जेवर बेचे, गाड़ी बेची....आज हो रहे हैं सभी सपने पूरे
एशियन गेम्स 2014 में पुरुषों की कंपाउंड तीरंदाजी प्रतियोगिता में भारत को एतिहासिक गोल्ड मेडल नसीब हुआ। इस सफलता को हासिल करने वाली टीम के
इंचियोन। एशियन गेम्स 2014 में पुरुषों की कंपाउंड तीरंदाजी प्रतियोगिता में भारत को एतिहासिक गोल्ड मेडल नसीब हुआ। इस सफलता को हासिल करने वाली टीम के तीन सदस्यों में एक नाम रजत चौहान का भी था। बेशक आज वो एक गोल्ड मेडलिस्ट बनकर देश के लिए हीरो बन चुके हैं लेकिन उनका ये सफर आसान बिलकुल नहीं रहा। क्या है इस संघर्ष के पीछे की दास्तां, आइए जानते हैं।
- मां का संघर्ष और 'गोल्ड' की अहमियतः
रजत ने जब रविवार को एशियन गेम्स को 'गोल्ड' मेडल अपने नाम किया तो उनके लिए वो सिर्फ एक 'गोल्ड' मेडल नहीं था बल्कि और भी काफी कुछ था। एक अंग्रेजी अखबार में छपी रिपोर्ट के मुताबिक जयपुर में रहने वालीं रजत की मां निर्मला ने अपने बेटे की सफलता के पीछे काफी संघर्ष किया। जब रजत को अपने सपनों को उड़ाने देने के लिए व तीरंदाजी करियर को नए मुकाम तक पहुंचाने के लिए एक आधुनिक और विदेशी बाण की जरूरत थी। उन विदेशी तीर और बाण के लिए तीन लाख की जरूरत थी जो उनके पास नहीं थेे। तब उनकी मां ने हर वो संभव कोशिश की जिससे उनका बेटा अपने हसरत को पूरा कर सके। रजत की मां ने बिना अपने बेटे को बताए अपने सोने के जेवरात गिरवी रख दिए और उसके बाद भी जब पैसे कम पड़े तो परिवार की गाड़ी भी बेच दी और किसी तरह उन जरूरी पैसों का इंतजाम करके अपने बेटे को वो दिया जिसकी उसे जरूरत थी।
उस समय रजत 18 साल के थे और उन्हें अपने परिवार के इस समर्थन के चलते करियर को उड़ान देने का मौका मिला। नतीजे सबके सामने थे। 2012 में बैंगकॉक में एशियन ग्रां प्रि के दौरान रजत ने सिल्वर मेडल जीता और फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। पिछले साल उन्होंने विश्व चैंपियनशिप में डेनमार्क के दिग्गज तीरंदाज मार्टिन डैम्सबो को पस्त करने का कमाल किया। जाहिर है कि एशियन गेम्स का गोल्ड मेडल उनके करियर को एक और नई राह दिखाएगा। आज उनके परिवार ने उन गिरवी जेवरातों को वापस हासिल भी कर लिया है और उस समय किया गया संघर्ष आज बखूबी रंग लाता नजर आ रहा है।