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राजनीति की बिसात पर चुनावी नारों का तीखा तड़का, एक बार फिर लौट आया है वही दौर

फिर लौट आया है चुनावी नारों का दौर, इसके बिना भला कैसे हो सकते हैं चुनाव चुनाव की बिसात पर लौट आया है नारेबाजी का तीखा तड़का, इनके बिना कैसे पूरे होंगे चुनाव

By Kamal VermaEdited By: Published: Mon, 19 Nov 2018 03:05 PM (IST)Updated: Mon, 19 Nov 2018 03:06 PM (IST)
राजनीति की बिसात पर चुनावी नारों का तीखा तड़का, एक बार फिर लौट आया है वही दौर
राजनीति की बिसात पर चुनावी नारों का तीखा तड़का, एक बार फिर लौट आया है वही दौर

मुकुल श्रीवास्तव। भारतीय लोकतंत्र में कोई भी चुनाव बगैर नारों के सम्पन्न नहीं हो सकते। नारे न तो कविता हैं न ही कहानी, इन्हें साहित्य की श्रेणी में रखा गया है, पर वे नारे ही हैं जो लोगों को किसी दल और उसकी सोच को जनता के सामने लाते हैं। नारों को अगर परिभाषित करना हो तो कुछ ऐसे परिभाषित किया जा सकता है- राजनीतिक, वाणिज्यिक, धार्मिक और अन्य संदर्भो में, किसी विचार या उद्देश्य को बारंबार अभिव्यक्त करने के लिए प्रयुक्त एक यादगार आदर्श वाक्य या सूक्ति को नारा कहा जाता है। इनकी आसान अभिव्यक्ति विस्तृत विवरणों की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ती है और इसलिए शायद वे अभीष्ट श्रोताओं के लिए प्रक्षेपण की बजाय, एकीकृत उद्देश्य की सामाजिक अभिव्यक्ति के रूप में अधिक काम करते हैं।

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विधानसभा चुनाव का प्रचार चरम
देश के चार राज्यों में विधानसभा चुनाव का प्रचार चरम पर है। ये विधानसभा चुनाव इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि इनके तुरंत बाद लोकसभा चुनाव की बारी आ आएगी तो इस तरह से पांच साल में आने वाला चुनावी नारों का दौर लौट आया है, लेकिन सभी राजनीतिक दलों के नारों में न तो मौलिकता है और न ही प्रयोगधर्मिता। दलों के भावी शासन का दर्शन भी नदारद है। इससे यह पता पड़ता है कि हमारे राजनीतिक दल विचारों के दिवालियापन का शिकार हो चुके हैं। यह विचारों का दिवालियापन ही है कि ज्यादातर नारे फिल्मी गानों की तर्ज पर या उनके इर्द-गिर्द रचे जा रहे हैं या फिर पूर्व प्रचलित नारों के शब्दों में थोड़ा हेर-फेर कर दिया जा रहा है। सोशल मीडिया के आगमन ने चुनाव लड़ने के तौर तरीकों पर भी असर डाला है। तकनीक की सर्वसुलभता ने राजनीतिक दलों की लोगों तक पहुंच आसान कर दी है, पर इस चक्कर में मौलिकता का पतन हुआ है। चुनाव के समय में दलों का चरित्र हनन और मजाक उड़ाना अब आम बात हो गई है। संदर्भ से कटे हुए वीडियो हों या मजाक उड़ाते मीम या फिर फेक न्यूज, यह सब आज के चुनावी तरकश के तीर हैं जिसमें भौंडापन ज्यादा है और चुनावी प्रचार की गरिमा कम।

बदल गया दौर
पहले के चुनाव नारों पर लड़े जाते थे, पर अब चेहरों पर लड़े जा रहे हैं। सत्ता में आने के बाद राजनीतिक दल शासन का कैसा चेहरा देंगे जोर इस पर नहीं, बल्कि कौन सा चेहरा शासन करेगा जोर इस पर है। जब चेहरे शासन करने लग जाएं तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि लोकतंत्र में कैसे राजतंत्र प्रवेश कर गया है। नारे तो अभी भी गढ़े जा रहे हैं, लेकिन न तो उनमें वो वैचारिक स्पष्टता और न ही नैतिक प्रतिबद्धता है जिससे मतदाता उनसे प्रभावित हो या वोट देते समय नारे उसके निर्णय को प्रभावित करें। गरीबी हटाओ जैसा नारा आज भी लोगों को याद है। भले ही व्यवहार में गरीबी देश से न खत्म हुई हो, लेकिन कहा जा सकता है कि गरीबी जैसे विषय को सरकार की प्राथमिकता जरूर मिली।

