्सव नहीं होते। अब उत्सवों ने त्योहार की शक्ल ले ली है। उन्हें निभाना महज औपचारिकता बन गई है।
मानव कौल
बचपन में होलिका दहन को लेकर मानव कौल भी उत्साहित होते थे। वह बताते हैं, ‘मेरे जेहन में बचपन में होशंगाबाद में मनने वाली होली की यादें आज भी ताजा है। हम होलिका दहन के लिए चंदा एकत्र करते थे। कुछ घरों से लकड़ी मिल जाती थी। कुछ लोग लकड़ी का टूटा फर्नीचर भी हमें होलिका दहन के लिए सहर्ष दे देते थे। बचपन में सिर्फ वही एक मौका होता था जब पूरी रात जागने को मिलता था। हम बच्चों की टोली हुआ करती थी। खूब धमाल मचाते थे। खूब गाना-बजाना होता था। सुबह चार बजे हम होली जलाते थे। फिर होली खेलना प्रारंभ करते थे। हम गीले और सूखे दोनों प्रकार के रंगों से एक-दूसरे को सराबोर करते थे। घरों में गुझिया और मीठी चीजों का आदान-प्रदान होता था। उस बचपन को कभी-कभी मिस करते हैं। मुंबई में हम दोस्त दूर-दूर रहते हैं। होली पर सबका मिलना संभव भी नहीं हो पाता है। यहां पर होली मनाने की परंपरा भी अलग है। मुझे लगता है कि होली बच्चों के लिए बेहतरीन त्योहार है। उनके लिए मेल-मिलाप का जरिया है।’
पंकज त्रिपाठी
बिहार के जिला गोपालगंज में बेलसंड गांव से पंकज त्रिपाठी ताल्लुक रखते हैं। वह बताते हैं, ‘होलिका दहन की तैयारी हम एक हफ्ता पहले शुरू कर देते थे। बचपन में हम थोड़ा नटखट हुआ करते थे। होलिका जलाने के लिए किसी के घर से लकड़ी या फूस चुरा लाते थे। होली के समय गेहूं की बालियां पूर्ण रूप से पकी नहीं होती हैं। उन्हें होलिका में पकाते थे। उसे छीलकर खाने पर सोंधापन लगता था। हमारे यहां अबीर से पहले धूरखेल (धूल के खेल) की परंपरा है। होलिका की राख को उठाकर एकदूसरे को लगाते हैं। दोपहर में स्नान के बाद असल होली होती थी। उसमें फागुन के होली के गीत गाए जाते थे। एक मंडली बनती थी। हर घर में गाते-बजाते हुए हम पहुंचते थे। जिस घर में रिश्ते में लगने वाली भाभी होती थीं वहां सौंदर्यबोध के गाने होते थे। उनमें थोड़ी नोंकझोक, छेड़खानी भी होती थी, लेकिन अश्लीलता नहीं। होली फागुन महीने का आखिरी दिन होता है। रात में चांद निकलने के बाद चैत का महीना लग जाता है। चैत महीने में वहां चैती गाते हैं। हालांकि अब गांव काफी बदल गए हैं। पूंजीवाद और बाजारवाद हावी हो गया है। अब उत्सव पहले जैसे नहीं रहे। अब ईएमआई और बीएचके ने हमारे उत्सव को कम कर दिया है।’
प्रस्तुति- स्मिता श्रीवास्तव
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