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शहीद हो गया मेरा लाल, किसके सहारे जियें हम

हमें गर्व है कि हमारा इकलौता लाल लोगों की जान बचाते हुए शहीद हुआ है, लेकिन अब हम किसके सहारे अपनी जिंदगी गुजारें। हमारा तो सब कुछ चला गया। कितने जोश और उत्साह से वह गया था। हर दिन फोन पर कहता था, मां यहां न जाने कितनी माताएं जिंदगी और मौत से जूझ रही हैं। जिन्हें बचाते हुए बहुत खुशी हो रही है। व

By Edited By: Published: Fri, 28 Jun 2013 08:01 AM (IST)Updated: Fri, 28 Jun 2013 08:02 AM (IST)

नई दिल्ली, जागरण संवाददाता। हमें गर्व है कि हमारा इकलौता लाल लोगों की जान बचाते हुए शहीद हुआ है, लेकिन अब हम किसके सहारे अपनी जिंदगी गुजारें। हमारा तो सब कुछ चला गया। कितने जोश और उत्साह से वह गया था। हर दिन फोन पर कहता था, मां यहां न जाने कितनी माताएं जिंदगी और मौत से जूझ रही हैं। जिन्हें बचाते हुए बहुत खुशी हो रही है। वह तो पुण्य का काम कर रहा था, लेकिन भगवान ने उसे अपने पास बुला लिया।

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उत्तराखंड में आई प्राकृतिक आपदा में फंसे लोगों की जान बचाते हुए शहीद हुए चांदनी चौक स्थित किनारी बाजार निवासी पायलट तपन कपूर की मां यह कहते हुए बिलख-बिलख रोने लगती हैं। एमबीए की पढ़ाई पूरी कर एक निजी कंपनी में कार्यरत शहीद तपन की बहन स्वेता कपूर गाड़ी की आवाज सुनते ही घर के दरवाजे पर दौड़ पड़ती हैं। पूरे किनारी बाजार में मातम पसरा है।

तपन के साथ नर्सरी कक्षा से साथ पढ़े प्रफुल गडोरिया व वरुण जैन बताते हैं कि तपन को एथलीट का बहुत शौक था। साथ ही देशभक्ति की बातें वह खूब करता था। यही वजह थी कि करीब ढाई वर्ष पहले उसने एक निजी एयरलाइंस की मोटी तनख्वाह वाली नौकरी छोड़कर देश सेवा के लिए एयरफोर्स ज्वाइन की थी। शहीद तपन के पिता नरेश कपूर के दोस्त सतेंद्र जैन व सतीश नाहर बताते हैं कि तपन काफी मिलनसार था। इसी महीने की एक तारीख को वह घर आया और 15 जून को पश्चिम बंगाल स्थित बैरकपुर अपनी ड्यूटी पर चला गया।

शोकाकुल परिजनों को संत्वाना देने आए दिल्ली प्रदेश भाजपा अध्यक्ष विजय गोयल कहते हैं कि यह पूरे देश की क्षति है। शहीद तपन के पार्थिव शरीर को देहरादून से लाने की कवायद गुरुवार सुबह से ही जारी रही। एक बार तो कहा गया कि पार्थिव शरीर दिन के तीन बजे तक दिल्ली लाया जाएगा। परिजन अंतिम क्रिया का सारा सामान लेकर आ गए, लेकिन शाम सात बजे बताया गया कि कुछ जरूरी औपचारिकता पूरी नहीं हो पाने की वजह से पार्थिव शरीर अब शुक्रवार को दिल्ली भेजा जाएगा। इसे लेकर परिजनों में सरकार के खिलाफ नाराजगी भी है।

लग रहा था, जंगल खत्म नहीं होंगे

सुधीर कुमार नई दिल्ली। विश्वास नहीं था कि घर लौट कर भी आ पाऊंगी। जंगल और पहाड़ों में पांच दिनों तक ऐसे भटकती रही कि लग रहा था कि यह सफर कभी खत्म होगा ही नहीं। दर्जनों बच्चे, महिलाएं और वृद्ध ने रास्ते में ही दम तोड़ दिया। किसी की पहाड़ से फिसल कर मौत हुई तो किसी ने इलाज के बिना दम तोड़ दिया। पांच दिनों बाद जब छोटी सी बस्ती नजर आई तब लगा कि अब जान बच जाएगी। मैं तो बचकर आ गईं लेकिन मेरे पति सहित परिवार के छह सदस्यों का अब तक पता नहीं है। यह कहते हुए बीना केमनी फफक पड़ती हैं। सरोजनी नगर निवासी बीना परिजनों के साथ केदारनाथ में आई आपदा में फंस गई थीं। वह बताती हैं कि वह पति दुर्गा प्रसाद केमनी और पांच अन्य रिश्तेदारों चंद्रप्रकाश, सावित्री, ओमप्रकाश, कुंजलता और सीता देवी बडोला के साथ गई थीं। 16 जून को सुबह छह बजे उन्होंने केदारनाथ में दर्शन किए और वापसी के लिए चल पड़े। रास्ते में सीता देवी को पालकी पर बिठाने के लिए परिवार के अन्य सदस्य केदारनाथ से एक किलोमीटर आगे आकर रुक गए और वह ग्रुप के अन्य सदस्यों के साथ आगे बढ़ गईं। रामबाड़ा पहुंची ही थी कि भारी बारिश से वहां के हालात खराब हो गए। सड़क पर इतनी तीव्र गति से पानी गिरने लगा कि आगे का रास्ता बंद हो गया। फंसने वालों की संख्या हजारों में थी। सबने जंगल का रुख कर लिया। पहाड़ व जंगलों से होते हुए कई बार मुख्य सड़क पर पहुंचे लेकिन हर जगह की स्थिति ऐसी थी कि आगे जा नहीं सकते थे। फिर पहाड़ और जंगल का रुख करना पड़ता था। खाने के लिए कुछ नहीं था। झरने का पानी पीकर प्यास बुझाते थे। भीगे और कीचड़ से सने कपड़े में ही वह पांच दिनों तक चलती रहीं। जहां रात हो जाती वहीं रुक जाते। पहाड़ों में इतनी गड़गड़ाहट होती थी कि हर पल पत्थर गिरने या बादल फटने का डर बना रहता था। 21 जून को सोनप्रयाग पहुंचने पर सेना के हैलीकाप्टर ने नदी पार करवाई, यहां से फिर जंगल के रास्ते होते हुए सीतापुर पहुंचे। प्राइवेट टैक्सी वाले ने 20 की जगह 100 रुपये वसूले और फाटा पहुंचाया। सरकारी मदद मिली और गुप्तकाशी, ऋषिकेश होते हुए शनिवार को दिल्ली पहुंचीं।

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