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भारत नेपाल संबंध, बोली से गोली तक, जानें- इसके पीछे क्या है चालबाज चीन की साजिश

आज के नेपाल को अपने सर्वमान्य नेता बीपी कोईराला गणेश मान सिंह और मनमोहन अधिकारी से प्रेरणा लेने की आवश्यकता है जिन्होंने भारत के स्वतंत्रता आंदोलनों में भाग लिया था।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Thu, 02 Jul 2020 10:15 AM (IST)Updated: Thu, 02 Jul 2020 03:25 PM (IST)
भारत नेपाल संबंध, बोली से गोली तक, जानें- इसके पीछे क्या है चालबाज चीन की साजिश
भारत नेपाल संबंध, बोली से गोली तक, जानें- इसके पीछे क्या है चालबाज चीन की साजिश

अमिय भूषण। India–Nepal relations विवादित नक्शे के साथ नेपाल में शुरू हुआ भारत विरोध का नया सिलसिला अब और गहरा होने लगा है। भारत-नेपाल सीमा से अक्सर नेपाली शासन के प्रताड़ना और उकसावे के नए-नए घटनाक्रम सामने आ रहे हैं। नेपाल के निराधार, अनैतिक और अनुचित दावे से शुरू हुई उन्माद और उकसावे की ओली कोशिश, गोली से होते हुए सरहदी गांवो के बंदिश और अतिक्रमण तक पहुंच गई है।

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भारत नेपाल सीमाक्षेत्र के गांवों में नेपाल द्वारा की जाने वाली अमानवीय व्यवहार की घटनाएं निरंतर बढ़ती जा रही हैं। आजाद भारत के इतिहास में यह पहली बार है जब बेटी-रोटी के संबंधों के बीच नेपाल की ओर से कंटीले तार लगाने की कवायद तेज हो गई है। कहा जा सकता है कि दोनों देशों के बीच का ऐतिहासिक संबंध आज नाजुक दौर में है।

भारत विरोधी स्वर अत्यंत प्रबल : भारत के प्रति आक्रामक हो रहे नेपाल की प्रकृति और प्रवृत्ति को समग्रता से समझने की जरूरत है। पवित्र कैलाश मानसरोवर यात्रा को सुगम बनाने के लिए भारत द्वारा एक नए संपर्क मार्ग का हाल ही में उद्घाटन किया गया है। उत्तराखंड में बना यह लिंक रोड चीन अधिकृत तिब्बत तथा नेपाल के धारचूला जिले से सटा हुआ है। इस सड़क निर्माण के बाद से ही नेपाल में फिर एक बार भारत विरोधी स्वर अत्यंत प्रबल है। यह स्थिति तब है जब नेपाल के सभी निवासियों का संबंध किसी न किसी रूप में भारत से जुड़ता है। यहां इनकी रिश्तेदारी है, रोजगार है और धर्म के साथ ही सहयोग में खड़ा सदैव एक भारतीय हाथ है। वैसे नेपाल की कुल आबादी 2019 की जनगणानुसार 2.86 करोड़ है। पर अवसरों की कमी के कारण लगभग हर चौथा नेपाली नागरिक देश के बाहर है।

भारत में 50 लाख नेपाली नागरिक : दुनिया भर में रह रहे करीब 75 लाख नेपालियों में से अकेले भारत में 50 लाख नेपाली नागरिक नौकरी और कारोबार के जरिये अपनी आजीविका चलाते हैं। इसका एक आश्चर्यजनक पहलू यह भी है कि कोरोना महामारी के पूर्व तक भारत में कामगार के तौर पर रहने वाले नेपाली नागरिकों की सूची नेपाल सरकार के पास नहीं थी। इस देश की आय का दूसरा बड़ा स्रोत नेपाल भ्रमण पर आए तीर्थयात्री व पर्यटक हैं। यहां घरेलू पर्यटक से भी अधिक अगर कोई पर्यटक आता है, तो वह भारतीय है। फिर भी हम यहां घृणा के पात्र हैं, जबकि कंबोडिया एवं थाईलैंड के राजपरिवार को अपने भारतीय संबंध और हिंदू पहचान के अतीत पर गर्व है।

साइबर अटैक को अंजाम दिया गया : यहां तक कि बौद्ध पहचान व खुली सीमाओं वाले भूटान और म्यांमार को भारत से कोई परेशानी नहीं है, लेकिन नेपाल को होने लगी है। दरअसल नेपाल की आबोहवा में ही पाकिस्तान से मोहब्बत और चीन को लेकर दीवानगी दशकों से है, वह भी तब जब चीन द्वारा बीते दिनों माउंट एवरेस्ट पर अधिकार जताया गया है। यदि कुछ सप्ताह पीछे जाएं तो चीनी नागरिकों द्वारा नेपाल के सत्ता प्रतिष्ठान सिंह दरबार के सामने नेपाली पुलिस बल के साथ हाथापाई की गई थी, जिसमें एक डीएसपी स्तरीय अधिकारी भी चोटिल हुआ था। अगर पिछले वर्ष की बात करें तो यहां चीनी समुदाय के लोगों द्वारा एक बड़े साइबर अटैक को अंजाम दिया गया, जिसमें नेपाल के वित्तीय तंत्र को काफी नुकसान पहुंचा था।