राजा नहीं फकीर है...
भ्रष्टाचार के विरोध में जब पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने कांग्रेस पार्टी छोड़ी तो ‘राजा नहीं फकीर है, देश की तकदीर है’ जैसे नारों से उनका स्वागत किया गया और उन्होंने सामाजिक न्याय के लिए मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू की, भले ही इसके लिए उन्हें अपनी सरकार कुर्बान करनी पड़ी। कथनी करनी के अंतर की यह कहानी सारी हकीकत खुद बयां कर रही है। अब तो यह आलम है कि सुबह नेता टिकट के लिए किसी दल की लाइन में लगे हैं और वहां से निराश होने पर शाम को किसी और दल की लाइन में लग लिए। इंदिरा गांधी जहां अपने ‘गरीबी हटाओ’ जैसे नारों के लिए जानी जाती हैं वहीं उनके खाते में कुछ ऐसे नारे भी हैं जो आपातकाल की भयावहता को बताते हैं- ‘जमीन गई चकबंदी में, मकान गया हदबंदी में, द्वार खड़ी औरत चिल्लाए, मेरा मर्द गया नसबंदी में।’

नारों में आक्रामकता
नारों में आक्रामकता जरूर रहती थी पर राजनीतिक चुहल भी खूब चलती थी। जली झोपड़ी भागे बैल, यह देखो दीपक का खेल (साठ के दशक में जनसंघ का चुनाव चिन्ह दीपक था जबकि कांग्रेस का चुनाव चिन्ह दो बैलों की जोड़ी थी)। इसका जवाब कुछ इस तरह दिया गया- ‘इस दीपक में तेल नहीं, सरकार बनाना खेल नहीं।’ आज के नारों को अगर समाजशास्त्रीय नजरिये से देखा जाए तो ये चुनावी नारे कुछ शब्दों का संग्रह मात्र हैं जिनमें लफ्फाजी ज्यादा है। देश बदलना सुनने में भले ही अच्छा लगे पर यह होगा कैसे, इसकी कोई रूपरेखा कोई भी दल नहीं दे पा रहा है। साठ के दशक में राम मनोहर लोहिया ने जब नारा दिया था- ‘सोशलिस्टों ने बांधी गांठ, पिछड़े पावें सौ में साठ’ तो ये महज नारा नहीं एक बदलाव की पूरी तस्वीर थी।

जेपी की क्रांति
जय प्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति के नारे ने 1970 के दशक में पूरे देश की राजनीति को व्यापक तौर पर प्रभावित किया था जिसकी चरम परिणिति सरकार परिवर्तन के रूप में सामने आई। श्रीकांत वर्मा ने अपने संग्रह ‘मगध’ में इसी वैचारिक खालीपन को कुछ यूं बयान किया था- राजसूय पूरा हुआ, आप चक्रवर्ती हुए, सिर्फ कुछ प्रश्न छोड़ गए हैं, जैसे कि यह कोसल अधिक दिन नहीं टिक सकता, कोसल में विचारों की कमी है।

राजनीतिक दलों के नारे
राजनीतिक दलों के नारे अक्सर देश की जनता का मूड भांपने की किसी दल की क्षमता को स्पष्ट करते हैं। एक अच्छा नारा धर्म, क्षेत्र, जाति और भाषा के आधार पर बंटे हुए लोगों को एक सूत्र में बांध सकता है जिनसे एक नागरिक के तौर पर प्राथमिकताएं स्पष्ट होती हैं, लेकिन एक खराब नारा राजनीतिक महत्वाकांक्षा को बर्बाद भी कर सकता है। भारत में राजनीतिक नारों में से कई ऐसे भी हुए हैं जो यादगार रहे हैं, मसलन ‘गरीबी हटाओ’, ‘इंडिया शाइनिंग’, ‘जय जवान, जय किसान’।

राजनीति में विचार शून्यता
पर आज की राजनीति जैसे विचार शून्यता की शिकार हो चली है। नेता तो आ रहे हैं दल भी बढ़ रहे हैं, पर विचार खत्म हो रहे हैं। परिवारवाद हर राजनीतिक दल में बढ़ता जा रहा है। हमें यह बिल्कुल नहीं भूलना चाहिए कि नारे किसी भी लोकतंत्र के शासन के प्राथमिक माध्यम हैं। ऐसे में नारे अगर विचार केंद्रित न होकर व्यक्ति केंद्रित हो जाएं तो हमें समझ लेना चाहिए कि सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर सब कुछ ठीक नहीं चल रहा। किसी भी लोकतंत्र में नए विचारों का न आना एक तरह की राजनीतिक शून्यता पैदा कर देता है जो शासन की दृष्टि से उचित नहीं होगा। नारे लोकतंत्र के शासन के प्राथमिक माध्यम हैं। नारे अगर विचार केंद्रित न होकर व्यक्ति केंद्रित हो जाएं तो समझ लेना चाहिए कि सामाजिक राजनीतिक स्तर पर सब दुरुस्त नहीं

(लेखक लखनऊ विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर हैं)


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