समस्या के कारणों को समग्र आकलन : ऐसे में हमें उन नेपाल विशेषज्ञ भारतीय मनीषियों से यह सवाल भी पूछना चाहिए जो अब तक केवल सुगौली की संधि और 1950 की द्विपक्षीय संधि को पढ़कर बैठे हैं और मान लिया है कि कोई समस्या नहीं है। अगर कभी कहीं कुछ होता है तो वे बड़ी आसानी से कह देते हैं कि इसमें चीन का हाथ है या फिर आइएसआइ की साजिश है। यही हाल कमोबेश धार्मिक व सामाजिक क्षेत्र में काम रहे अन्य बड़े संगठनों का भी है। दरअसल हिंदू विचार परिवार के ये संगठन भी केवल धार्मिक पहचान की वजह से समग्र नेपाल को अपना मानते हैं, लेकिन ऐसे विचार वाले संगठनों को बांग्लादेश व पाकिस्तान के उदाहरण से भी समझना चाहिए कि मजहब एक होने से सबकुछ सही नहीं हो जाता है। समुदाय की पहचान मजहब से ऊपर होती है।

भारत की आजादी के बाद नए संबंधों की शुरुआत : भारत की आजादी के बाद नई सरकार और नेपाल के राणाशाही के बीच 31 जुलाई 1950 को एक द्विपक्षीय संधि की गई थी। यह संधि तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री पंडित नेहरू और नेपाल नरेश त्रिभुवन वीर विक्रम शाह के बीच थी। इस संधि के तहत भारत ने नेपाल के नागरिकों को वे सभी अधिकार और अवसर दिए, जो भारत के आम नागरिक को उपलब्ध हैं। नेपाली नागरिक भारत में केवल चुनाव नहीं लड़ सकते तथा आइएएस व आइएफएस की परीक्षा नहीं दे सकते हैं। ऐसे ही अधिकार हर भारतीय को नेपाल में भी मुहैया कराए गए, किंतु न तो नेपाल सरकार ने कभी यह अवसर दिया और न ही किसी भारतीय ने उसके लिए दावा किया।

वर्ष 1950 के इस द्विपक्षीय संधि के अनुच्छेद आठ के तहत पूर्व में हुए अपमानजनक सुगौली संधि के प्रावधानों को भी निरस्त किया गया था। इस दौरान दोनों देश ने साथ मिलकर सीमांकन करने तथा पूर्व के किसी दावे को भविष्य में नहीं दोहराने का संकल्प भी लिया था। बाद में 1975 में नेपाल ने अपना नक्शा जारी किया था, जिसमें लिंपियाधुरा की 335 वर्ग किमी भूमि को नेपाली भूभाग में नहीं दर्शाया गया था। इसके बाद 26 वर्षों समयावधि में दोनों देशों ने अपनी 1,850 किमी लंबी और खुली सीमा के 98 प्रतिशत हिस्से के रेखांकन का कार्य पूरा कर लिया। किंतु पिछले वर्ष भारत सरकार द्वारा नए केंद्र शासित प्रदेश के रूप में कश्मीर और लद्दाख के नक्शे को नए सिरे से प्रकाशित करने के बाद से यह हो-हल्ला प्रारंभ हो गया है। अगर ये इलाका विवादित होता, तो न ही 1954 से लिपुलेख दर्रे से भारत चीन व्यापार होता और न ही 1962 से यहां इंडो तिब्बत फोर्स तैनात होती। चीन ने भी 2015 के पूर्व यहां कभी नेपाल को एक पक्ष नहीं माना है, तो ये ट्राईजंक्शन कैसे हुआ?

नेपाल का यह कैसा राष्ट्रवाद : अब जब नेपाल की सरकार इस मसले को हवा दे रही है, तब यहां पहाड़ों में राष्ट्रवाद उफान पर है। सभी राजनीतिक विचारों व समुदायों के लोग एक मत होकर भारत को सबक सिखाने के मूड में हैं। दरअसल यहां के पहाड़ों का राष्ट्रवाद अजीब है। इस राष्ट्रवाद में जहां भारत नेपाल के लिए डेविल यानी शैतान है तो वहीं चीन दयावान है। भारत को विस्तारवादी कहनेवाले नेपाली सरकार और जनमानस को ऐतिहासिक रूप से कायम भारत नेपाल संबंधों और भारत की अब तक की तमाम गतिविधियों को ध्यान में रखना चाहिए। आज के नेपाल को अपने सर्वमान्य नेता बीपी कोईराला, गणेश मान सिंह और मनमोहन अधिकारी से प्रेरणा लेने की आवश्यकता है, जिन्होंने भारत के स्वतंत्रता आंदोलनों में भाग लिया था।


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